भारत-चीन विवाद: LAC एक नहीं इलाके में हैं 4-4 लाइनें कैसे थमेगा संघर्ष
भारत-चीन विवाद: LAC एक नहीं इलाके में हैं 4-4 लाइनें कैसे थमेगा संघर्ष
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद दशकों पुराना है. इसमें कोई नई बात नहीं है. लेकिन, इस विवाद का जड़ क्या है? इसे आज तक क्यों नहीं सुलझाया जा सका? यह एक यक्ष प्रश्न है. इसी मसले पर दुनिया के एक सबसे प्रतिष्ठित अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स में बड़ा लेख छपा है. आप भी इस लेख के कुछ अंश से इस विवाद की जड़ को समझ सकते हैं.
वर्ष 1962 में भारत और चीन के बीच हुई जंग के बाद से ब्रह्मपुत्र नदी में काफी पानी बह चुका है. हिमालय की पर्वत चोटियों के ग्लेशियर पिघल चुके हैं. लेकिन, एलएसी की स्थिति नहीं बदली है. दोनों देशों के बीच करीब 2100 मील लंबी सीमा रेखा है. यह इलाका दुनिया के कुछ सबसे दुर्गम इलाकों में से एक है. सैकड़ों मील की दूरी तक केवल बर्ष का रेगिस्तान है. बावजूद इसके इस इलाके में दोनों मुल्कों के हजारों सैनिक रात दिन तैनात रहते हैं. कहीं-कहीं इन इलाकों की समुद्र तल से ऊंचाई 20 हजार फीट है. यहां न्यूनतम तापमान माइनस 40 डिग्री तक चला जाता है. राष्ट्रीय भावना से इतर इस इलाके के बारे में पूछा जाए तो कोई दूसरा व्यक्ति यही कहेगा कि क्यों यहां पर ऐसी लड़ाई चल रही है. जहां न तो इंसान है और न ही जानवर.
ऐसे में न्यूयॉर्क टाइम्स ने यह जानने की कोशिश की आखिर इस विवाद को क्यों नहीं सुलझया जा रहा है. इंडियन आर्मी के डायरेक्टर जनरल मिलिट्री ऑपरेशन विनोद भाटिया ने कहना है कि इस इलाके की स्थिति विचित्र है. यहां चार लाइनें हैं. एक लाइन भारतीय नजरिये वाला एलएएसी है. दूसरा चीन के नजरिए वाला एलएसी, तीसरा चीन के नजरिये के बारे में भारत के नजरिये वाली लाइन और चौथी लाइन भारत के नजरिये के बारे में चीन का नजरिया. इस तरह यहां पर चार लाइनें हैं. पूरे इलाके में भौगोलिक रूप से स्पष्टता नहीं है. कई जगहें ऐसी हैं जो नो मैन्स लैंड जैसी हैं. यहां दोनों देशों के सैनिक पेट्रोलिंग किया करते हैं. इसी दौरान उनके बीच तनाव की स्थिति पैदा होती है. हालांकि 1996 के एक समझौते के तहत दोनों देश की सेना सशस्त्र संघर्ष से बचती है.
कहां संघर्ष की जड़
लेकिन, दोनों देशों के बीच इस संघर्ष की जड़ इन दुर्गम पहाड़ियों ने नीचे नहीं है. इसकी जड़ इससे कही दूर दुनिया के मानचित्र में छिपी है. इसी कारण इस संघर्ष को अभी तक सुलझाया नहीं गया है वरना दुनिया में तमाम जगहों पर इस तरह के संघर्ष को शांतिपूर्वक सुलझा लिया गया.
देश की बाहरी खुफिया एजेंसी रॉ के साथ काम कर चुके एक अधिकारी जयदेव रनाडे का कहना है कि यह संघर्ष निकट भविष्य में खत्म नहीं होने वाला है. मसला केवल भूभाग को लेकर नहीं है बल्कि यह व्यापक भूराजनीतिक प्रतिद्वंद्विता से जुड़ा है. वे यह नहीं चाहते कि भारत आगे बढ़े. क्योंकि वे खुद हिंद-प्रशांत क्षेत्र की इकलौती ताकत बने रहना चाहते हैं. इसके साथ ही दोनों देश विश्व पर अपना-अपना प्रभाव दिखाना चाहते हैं. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग खुले तौर पर चीन के प्रभाव की बात कर चुके हैं. वहीं दूसरी तरफ भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कई बार भारत की प्राचीन ख्याति हासिल करने की बात करते हैं. वह दुनिया में भारत के लिए विश्वगुरु की भूमिका देखते हैं.
भारत ने अपनाया कड़ा रुख
किंग्स कॉलेज लंदन के प्रोफेसर हर्ष वी. पंत का कहना है कि भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले से समझौता न करने की ठानी है. इसकी एक झलक बालाकोट में एयर स्ट्राइक के तौर पर देखी गई थी. रूस से तेल के आयात को लेकर भारत यूरोपीय संघ की आलोचना झेल रहा है. कनाडा के साथ कूटनीतिक संकट में भी भारत की आक्रमकता दिखी थी. पंत का कहना है कि इन मसलों पर भारतीय अधिकारियों के बातचीत करने के लहजे में काफी बदलाव आया है. एक अन्य पेशेवर कूटनीतिज्ञ पंकज सरन का कहना है कि समय बदल गया है. आज हम 1980 के दशक में नहीं है. भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है.
शी जिनपिंग के कारण बढ़ा तनाव?
दरअसल, भारत और चीन के बीच विवाद 1962 से बना हुआ है. उस वक्त ही दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को लेकर जंग हुई थी. उस जंग में चीन ने भारत की करीब 15 हजार वर्ग मील जमीन कब्जा ली थी. फिर 1986-87 में दोनों देशों के बीच पूर्वी सेक्टर में एक बड़ी झड़प हुई थी. इसके बाद हालांकि स्थितियां कमोबेश ठीक रहीं. फिर 2013 से दोनों देशों के बीच सीमा विवाद बढ़ गया है. उसी साल शी जिनपिंग राष्ट्रपति बने. फिर उसी साल अप्रैल में डेपसांग में दोनों देश की सेना आमने-सामने आ गई. उसके बाद से लगातार कई जगहों पर चीनी सैनिकों के घुसपैठ की बातें सामने आईं. इस दौरान डोकलाम में भी संघर्ष देखने को मिला. जून 2020 में गलवान घाटी में भी झड़प की घटना घटी. कहीं न कहीं ये सभी चीजें शी जिनपिंग की उस नीति से जुड़ी हैं जिसमें वह चीन को एक वैश्विक और क्षेत्रीय शक्ति के तौर पर देखते हैं.
मनोवैज्ञानिक जंग
इस बारे में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर श्रीकांत कोंडापल्ली ने एक भारतीय ब्रिगेडियर के हवाले से बताया कि भारतीय सेना चीनी सैनिकों पर मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल करने की कोशिश में रहती है. इसके लिए वह 40 से 50 बेहद लंबे करीब साढे़ छह फीट के जवानों को चीनी सैनिकों के सामने खड़ा करती है. चीनी सैनिक सामान्य तौर पर भारतीयों से छोटे होते हैं. गलवान की घटना के बारे में रनाडे कहते हैं कि यह अचानक हुई घटना नहीं थी. बल्कि इसके पीछे की योजना से इनकार नहीं किया जा सकता है. दिल्ली के एक वरिष्ठ खुफिया अधिकारी का कहना है कि एलएसी पर चीन की आक्रमकता के पीछे भी उसका लक्ष्य हैं. वह भारत के प्रभाव को कमतर दिखाना चाहता है. वह भारत के पड़ोसी देशों बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका को दिखाना चाहता है कि भारत खुद की सहायता करने में सक्षम नहीं है. ऐसे में वह उनकी सहायता कैसे कर सकता है. इसके अलावा आर्थिक मोर्चे पर भी चीन यह दिखाता है कि भारत कहीं से उसका मुकाबला नहीं कर सकता है. इसके साथ ही तिब्बत वाले क्षेत्र में चीन ने तमाम गांव बसाएं हैं जिसमें उसके सैनिक और अन्य लोग रह रहे हैं. भारतीय अधिकारियों का कहना है चीन धीरे-धीरे इन सीमाई गांवों के जारिए अपनी पकड़ बढ़ा रहा है. कुछ ऐसा ही उसने दक्षिण चीन सागर में किया था. उसी फॉर्मूले को वह एलएसी के पास दोहराना चाहता है.
दरअसल, भारत और चीन दोनों एक दूसरे पर दबाव बनाने के लिए एक जैसी रणनीति अपनाते हैं. भारत के अरुणाचल प्रदेश को चीन अपना हिस्सा बताता है. लेकिन, भारत भी उसको उसकी ही भाषा में जवाब देता है. लेकिन भारत की चुनौती बड़ी है. भारतीय इलाके कई सुदूर गांवों 20-25 साल पहले लोगों को नहीं पता था कि वे भारतीय हैं. इन सुदूर गांवों के लोगों में भारतीय को जन्म देना और उनको भारत की मुख्य आबादी से जोड़ना एक बड़ी चुनौती है. अरुणाचल और इलाके में भारतीयता के प्रभाव को बढ़ाना, वैश्विक स्तर पर और पड़ोस के देशों को भरोसा दिलाने के लिए कदम उठाना जरूरी है. एलएसी पर तनाव का जड़ कहीं न कहीं इन वैश्विक मुद्दों में छिपा है.
Tags: India chinaFIRST PUBLISHED : June 30, 2024, 16:09 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed