वाल्मिकि से लेकर निराला तक साहित्य को सम्मोहित करने वाला कमल आज उदास है

पद्म पुराण का नामाकरण ही कमल के नाम पर है. विष्णुजी के चतुर्भुज रूप में शंख, चक्र, गदा के साथ कमल भी शोभित है. श्री की देवी लक्ष्मी जी लाल कमल पर आसीन हैं तो ज्ञान की देवी सरस्वती श्वेत पद्मासना हैं. नाथ पंथ की साधना सहस्त्रदल कमल तक पहुंचकर ही पूर्ण होती है. हिंदुओं की भांति बौद्धों तथा जैनियों ने साहित्य में कमल को प्रमुख स्थान दिया है.

वाल्मिकि से लेकर निराला तक साहित्य को सम्मोहित करने वाला कमल आज उदास है
(सिनीवाली शर्मा/Sinivali Sharma) किसी प्रकृति प्रेमी को यदि आंखें बंद करके सरोवर की कल्पना करने के लिए कहा जाए तो उसे ताल में विहँसता हुआ कमल जरूर दिखाई देगा. यह कोकनद अथवा श्रीनिकेत (लाल कमल), पुन्नाग अथवा पुंडरीक (श्वेत कमल), नीलोत्पल अथवा नीलकंज (नीलकमल) कनक कमल अथवा शातकुंभ कमल (पीला कमल) हो सकता है. पुष्पप्रेमी इसको अरविंद, पद्मिनी, उत्पलिनी के अतिरिक्त अन्य कई नामों से भी पुकारते हैं. नाम कोई भी हो, इसकी सुंदरता सबको अपने आकर्षणपाश में बांधती है. चंद्रमा का दर्शन पाने को लालायित कुलवय (नीली कुई) दिनांत के बाद अपनी पंखुड़ी पसारता है तो श्वेत, पीत, रक्त कमल सूर्यदेव का स्पर्श पाते ही मुदवंत हो उठते हैं. साहित्य संसार में जब कमल फूल को शब्दों का साहचर्य मिला तो इसके सम्मोहन में पाठक भ्रमर की भांति बंध गए. यह ऐसा पुष्प है जिसका चयन साहित्य में नायक-नायिका दोनों की सुंदरता को द्विगुणित करने तथा उनका वर्णन करने के लिए किया जाता रहा है. यह पुष्प लिंग भेद से भी ऊपर है. पवन संग मंद-मंद विहँसते कमल दल को देखकर बरबस ही कितने ही ऐसे नयन, अधर, चरण स्मृति पटल पर मुस्कुराने लगते हैं जो साहित्य में कालजयी हैं. हमारे धर्म, संस्कृति, दर्शन तथा जनमानस में पुरातन काल से ही कमल का विशिष्ट स्थान रहा है. वाल्मीकि रामायण में आदिकवि वाल्मीकि राम-सीता के नेत्रों की उपमा के लिए कमल पुष्प का ही बारंबार चयन करते हैं. इसके अतिरिक्त जब सीता अशोक वाटिका में चिंताग्रस्त हैं तो शुभ शगुन इंगित करते हुए वाल्मीकि लिखते हैं, “उस समय सुंदर केशोंवाली सीता का बांकी बरौनियों से घिरा हुआ परम मनोहर काला, श्वेत और विशाल बायां नेत्र फड़कने लगा जैसे मछली के आघात से कमल हिलने लगा हो. (वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड 29वां सर्ग ,श्लोक 2). रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास श्रीराम के रूप का वर्णन कमल के माध्यम से कुछ इस प्रकार करते हैं- “नवकंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारूणं” उनके नयन खिले कमल की तरह हैं. मुंह, हाथ और पैर भी लाल रंग के कमल की तरह हैं. जब बात रामचरितमानस की हो रही है तो मानस प्रेमी को इस पंक्ति का अवश्य स्मरण आ रहा होगा- “निलांबुजश्यामल कोमलांगम” “नीलकमल के समान श्यामल, सुंदर, सांवले और मनोहर अंग वाले” श्रीराम हैं. जब प्रेम, प्रणय अन्य मनोभावों तथा शारीरिक, प्राकृतिक सौंदर्य के वर्णन के लिए कमल का संसर्ग कालिदास की लेखनी से हुआ तो शब्द शतदल की भांति प्रस्फुटित हो उठे. ‘कुमारसंभवम’ में कालिदास लिखते हैं कि पार्वती अपने हाथ में लिए हुए लीला कमल से भ्रमर को उड़ाती चल रही थीं. महाकवि कालिदास, पार्वती के वायु से विकम्पित नीलकमलों के समान बड़े-बड़े सुंदर नेत्रों से चंचल-चकित अवलोकन का अत्यंत भावपूर्ण वर्णन करते हैं. इसी प्रसिद्ध कृति में महाकवि लिखते हैं, “जब वह भूमि पर चरण रखती थीं तो अपने सुकुमार चरणों के ऊपर उठे हुए एवं स्वाभाविक रूप में लाल रंग के अंगूठे के नाम की किरणों से चारों ओर पहले के लगाए रंग को छिड़कती-सी चलती थी. और इस प्रकार उसका चरण स्थल में खिले हुए कमल की गमनशील शोभा को धारण करता था. (कुमारसंभवम, प्रथम सर्ग श्लोक 33) मेघदूत में यक्ष मेघ से कहता है- “हे जलद! अपने मित्र कैलाश पर पहुंचकर तुम विविध प्रकार की क्रीड़ाओं से अपना मनोरंजन करना. कभी सुनहले कमलों से भरे हुए मानसरोवर का जल पीना.” (श्लोक 66) मेघदूत में जिस अलकापुरी का वर्णन है उसकी बावलियां नित्य कमलों से प्रस्फुटित रहती हैं. वे आगे कहते हैं कि अलकापुरी की सुंदरियां ऋतु के अनुरूप भांति-भांति के पुष्पों से शृंगार करती हैं. शरद ऋतु में उनके हाथों में लीला कमल रहता है. कमल केवल सौंदर्य एवं प्रसन्नता के द्योतक के रूप में ही प्रयुक्त हुआ हो ऐसा भी नहीं है. कमल के पुष्परेणु (पराग) से सरोवर का जल पीत रंग में रंग कर सुगंधित हो जाता था. ऐसे सरोवर को पुष्पकरिणी अथवा पद्मादियुक्तसर भी कहा जाता था, जिसमें नायिका अपने प्रियतम अथवा सखियों संग जल क्रीड़ा का आनंद लेती थीं. परंतु उसी पुष्परेणु ने रति के प्रियतम को कष्ट भी पहुंचाया है. कामदेव के वियोग में विलाप करती हुई रति कहती हैं- “हे स्मर! एक बार तुमने मेरे सामने भूल से किसी स्त्री का नाम ले लिया था. जिस पर मैंने प्रणय कोप करके तुम्हें अपनी मेखला में बांध दिया था और अपने कर्णाभूषण कमल से तुम्हारे मुख में ताड़न किया था. जिससे उस कमल का पराग तुम्हारी आंखों में पड़ गया था और तुम्हारी आंखें दुखने लगी थीं, कहीं उसी प्रसंग को याद करके तो तुम नहीं रूठे हुए हो.” (कुमारसंभवम ,चतुर्थ सर्ग, श्लोक 7) केवल कमल पुष्प ही आभूषण के रूप में प्रयुक्त नहीं हुए बल्कि इसके मृणाल (कमलनाल) का कंगन भी शकुन्तला के साथ-साथ अन्य कई नायिकाओं ने धारण किया है. कमलपत्र प्रेमपत्र में भी परिवर्तित हुआ है तो दुष्यंत से वियोग के ताप को शीतलता प्रदान करने के लिए शकुन्तला को उसकी सखी कमल के पत्तों से पंखा झलती है. मेघदूत में हथिनी बड़े प्रेम से कमल के पुष्परेणु से सुगंधित जल को अपनी सूंड से निकाल-निकालकर अपने प्रियतम गजराज को पिलाती है और चक्रवाक पक्षी आधी कुतरी हुई मृणाल को अपनी प्रिया चक्रवाकी को उपहार देता है. प्राचीन काल में स्वर्ण एवं मोती- माणिक्य के आभूषणों में कमल अंकित होता था. रामायणकालीन संस्कृति में कर्णवेष्ट एक प्रकार का चौकोर कुंडल होता था जिस पर कमल अंकित रहता था. आभूषणों में पुष्प आभूषण का अलग ही स्थान था. स्त्रियां केशपाश में कुन्द का पुष्प गूंथती थीं तो कभी कुरबक के फूलों से वेणी सज्जा करती थीं. कानों में कर्णिकार और शिरीष के फूल शोभित होते थे. कदम्ब के पुष्प भी उनकी शोभा वृद्धि करते थे. लोध्र पुष्प के पराग से वे अपने मुख की शोभा बढ़ाती थीं. कमल के पुष्प तथा कमलनाल भी आभूषण बनते थे. जलक्रीड़ा के लिए उन्हें कमल प्रिय था. लीला कमलों को अपने हाथों में लेकर क्रीड़ा तथा विनोद करती थीं. स्री-पुरुष विशेष अवसरों पर घुटनों तक लटकने वाली माला धारण करते थे. केवल संस्कृत साहित्य में कमल को विशिष्ट स्थान मिला हो, ऐसा नहीं है. हिंदी साहित्य की बात करें तो कामायनी में जयशंकर प्रसाद श्रद्धा सर्ग में लिखते हैं- “किए मुख नीचा कमल समान प्रथम कवि का ज्यों सुंदर छंद,” यहां सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ‘शक्ति पूजा’ का स्मरण होना स्वाभाविक है जब श्रीराम देवी दुर्गा की पूजा में एक सौ आठ कमल में एक कम होने पर अपने नेत्र नीलकमल को अर्पित करने के लिए तत्पर हो जाते हैं तब देवी दुर्गा प्रसन्न होकर दर्शन देती हैं. जायसी के ‘पद्मावत’ को कैसे भूला जा सकता है जब वह पद्मावती को कमल और सखियों को अन्य फूलों के समान कहते हैं. अब यदि आपका मन बचपन को याद करने लगा हो तो आप यह प्रसिद्ध कविता स्वयं ही गुनगुना उठेंगे जहां कवि रात की तंद्रा भगाने तथा जीवन में आगे बढ़ने का संदेश दे रहे हैं- ‘उठो लाल अब आँखें खोलो, पानी लायी हूँ मुंह धो लो. बीती रात कमल दल फूले’ कवि संदेश दे रहे हैं कि अंधकार जा चुका है, तुम भी कमल के दल की भांति खिलो, महको और अपना जीवन सार्थक करो. अथर्ववेद, ऋग्वेद के साथ अन्य पुराणों, उपनिषदों में भी कमल पुष्प का विशिष्ट स्थान है जहां कमल को सौंदर्य, कोमलता, पवित्रता का प्रतिमान माना गया है. भागवत पुराण के अनुसार विष्णुजी की नाभि से कमल की उत्पत्ति हुई और उस कमल से ब्रह्माजी की. ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की. विष्णु पुराण में लक्ष्मीजी के लिए श्लोक में कमल का कई बार प्रयोग हुआ है, “कमल आसन वाली, कमल जैसे हाथों वाली, कमल के पत्तों जैसी आंखों वाली, कमल जैसे सुंदर मुख वाली और कमल की नाभि वाले भगवान विष्णु की प्रिय देवी मैं आपकी वंदना करता हूं.” श्रीसुक्त के प्रारंभ में ही कहा गया है – “पद्मेस्थितां पद्मवर्णा तामिहोप द्वये श्रियम्” अर्थात कमल के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा हैं, उन लक्ष्मी देवी का मैं यहां आवाह्न करता हूं. दुर्गा सप्तशती में कवच का पाठ करते हुए इस श्लोक में आप कमल को पाएंगे “लक्ष्मी पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया।।” अर्थात भगवान विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मी देवी कमल के आसन पर विराजमान हैं और हाथों में कमल धारण किए हुए हैं. लक्ष्मी सूक्त में “तां पद्मिनीमीं शरणं प्रपद्यंते।।” (श्लोक 5) अर्थात कमलवत आकार वाली लक्ष्मी की शरणं में जाता हूं. “पद्मानने पद्मउरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे। तन्मे भजसिं पद्माक्षि में सौख्यं लभाम्यहम।।” (श्लोक 2) हे लक्ष्मी देवी! आपका श्रीमुख ,ऊरु भाग, नेत्र आदि कमल के समान हैं. आपकी उत्पत्ति कमल से हुई है. हे कमलनयनी! मैं आपका स्मरण करता हूं, आप मुझ पर कृपा करें. कमल पुरातन युग से धर्म, संस्कृति, दर्शन और साहित्य के माध्यम से अनवरत यात्रा कर रहा है. परंतु वर्तमान युग में कमल उदास है क्योंकि आज लोगों के पास इतना समय नहीं है कि वे कुछ देर ठहर कर किसी कमल को निहार लें. शायद कभी समय और मन, दोनों कमल के आकर्षणपाश में बंधना भी चाहे तो आसपास कोई ताल-तलैया, झील नहीं कि कमल स्वेच्छा से खिल सके. जहां नदी सूख रही हो, कमल खिलने वाले जगहों पर कंक्रीट के जंगल खड़े हो गए हों, अपनी बगिया में कांटों भरे और विदेशी पौधे दिखने लगें हों तो कमल को कौन याद करे. कमल के गुणों को देखते हुए हमारे जीवन में इसका स्थान होना चाहिए, उससे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए. कमल को पंकज भी कहते हैं जो कीचड़ में जन्म लेता है परंतु वह कीचड़ को आत्मसात नहीं करता. निर्लिप्त भाव से मुस्कुराता रहता है. उसके पास ऐसा रूप, रंग, सुंगध है जिस पर मनुष्य, देवता सभी मोहित रहे हैं. उसके पास अहंकार नहीं है, उसे कुछ पाने की लालसा नहीं. उसका सब कुछ इस जग के लिए है. कमल के इस दैवीय गुण एवं महान भाव को आज हमें आत्मसात करना चाहिए. Tags: Hindi Literature, Hindi WriterFIRST PUBLISHED : August 3, 2024, 16:43 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
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