मेरी मां से मिलने के बाद नरेंद्र मोदी उन्हें भूल नहीं गये. जब भी उनसे मुलाकात हुई, सबसे पहले मां की सेहत के बारे में विस्तार से पूछा. वो भी सिर्फ औपचारिकता के नाते नहीं, बल्कि हृदय की गहराइयों से...
अम्मा नहीं रहीं। बीस तारीख की रात 11 बजे के करीब उनका निधन हो गया। पिछले कुछ वर्षों से बीमार चल रही थीं, स्मृति दोष, डिमेंशिया की शिकार थीं। ये उस मजबूत इच्छा शक्ति की महिला के लिए अजीब सा था, जिसकी सक्रियता का स्तर सामान्य से ज्यादा था, शरीर से लेकर दिमागी स्तर तक। डिमेंशिया की वजह से मेरी मां के आखिरी कुछ वर्ष बिस्तर पर ही बीते, शरीर से पूरी तरह स्वस्थ होने के बावजूद। डिमेंशिया की वजह से कुछ भी याद नहीं रहा था, खाना तक भूल गई थीं वो।
मां अपने गांव से पूरी तरह जुड़ी थीं, गांव यानी ससुराल नहीं, उनके मायके का गांव। बिहार के गोपालगंज जिले का हलुआर पीपरा गांव। बिहार में पीपरा नाम से बहुत सारे कस्बे और गांव हैं, इसलिए इस पीपरा की विशेष पहचान के लिए इसे हलुआर पीपरा के तौर पर जाना गया। हलुआर बगल का गांव है, इसलिए हलुआर पीपरा।
मां की मृत्यु दिल्ली से सटे गाजियाबाद के इंदिरापुरम में हुई। इंदिरापुरम की एक सोसायटी में हम दोनों भाई रहते हैं, बड़े भाई बैंकिंग सेक्टर में हैं। मृत्यु के वक्त मां भैया वाले फ्लैट पर थीं। मां की मौत के बाद तय हुआ कि अंतिम संस्कार उनके पैतृक गांव पीपरा में ही किया जाए। आखिर अम्मा अपने पूरे जीवन में सबसे अधिक समय यही रहीं। चाहे बचपन में स्कूली छात्रा के तौर पर या फिर शिक्षिका के तौर पर। 1998 में वो सरकारी सेवा से रिटायर हो गई थीं, तब तक भैया को स्टेट बैंक की नौकरी करते हुए दस साल हो गये थे और मुझे पत्रकारिता में तीन साल.
पीपरा से जुड़ी थी मां की पहचान
चाहतीं तो हम दोनों के साथ महानगरों में तमाम सुख- सुविधाओं के बीच रह सकती थीं, हम लोग भी यही चाहते थे, लेकिन मां कभी इसके लिए तैयार नहीं हुईं। चाहे भैया देश के अलग- अलग हिस्सों में रहे या मैं अहमदाबाद या दिल्ली में, अम्मा कभी आईं भी तो एक- दो हफ्ते के लिए। इससे अधिक कभी नहीं। वो पीपरा वापस लौटने के लिए हमेशा बेचैन रहतीं।
पीपरा से उनकी पहचान जुड़ी थी, वहां उनकी वजह से हम जाने जाते थे, हमारी वजह से वो नहीं। राजरानी देवी के लड़कों के तौर पर हमारी पहचान थी, उनकी पहचान हमारी मां होने की वजह से नहीं। यहां पर उन्हें अकेले रहना मंजूर था, हम लोगों के साथ नहीं। गांव उन्होंने तभी छोड़ा, जब डिमेंशिया की वजह से उन्हें कुछ भी याद रखना मुश्किल हो गया, भैया उन्हें अपने पास लेकर गये। मां को आखिरी दिनों में पता भी नहीं था कि वो कहां हैं, अगर महसूस होता तो कहतीं कि गांव लेकर चलो तत्काल
यही वजह रही कि हम लोगों ने अंतिम संस्कार पीपरा में ही करना तय किया। अम्मा का जिस समय देहांत हुआ, मैं कारगिल में पत्नी और दोनों बच्चों के साथ था। पूरी रात सफर तय करके, जोजिला के दुरुह दर्रे को क्रॉस करके, 21 जून की सुबह श्रीनगर पहुंचा, दिन में ग्यारह बजे की फ्लाइट थी।
उस सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी श्रीनगर में थे। विश्व योग दिवस का कार्यक्रम था, कश्मीर घाटी के हजारों लोग उनके साथ एसकेआईसीसी के हॉल में योग कर रहे थे, पूरे उत्साह के साथ। उस दिन सुबह में योग डल झील के किनारे एसकेआईसीसी के लॉन में होना था, लेकिन प्रकृति को कुछ और मंजूर था, जमकर बारिश होने लगी। ऐसे में योग का कार्यक्रम हॉल के अंदर हुआ।
मां की मौत रात में हुई थी और अगली सुबह अंतरराष्ट्रीय योग दिवस का कार्यक्रम, उसमें पीएम मोदी की मौजूदगी। मां के देहांत के कारण मन व्यथित था, फिर ध्यान गया कि मां को सर्वाधिक खुशी कब मिली थी। इसका भी कनेक्शन अंतरराष्ट्रीय योग दिवस और मोदी के साथ था।
मां की खुशी, पीएम मोदी और अंतरराष्ट्रीय योग दिवस का खास रिश्ता
आखिर मेरी मां की खुशी, पीएम मोदी और अंतरराष्ट्रीय योग दिवस का क्या आपसी रिश्ता हो सकता है? ये कहानी मेरे परिवार के लोगों के अलावा बहुत कम ही लोगों को पता है।
ये किस्सा मैं सार्वजनिक भी नहीं करने वाला था। आज की दुनिया, जहां संबंधों के प्रदर्शन के सहारे, खासतौर पर बड़े और रसूखदार लोगों के साथ करीबी संबंध को अपना कद उंचा करने के लिए पूरी तरह भुनाती है, मैं संकोची रहा हूं। बड़े लोगों के साथ संबंधों का प्रदर्शन मेरे स्वभाव का हिस्सा नहीं है। मेरा मानना है कि रिश्तों की खूबसूरती और गरिमा तब ज्यादा है, जब उसके पीछे कोई स्वार्थ नहीं हो, कोई उसका ढोल न पीटता हो, अपना रसूख बताने के लिए।
लेकिन दो वजहों से मैंने मां की मौत के बाद इस किस्से को सार्वजनिक करना तय किया। कारगिल से श्रीनगर और श्रीनगर से दिल्ली होते हुए मैं पटना हवाई मार्ग से 21 जून की शाम पहुंचा था। पटना से करीब सवा सौ किलोमीटर दूर गांव के घर, जिसे अम्मा ने ही अपनी गाढ़ी कमाई से बनवाया था, पहुंचते- पहुंचते रात के सवा नौ बज गये थे।
अम्मा का पार्थिव शरीर तो अभी आया भी नहीं था, भैया शव वाहिनी के साथ रास्ते में ही थे। पड़ोसी जानकारी लेने आये थे, कब तक अम्मा का पार्थिव शरीर आ रहा है। वो पूरे गांव की बुआ भी थीं, रिश्ते में उंचा था उनका परिवार। ऐसे में वो चार- चार पीढीयों की बुआ थीं। गांव के ज्यादातर परिवारों में पिता से लेकर परपोते तक की। बुआ क्यों, इसलिए कि वो शादी के बाद भी ससुराल की जगह मायके में ही रहीं ज्यादातर समय।
शिक्षा को समर्पित पूरा जीवन
मायके में रहने का कारण भी खास। 1950 के दशक में कम ही लड़कियां स्कूलों में पढ़ने जाती थीं, गांवों में तो गिनी- चुनीं। अम्मा की सबसे बड़ी बहन अपने स्कूल की पहली छात्रा थीं, लेकिन पांचवीं क्लास तक जाते- जाते उनका देहांत हो गया। गांव के लोगों ने नाना, यानी अम्मा के पिता को कह दिया कि वो बेटी को पढ़ाने गये, इसलिए मर गई।
इस वजह से उनके पीछे की दो बहनें पढ़ नहीं पाईं, स्कूल नहीं गईं। लेकिन वो दोनों बहनें जब थोड़ी बड़ी हुईं, तो मेरी मां को, यानी अपने से छोटी बहन को तमाम विरोध के बावजूद स्कूल भेजा। मां भी जिद्दी, पड़ोसियों के व्यंग्य की चिंता नहीं की, जमकर पढ़ाई की।
1938 में जन्मी मां ने 1958 में प्राथमिक स्कूल की शिक्षिका के तौर पर नौकरी शुरु की। उस समय गिनी- चुनी महिला शिक्षक होती थीं, अपने ब्लॉक की मात्र तीसरी महिला शिक्षक थीं मेरी मां। अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्या हालात थे उस समय महिलाओं के लिए।
महिलाओं को प्रोत्साहित करने में राजरानी देवी का खास योगदान
न तो उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था, न वोट डालने के लिए। शायद यही वजह थी कि मां जब स्कूल शिक्षिका के तौर पर जम गईं, तो गांव की महिलाओं को जोर लगाकार वोट करवाने ले जाती थीं, डेमोक्रेसी के सबसे बड़े फेस्टिवल से भला महिलाओं का वंचित रहना मां को कैसे मंजूर हो सकता था। शादी हुई जून 1960 में, नौकरी करते हुए दो साल हो गये थे। उस समय डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स रहे बड़े बाबूजी, सत्यनारायण सिंह ने अपने छोटे भाई की बहू के तौर पर पसंद किया था मां को। शादी हुई, लेकिन रिश्ते ज्यादा मधुर नहीं, लंबे चल नहीं पाए। पिता शिक्षा को लेकर ज्यादा गंभीर नहीं थे, सास उस समय की परंपरा के मुताबिक, बहू को सिर्फ पांव दबाने और चूल्हा- चौकी संभालने का उपकरण मानती थीं।
स्वाभिमानी मां को ये मंजूर नहीं था, वो अपने सशक्तिकरण के साधन शिक्षा और सरकारी नौकरी को छोड़ नहीं सकती थीं। सास को ये मंजूर नहीं था। गुस्से में मां की सास ने अपने पांव दबाने के लिए अपने बेटे की दूसरी शादी कर दी। उस जमाने में दूसरी शादी होना असामान्य नहीं था, भले ही हिंदू कोड बिल आ गया था, लेकिन बिना तलाक लिये लोग दूसरी शादी कर लेते थे आराम से।
मां ने पति की दूसरी शादी के साथ ही ससुराल से लगभग किनारा कर लिया, कभी कभार ही गईं। अपने दो बच्चों की परवरिश और शिक्षिका के अपने धर्म को ही जीवन का मिशन बना लिया। सख्त शिक्षिका थीं वो, न सिर्फ अपने बच्चों की पढ़ाई, बल्कि स्कूल के सभी बच्चों की पढ़ाई को लेकर गंभीर थीं। उनके चेले आज भी उनको आदर्श शिक्षिका के तौर पर याद करते हैं।
अम्मा जब पढ़ा रही थीं या फिर चार दशक की सेवा के बाद रिटायर हो गईं, आसपास के गांव, ब्लॉक या जिले के परिचित लोग उन्हें देवी जी कहकर ही बुलाते थे। जिस जमाने में शिक्षिकाएं गिनी- चुनी होती थीं, उस समय शिक्षकों को तो मास्टर साहब कहा जाता था, लेकिन शिक्षिकाओं के लिए देवी जी संबोधन के तौर पर इस्तेमाल होता था.
पीएम मोदी में मानवीय रिश्ते निभाने का महागुण!
खैर, 21 जून, 2024 की शाम आसपास के लोगों से अम्मा को लेकर बातचीत करते हुए पंद्रह मिनट भी नहीं हुए थे कि मोबाइल की घंटी बजी। सुबह से आ रहे ज्यादातर कॉल्स का जवाब नहीं दे पाया था, अम्मा के जाने के कारण खालीपन की जो भावना थी, उसमें बात करने का मन भी नहीं हो रहा था। लेकिन मोबाइल की स्क्रीन देखी, तो नंबर की जगह, नो कॉलर आईडी लिखा हुआ था।
मुझे ये समझने में एक सेकेंड भी नहीं लगा कि आखिर ये फोन किसका हो सकता है। नो कॉलर आईडी की सुविधा रखने वाले लोग ढेर सारे हैं, बहुतों के लिए ये स्टेटस सिंबल भी है, सुरक्षा और निजता की जगह। लेकिन मुझे साफ तौर पर लगा कि ये कॉल रात के नौ बजकर तैंतीस मिनट पर, एक ही व्यक्ति की हो सकती है, और वो होंगे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी।
साथ में कुछ लोग बैठे थे, इसलिए कॉल रिसीव करने के लिए सड़क पर चला गया, अकेले में बातचीत करने के लिए। फोन रिसिव किया, ऑपरेटर की आवाज आई, ब्रजेश कुमार सिंह जी बोल रहे हैं, हां कहते ही सामने से कहा गया कि प्रधानमंत्री जी बातचीत करेंगे और अगले ही सेकेंड नरेंद्रभाई लाइन पर। जी हां, देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी।
पिछले पचीस वर्षों में, जब से मेरा उनसे परिचय है, उनके लिए मेरा हमेशा एक ही संबोधन रहा है, नरेंद्रभाई। गुजराती संस्कृति में पुरुष के नाम के साथ भाई और महिलाओं के नाम के साथ बेन लगाने की परंपरा रही है। नरेंद्रभाई को संघ से लेकर बीजेपी में पहले से नरेंद्रभाई ही कहा जाता था, लेकिन बाद के दिनों में जब उनका राजनीतिक कद बढ़ता चला गया, पार्टी और समाज जीवन के ज्यादातर लोग उन्हें साहब या मोदी जी के तौर पर संबोधित करने लगे.
नरेंद्र मोदी सीएम से पीएम बने, लेकिन व्यवहार में कोई फर्क नहीं
नरेंद्रभाई पार्टी के संगठन महामंत्री से लेकर पौने तेरह साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे और अब लगातार तीन चुनाव जीतकर दस वर्षों से भी अधिक समय से देश के प्रधानमंत्री, मेंने उनके व्यवहार में कभी कोई फर्क नहीं महसूस किया। पहले भी मैं उन्हें नरेंद्रभाई कहता था, आज भी कहता हूं, कभी ऐसा अहसास नहीं हुआ कि अब नरेंद्रभाई के तौर पर संबोधित करने में उन्हें कोई परेशानी है या उनको ये अच्छा नहीं लगता। साल दर साल उनके व्यवहार में मैंने और नरमी ही देखी, संवेदनशीलता बढ़ती देखी। संबंधों को कैसे निभाया जाए, इसका श्रेष्ठ उदाहरण स्थापित करते देखा।
सवाल ये उठता है कि आखिर क्यों मुझे ये भरोसा था कि मां की मृत्यु की अगली शाम नो कॉलर आईडी से आने वाला फोन उन्हीं का होगा। इसके पीछे भी मां से जुड़ा हुआ ही किस्सा है। छह साल पुराना है। छह साल पहले उन्होंने मेरी मां को जिस तरह का सम्मान दिया था, वो अतुलनीय था, समाज जीवन के बाकी लोगों के लिए अनुकरणीय भी।
अगर कालखंड के हिसाब से बात करें तो ये किस्सा जून 2018 का है। उस साल विश्व योग दिवस का समारोह देहरादून में आयोजित था। विश्व योग दिवस से मैं भी काफी जुड़ाव महसूस करता हूं, कारण ये कि बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पहली अमेरिकी यात्रा में संयुक्त राष्ट्र महासभा में इसके लिए जब प्रस्ताव रखा था, तो मैं खुद मीडिया गैलरी में बैठा हुआ था। उसके बाद अगले कुछ समय में ये खबर भी चलाई थी कि कैसे विश्व के सर्वाधिक देशों ने रिकॉर्ड स्पीड के साथ इसके लिए सहमति दी है। 21 जून अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के तौर पर भारत ही नहीं, दुनिया के तमाम देशों और शहरों में तेजी से मनाया जाने लगा, ये भी रिपोर्ट करने का मौका मिला।
पूरे परिवार के लिए 2018 का अंतरराष्ट्रीय योग दिवस क्यों था इतना अहम
21 जून 2018 की शाम देहरादून में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस का मुख्य कार्यक्रम था। उसमें प्रधानमंत्री मोदी शिरकत करने वाले थे। उसी शाम मेरे ही आग्रह को सम्मान देते हुए, जिस समूह के लिए काम कर रहा था, उसी समूह से जुड़े न्यूयॉर्क स्थित एक वेलनैस सेंटर का वो वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये उदघाटन करने और प्रासंगिक संबोधन करने के लिए तैयार हुए थे।
शाम नौ बजे तक ये कार्यक्रम खत्म हुआ था और इसके आधे घंटे बाद ही प्रधानमंत्री कार्यालय से उस अधिकारी का फोन आया, जो मोदी के साथ सीएम कार्यकाल से लेकर पीएम कार्यकाल तक लगातार साथ रहे हैं, रिटायरमेंट के बाद अभी तक सेवा विस्तार के साथ काम कर रहे हैं, मोदी जी के कार्यक्रम और उनके अप्वाइंटमेंट्स को तय करने की जिम्मेदारी है उनकी, कब किससे मुलाकात करेंगे, ये भी तय करते हैं, पीएम मोदी से निर्देश लेने के बाद। स्वभाव से बहुत ही प्राइवेट किस्म के आदमी हैं, इसलिए मैं भी नाम जाहिर नहीं कर रहा।
मुझे लगा कि कार्यक्रम अभी- अभी खत्म हुआ है, कही कोई गड़बड़ तो नहीं हुई है, जो बताने के लिए ये अधिकारी फोन कर रहे हैं। इसलिए कॉल लेते ही सबसे पहले ये पूछा कि कही कोई दिक्कत तो नहीं थी कार्यक्रम में, सब ठीक था न। लेकिन वो इस पर बात करने की जगह सीधे पूछ रहे हैं, आपकी माताजी कल ही जा रही हैं न, आपके बड़े भाई के पास. पीएम नरेंद्र मोदी ने जब खास तौर पर नेटवर्क 18 के ग्रुप एडिटर-कन्वर्जेंस ब्रजेश कुमार सिंह की मां राजरानी देवी को मिलने के लिए आमंत्रित किया.
कल यानी बाईस जून, 2018. ये अधिकारी पूछ रहे हैं और मेरे दिमाग में तत्काल वो बातचीत कौंध गई, जो विश्व योग दिवस की शाम वाले कार्यक्रम को तय करने के संबंध में नरेंद्रभाई से हुई थी, जून के पहले हफ्ते में। उस दिन मन ज्यादा ठीक नहीं था, पहली बार अहसास हुआ था कि मां के साथ सबकुछ ठीक नहीं हैं, वो फोन तक डायल करना भूल जाती हैं, रास्ता भी भूल जाती हैं, कई बार लोगों को पहचानने में दिक्कत हो जा रही है उन्हें, नहाना, खाना- पीना भी याद नहीं रहता उनको।
ये सब कुछ उस महिला के साथ हो रहा था, जिसने रुढ़िवादी समाज की चुनौतियों के बीच रास्ता बनाते हुए खुद के बूते पर अपना मुकाम बनाया था, अपने बच्चों की अच्छी परवरिश की थी, खुद सभी किस्म के कष्ट उठाते हुए। जब उनके दोनों बच्चे अपने- अपने व्यवसाय में पूरी तरह जम चुके थे, मां के पास मौका था भरपूर सुख हासिल करने का, उसी समय याददाश्त शक्ति धोखा दे रही थी, डिमेंशिया की बीमारी अपना असर दिखा रही थी।
नरेंद्रभाई फोन पर थे, लेकिन मेरे मन को भांप लिया, मानो सामने बैठकर चेहरा पढ़ रहे हों, पूछा ब्रजेश बाबू कुछ परेशान लग रहे हो, क्या मामला है। मैने स्वाभाविक तौर पर बता दिया, नरेंद्रभाई अंदर से परेशान हूं, माताजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। उन्होंने विस्तार से माताजी के सेहत बारे में जानकारी ली, बचपन से लेकर मौजूदा हाल तक। फिर कहा, माताजी को आप कभी मेरे पास लेकर आओ, शायद उनको अच्छा लगे।
मेरे लिए ये किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं था। खास तौर पर अपनी मां के बारे में सोचकर। मिडिल स्कूल की शिक्षिका के तौर पर उनकी सरकारी नौकरी के दौरान डीएम की कौन कहे, बीडीओ भी जहां बड़ी हस्ती रहा हो, उस शिक्षिका को रिटायरमेंट के सोलह साल बाद, देश का पीएम मिलने का आमंत्रण दे रहा हो, इससे बड़ी बात उस शिक्षिका और उसके पुत्र के लिए क्या हो सकती है। अपनी मां को मैं भी इससे बड़ी खुशी क्या दे सकता था। मां के बारे में तो ये भी पता नहीं था उस वक्त कि कितने दिनों तक वो चीजों, घटनाओं को याद रख पाएंगी। तेजी से उनकी याददाश्त जा रही थी।
तुरंत भावनाओं पर काबू पाते हुए मैने कहा कि जब भी आपको फुर्सत हो, लेकर आ जाउंगा। नरेंद्रभाई ने आगे पूछा, मां आपके पास कब तक हैं, मैंने बताया, 22 जून की शाम तक। उसके बाद उनको लेकर मैं भैया के पास पुणे चला जाउंगा। उन्होंने कहा, अच्छा देखते हैं, समय बताता हूं। बात खत्म हो गई।
पीएम मोदी को पिछले पचीस वर्ष में मैं जितना समझ पाया हूं, उससे ये स्थापित है कि काम की बात हो, सार्थक हो, तो उनके पास समय की कमी नहीं है, लेकिन फालतू की बातों के लिए एक सेकेंड भी नहीं.
पीएम नरेंद्र मोदी में गजब का टाइम मैनेजमेंट
टाइम मैनेजमेंट और समय की महत्ता क्या होती है, कोई उनसे सीखे। जहां भी मुलाकात या फोन पर बातचीत के दौरान काम की बात खत्म हो जाए, उसके बाद एक सेकेंड भी अतिरिक्त नहीं होता उनके पास। जो लोग उनको ढंग से जानते हैं, वो भी इस बात का ध्यान रखते हैं। आप तभी उनसे मिलन या बात करने का आग्रह रखें, जब कोई सार्थक या ठोस बात हो, सिर्फ इस अहसास के लिए नहीं कि मौका हो तो मिल लेता हूं या बात लंबी खीच लेता हूं।
अधिकारी की बात पर ध्यान गया, उनका ये कहना कि आपकी मां कल ही जा रही हैं न। जाहिर है ये बात सिर्फ मेरी और नरेंद्रभाई के बीच थी, और किसी से इस पर कोई चर्चा नहीं हुई थी। देश- विदेश, सरकार और पार्टी की तमाम व्यस्तताओं के बीच प्रधानमंत्री की सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभालने वाले नरेंद्र मोदी को एक रिटायर्ड शिक्षिका से मिलना है, वो भी एक तय समय सीमा के अंदर, वो भी सिर्फ इसलिए कि डिमेंशिया की बीमारी से जूझने की शुरुआत करने वाली उस महिला को अच्छा लगे, ये सिर्फ नरेंद्र मोदी ही कर सकते हैं।
मुझे याद आया, मोदी जब नये- नये प्रधानमंत्री बने थे, संसद के सत्र के दौरान उनसे मिलने के लिए सैकड़ों लोग आते थे, एक बार मैंने उनको कहा था कि आप कैसे इतना समय निकाल लेते हैं। नरेंद्रभाई ने तपाक से कहा था, मेरे लिए आम आदमी के लिए हमेशा समय है, पहले के ज्यादातर प्रधानमंत्रियों के पास रसूखदार लोगों के लिए ही ज्यादातर समय होता था। प्रधानमंत्री को प्रधान सेवक के तौर पर परिभाषित करने वाला व्यक्ति ही ये कर सकता था।
मैंने उस अधिकारी के सवाल का जवाब हां में दिया, 22 जून की शाम ही मां पुणे जा रहीं हैं, मैं ही उनको भैया के पास छोड़ने जाने वाला था। अधिकारी ने कहा कि साहब ने सुबह दस बजे मिलने के लिए बुलाया है, आप लोगों को सुविधा तो है ना। सोचिए भला, देश का पधानमंत्री मिलने के लिए बुला रहा हो, और सवाल हमारी सहूलियत का पूछा जा रहा है। मैंने तत्काल कहा, जी हां, हम आ जाएंगे।
थोड़ी देर बाद दूसरा फोन आया, अपनी पत्नी और बच्चों को भी लेकर आइएगा। नरेंद्रभाई ने ही कहा होगा, उन्हें ये पता है कि अगर किसी बुजुर्ग महिला को बुला रहे हों, जिसे डिमेंशिया की शिकायत है, तो परिवार की किसी और महिला का साथ होना जरूरी है और अगर न्यूक्लियर फैमिली हो तो फिर बच्चों को छोड़कर कहां आएंगे, इसी सोच के तहत पत्नी और बच्चों को भी निमंत्रण। मेरी पत्नी और बच्चों के लिए इससे बड़ी खुशी का मौका क्या हो सकता था।
थोड़ी देर बाद, तीसरी दफा भी उसी अधिकारी का फोन आया, साहब ने कहा है, नाश्ता यहीं करना है, इसलिए आधे घंटे पहले आ जाइएगा, नाश्ता फिनिश करेंगे, तब तक प्रधानमंत्री जी से मिलने का समय हो जाएगा। हमने इसके लिए भी सहमति दे दी, तभी अधिकारी ने ये भी पूछ लिया कि अगह विशेष सुविधा के तहत व्हीलचेयर की जरूरत हो तो बता दीजीएगा, उसकी भी व्यवस्था कर दी जाएगी माताजी के लिए। मैंने कहा इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी, उस वक्त तक माता चलना नहीं भूली थीं।
ये सारी बातचीत जब तक हुई, तब तक मैं ऑफिस में ही बैठा था। घर लौटकर मां, पत्नी और बच्चों को जानकारी दी, जाहिर है सबकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मां, जो सामान्य तौर पर लोगों का नाम भूलने लगी थीं, मोदीजी से जैसे ही उनकी कल मुलाकात होने की बात की, उनकी आंखें चमक गईं। मुझे लगता है कि पूरी रात ढंग से सो नहीं पाईं वो।
अगले दिन सुबह जब चलने की बारी आई, तो मां घबराई हुई थीं, मैं कैसे मिलूंगी, क्या बात करुंगी, खड़े होकर बात करुंगी या बैठकर, या फिर ये कि मुझे क्या संबोधन करना चाहिए। एक रिटायर्ड मिडल स्कूल शिक्षिका की परेशानी और घबराहट मुझे समझ में आ रही थी। अपने पूरे कैरियर के दौरान जिले के डीएम से ही गिने- चुने मौकों पर सीधा संवाद करने वाली मां देश के पीएम से मिलने और बातचीत करने के ख्याल से ही घबराई हुई थीं।
मैं नियत समय पर अपनी गाड़ी चलाते हुए प्रधानमंत्री आवास पहुंचा। पहली बार प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लेने के सवा दो साल के अंदर ही सितंबर 2016 में मोदी ने प्रधानमंत्री के आधिकारिक आवास 7, रेसकोर्स रोड का नाम बदलकर 7, लोककल्याण मार्ग कर दिया था। बाहरी गेट पर सूचना थी, अंदर रिसेप्शन पर भी। पूरे सम्मान के साथ मां, मुझे, पत्नी और दो बच्चों को दो गाड़ियों में एसपीजी के जवानों ने बिठाया। गाड़ी चल पड़ी। उससे पहले प्रधानमंत्री आवास जाना हुआ था। इसलिए नक्शा भी दिमाग में था ही।
वैसे तो सात लोककल्याण मार्ग, प्रधानमंत्री के आवास के तौर पर पहचान रखता है, लेकिन असल में ये प्रधानमंत्री का आवासीय कार्यालय है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद, राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए रेसकोर्स रोड के कुछ बंगलों को पीएम के इस्तेमाल के लिए इयरमार्क किया गया था। एक से लेकर ग्यारह तक, लेकिन सिर्फ ऑड नंबर वाले बंगले को। 1, 3, 5, 7, 9 और 11. एक पर बना हुआ बंगला गिराकर यहां प्रधानमंत्री के लिए हैलीपैड बना दिया गया उसी दौर में। तीन और पांच में से कोई एक बंगला अलग- अलग प्रधानमंत्रियों का आवास रहा, सात नंबर का बंगला आधिकारिक आवासीय कार्यालय, नौ नंबर का बंगला एसपीजी कार्यालय के तौर पर और ग्यारह नंबर का बंगला बड़ी बैठकों या फिर पीएमओ से जुड़े दस्तावेजों और कुछ अधिकारियों के बैठने की जगह के तौर पर।
जब हमारी कार इन बंगलों के बीच से बढ़ रही थी, तो देखा कि कार सात, लोक कल्याण मार्ग पर नहीं रुकी, बल्कि ये थोड़ा और आगे बढ़ गई। मैंने मन ही मन सोचा, ये क्या। तब तक निगाह सामने दौड़ाई, पता चला कि पांच नंबर के बंगलो पर दोनों कारें रुक गई हैं।
प्रधानमंत्री मोदी इसे गेस्ट हाउस के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, तीन नंबर बंगले में खुद रहते हैं। हालांकि पहले संन्यास की कोशिश और फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारक बनने के बाद उनका अपने परिवार के लोगों से कोई खास संबंध रहा नहीं, ऐसे में इस गेस्ट हाउस का इस्तेमाल भी शायद ही ज्यादा हो पाता हो।
नरेंद्र मोदी की मां भी एक ही बार यहां आई थीं, अपने सबसे प्रिय बेटे से मिलने के लिए। व्हील चेयर पर उन्हें बिठाये हुए पीएम मोदी टहला रहे थे, ये तस्वीरें मोदी के भावनात्मक पक्ष की झलक देश और दुनिया को दिखा गई.
जब पीएम नरेंद्र मोदी का मेहमान बना मेरा पूरा परिवार
22 जून की उस सुबह मेरी मां और उनके साथ मेरा परिवार पीएम मोदी का मेहमान था। पांच नंबर बंगले के बाहर उनके निजी सहायक खड़े थे, गर्मजोशी से अंदर लेकर गये। बैठते ही निगाह गई, टेबल पर कैडबरी के चॉकलेट्स रखे हुए थे। बच्चे आ रहे हैं, तो उनके लिए चॉकलेट होना चाहिए, इतनी गहराई तक सोचकर अपने लोगों को जरूरी व्यवस्था करने का निर्देश देते हैं नरेद्रभाई।
तत्काल नाश्ता लाया गया, खमण, ढोकला जैसे गुजराती व्यंजन। हम लोग करीब डेढ़ दशक तक अहमदाबाद रहे, इसलिए हमें क्या पसंद होगा सुबह के नाश्ते में, ये भी अंदाजा था उन्हें। दस बजे वो हमसे मिलने के लिए आते, इससे पहले नाश्ते के साथ चाय के दो राउंड हो गये। सामान्य तौर पर प्रधानमंत्री मोदी मुलाकातियों से 7, लोक कल्याण मार्ग के आवासीय कार्यालय पर ही मिलते हैं, लेकिन मां को तो अपने निजी अतिथि गृह में बुला रखा था, सम्मान प्रदर्शित करने का तरीका था उनका।
ठीक दस बजे, बाहर हलचल महसूस हुई। पत्नी दरवाजे के सामने ही बैठी थीं, उन्होंने इशारे में ही कहा, लगता है पीएम आ गये। इसके बाद अगले तीस सेकेंड तक कोई हलचल नहीं, हमारी सांसें तेज। पत्नी को इशारा किया, तो उन्होंने बताया कि पीछे की तरफ गये हैं।
अभी और कुछ सोचते, तब तक एक कर्मचारी ने अंदर प्रवेश किया, हाथ में एक बड़ा बॉक्स थामे, पीछे- पीछे प्रधानमंत्री मोदी। घुसते ही नरेंद्रभाई ने मां जी को हाथ जोड़े, साथ में कहा कि आपके लिए मैं ये लेकर आया हूं खास तौर पर। सेंटर टेबल पर बॉक्स रखा गया, ध्यान से देखा तो लीची का बॉक्स है, देहरादून लिखा हुआ है। एक दिन पहले प्रधानमंत्री देहरादून में थे, विश्व योग दिवस के कार्यक्रम के सिलसिले में। चौबीस घंटे बाद मेरी मां को अपने पास बुलाकर मिलने वाले थे, इससे पहले उपहार देहरादून से लेकर आए थे।
भावनाओं, खास तौर पर सम्मान के प्रदर्शन का तरीका देखिए। चाहते तो पहले भी कोई टेबल पर लीची का ये बॉक्स रखकर जा सकता था या निकलते समय कोई पकड़ा सकता था, लेकिन मां से मिलने के ठीक पहले अपनी गाड़ी की डिक्की से लीची का बॉक्स निकलवाकर खुद अपने साथ लाना, पेश करना, ये उनका बड़प्पन था, एक बुजुर्ग महिला को खुशियों से भर देने का खास तरीका था।
आकर वो मां के ठीक सामने बैठे, पत्नी और बच्चे उनकी बगल में। एक साइड मैं बैठा। जब हम लोग प्रधानमंत्री आवास पहुंचे थे, तो ख्याल ये था कि दो- चार मिनट बैठेंगे, नरेंद्रभाई अम्मा का हाल- चाल पूछेंगे, दो- चार लाइन बात होगी और हम लोग बाहर। नाश्ता तो पहले करवा ही दिया था, ऐसे में कुछ खिलाने- पिलाने की औपचारिकता भी बाकी नहीं रह गई थी।
लेकिन ये क्या? जब नरेंद्रभाई ने मां से बात शुरु की, तो रुके ही नहीं। बातचीत में भी ज्यादातर विषय, सवाल मां के शुरुआती जीवन के बारे में। नरेंद्रभाई को पता था कि डिमेंशिया के मरीज को हाल की घटनाएं याद नहीं रहती, पुरानी बातें सबसे आखिर में दिमाग से जाती है। लेयर जैसा मामला होता है, दिमाग में जो चीज सबसे बाद में चढ़ी होती है, वो सबसे पहले जाती है, जो सबसे पहली चढ़ी होती है, वो सबसे बाद में।
इसलिए मां से एक के बाद एक सवाल, मसलन, कैसे आप स्कूल गईं, जब लड़कियों का बाहर निकलना मुहाल था या फिर शिक्षिका बनने का फैसला कैसे किया, या फिर ये कि कैसे आपने बच्चों की अकेले दम पर परवरिश की। समाज के अंदर आजादी के शुरुआती दौर में जो हालात थे, उस पर भी चर्चा।
मां मिलने से पहले तो घबराई हुई थीं, लेकिन जिस सहजता से नरेंद्रभाई ने बातचीत शुरु की, उसके बाद मां की सारी झिझक और डर काफूर। वो बड़े उत्साह से उनके एक- एक सवाल का जवाब दे रही थीं और नरेंद्रभाई पूरी गंभीरता से उन्हें सुन रहे थे, बीच- बीच में बच्चों और मेरी पत्नी से भी एकाध सवाल, लेकिन ज्यादातर फोकस मां पर।
मैं बगल में बैठा उनका अटेंशन हासिल करने की कोशिश कर रहा था। प्रधानमंत्री आपके सामने हों, अच्छे मूड में हो, तो आप कई सारी चीजें जानना चाहते हैं। उस समय तो परिस्थितियां भी ऐसी ही थीं। दो दिन पहले ही बीजेपी ने महबूबा मुफ्ती की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था, और राज्य में राज्यपाल शासन लगा दिया गया था। ये कश्मीर में किसी बड़े बदलाव का संकेत था, लग रहा था कि मोदी की अगुआई वाली सरकार कोई बड़ा कदम उठाने जा रही है। उस समय भला कहां पता था कि उस मुलाकात से सवा साल के अंदर मोदी कश्मीर से धारा 370 को खत्म करने वाले हैं, जिसकी बात तो बीजेपी या उससे पहले जनसंघ हमेशा करता था, लेकिन किसी को भी लगता नहीं था कि ऐसा वाकई होगा।
रहा नहीं गया, तो मैंने तपाक से पूछ ही लिया, क्या होने जा रहा है कश्मीर में। उन्होंने कहा कि कश्मीर का कोई शॉर्ट कट सोल्यूशन नहीं है, पत्रकारों के साथ दिक्कत ये है कि वो हर चीज इस्टैंट चाहते हैं, समस्या की गंभीरता का अंदाजा नहीं है उन्हें। कश्मीर एक बड़ी गंभीर समस्या है, इसका समाधान करने में भी समय लगेगा.
पीएम नरेंद्र मोदी का अपनापन जताने का खास अंदाज
मेरे सवाल का जवाब देने के साथ ही वो एक बार फिर से मां के साथ बातचीत करने में तल्लीन हो गये। इस बीच दो बार बाहर से फोन का बजर बज चुका था, बताया जा रहा था कि अगले कार्यक्रम का समय हो गया। दोनों बार जवाब नरेंद्रभाई की तरफ से, थोड़ी देर बाद। आखिरकार, तीसरी बार टेलीफोन की घंटी बजी, मैंने घड़ी देखी, ग्यारह बज चुके हैं। देश के प्रधानमंत्री मेरी मां से तब तक एक घंटे तक बातचीत कर चुके थे, इस दौरान मुश्किल से मैंने एक मिनट अपने लिए चुराया था.
नरेंद्रभाई खड़े हुए, घंटी बजाई, बोला कि फोटोग्राफर को भेजो, मुझे मां जी के साथ तस्वीर खींचानी है। जिस मोदी के साथ एक सेल्फी खीचाने के लिए देश- दुनिया की बड़ी हस्तियां बेचैन रहती हैं, वो मेरी मां को अच्छा लगाने के लिए कह रहे थे कि मुझे आपके साथ तस्वीर खींचानी है। औपचारिक फोटो क्लिक करने के बाद मां के आगे हाथ जोड़ा, कहा कि मां जी आशीर्वाद दीजिए, ताकि देश के लिए हम कुछ अच्छा काम कर सकें। भाव विह्वल मां ने जमकर आशीष दिया। देश का प्रधानमंत्री, वो भी नरेंद्र मोदी जैसा शक्तिशाली प्रधानमंत्री, जो देश के इतिहास में पहली गैर- कांग्रेसी सरकार अपने बूते और बहुमत के साथ लाया हो, वो एक सामान्य पृष्ठभूमि की महिला से आशीर्वाद मांग रहा था। अंदाजा ही लगाया जा सकता है कि मेरी मां कितनी खुश हुई होंगी।
कमरे से बाहर निकलते समय नरेंद्रभाई ने अटेंडेट को निर्देश दिया, बॉक्स उठाओ और मां की तरफ घुमकर बोले, ये लीची का बॉक्स आपके लिए है, लेकर जाना है। बच्चों को भी बोला, अभी तक चॉकलेट खाया क्यों नहीं है, खुद उठाकर उनके शर्ट की पॉकेट में ठूंस दिया।
प्रधानमंत्री मोदी कार में बैठ गये, उनका काफिला निकला, ध्यान में आया कि अरे आज तो नये वाणिज्य भवन के लिए ऑन लाइन भूमि पूजन समारोह विज्ञान भवन में रखा गया है, कार्यक्रम का तय समय ग्यारह बजे ही था। मेरी मां के चक्कर में, उनको अच्छा फील कराने के लिए, उनकी बिगड़ती मानसिक सेहत के दौरान संबल प्रदान करने के लिए, समय के चुस्त पाबंद नरेंद्रभाई ने अपने नियम के साथ समझौता किया कर लिया था, जो अपवाद ही रहा होगा।
इस मुलाकात के अगले दस दिनों तक मां हमेशा पीएम मोदी की चर्चा करती रहीं, उनकी सादगी, सहजता, विनम्रता की चर्चा करती रहीं।
इस मुलाकात के अगले दस दिनों तक मां हमेशा पीएम मोदी की चर्चा करती रहीं, उनकी सादगी, सहजता, विनम्रता की चर्चा करती रहीं। उन्हें भरोसा ही नहीं हो रहा था कि वो एक घंटे तक प्रधानमंत्री से मिलकर, बातचीत कर आई हैं। धीरे- धीरे उनके दिमाग से ये भी निकल गया, अगले कुछ महीनों में, आखिर डिमेंशिया हाल की घटनाओं को ही सबसे पहले भूलने के लिए मजबूर कर देती है, भले ही वो घटनाएं उस व्यक्ति के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण, सबसे खुशी देने वाली घटनाएं ही क्यों न हों।
मेरी मां से मिलने के बाद नरेंद्र मोदी उन्हें भूल नहीं गये। जब भी उनसे मुलाकात हुई, सबसे पहले मां की सेहत के बारे में विस्तार से पूछा। वो भी सिर्फ औपचारिकता के नाते नहीं, बल्कि हृदय की गहराइयों से। मां को लेकर उनका लगाव कितना रहा है, वो अब दुनिया जानती है। हीराबा ही उनके अपने परिवार के सदस्यों से एक मात्र लिंक थीं, जब भी गांधीनगर जाते, मां से मिलते, मां के हाथ का बनाया खाते, हर महत्वपूर्ण मौके पर मां का आशीर्वाद लेते।
हीराबा आखिरी दिनों में जब अस्पताल में भर्ती थीं, अपने प्रिय नरेंद्र को ही याद करती थीं। मोदी जब उन्हें देखने अस्पताल पहुंचे थे, बेहोशी जैसी हालत में भी अपने बेटे को देखकर खुश हो गई थीं, हाथ के इशारे से अपनी खुशी जाहिर की थी।
मां के देहांत के बाद पीएम मोदी गांधीनगर के श्मशान गृह में अपनी मां के अंतिम संस्कार के लिए पहुंचे थे। ये कोई वीआईपी कार्यक्रम नहीं था, परिवार के सदस्यों के अलावा गिने- चुने पार्टी के नेता और कुछ पुराने साथी। मां की अर्थी को कंधे पर उठाकर पहुंचे मोदी ने अपनी मां को मुखाग्नि दी थी। जब हीराबा पंचतत्व में विलीन हो रही थीं, उस वक्त मोदी सूनी आंखों से मां की चिता को एकटक देख रहे थे, भावनाओं का उभार सामने था। मैं उन गिने- चुने लोगों में से एक था, जो गांधीनगर के श्मशान गृह में मौजूद थे, एक बेटे के तौर पर नरेंद्र मोदी का निजी पक्ष, भावनाओं का ज्वार बहते करीब से देखने को मिला था.
पीएम मोदी का मां से जुड़ाव है खास
इसलिए 21 जून की शाम जब नो कॉलर आईडी वाला फोन आया, तो मुझे समझने में एक सेकेंड भी नहीं लगा कि ये नरेंद्रभाई ही होंगे, कोई और नहीं। मेरी मां की मौत पर बड़े भाई जैसा दिलासा देने वाले मोदी का ये पक्ष कम ही लोगों को पता है, ज्यादातर लोग उन्हें चुस्त प्रशासक और आक्रामक नेता के तौर पर ही देखते हैं। इसीलिए आज छह साल पुराने किस्से को मैंने सार्वजनिक करने का फैसला किया, मोदी का सही मूल्यांकन करने वाले लोगों को ये पता होना चाहिए।
मां का देहांत बीस तारीख को हुआ, बाइस तारीख को वो अपने गांव के श्मशान में पंचतत्व में विलीन हो गईं। पिछले तीन दिनों की मानसिक पीड़ा और मां के खोने के दुख के बीच आज सुबह निजी ईमेल बॉक्स पर निगाह गई। पिछले कुछ दिनों से चेक भी नहीं किया था। कल शाम का प्रधानमंत्री कार्यालय से आया एक मेल था इसमें। मेल में अटैचमेंट था, खोला तो पता चला कि मेरी मां को श्रद्धांजलि देते हुए, मुझे और मेरे परिवार को दिलाता देते हुए पीएम मोदी का पत्र है। ये पत्र भी 21 जून का ही है, उसी तारीख का, जिस शाम खुद नरेंद्रभाई ने फोन कर मां के निधन पर शोक व्यक्त किया था और मुझे ढांढस बंधाया था।
धन्यवाद नरेंद्रभाई, अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच मेरी मां के बारे में सोचने और उन्हें खोने के बाद भावनात्मक संबल प्रदान करने के लिए। आज के दौर में जब छुटभैये नेताओं और अधिकारियों के लिए भी काम और स्वार्थ के सिवाय किसी के बारे में सोचने का वक्त नहीं होता, उसमें अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच निजी संबधों को निभाना, कोई आपसे सीखे।
Tags: Narendra modiFIRST PUBLISHED : June 23, 2024, 18:50 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed