पीएम मोदी के विरोध के नाम पर कांग्रेस को परजीवी बनाते रहे हैं राहुल गांधी!

28 दिसंबर 1885 को अस्तित्व में आई कांग्रेस ने करीब 140 साल का सफर पूरा कर लिया है. देश की सत्ता में सर्वाधिक समय रहने का कांग्रेस के नाम रिकार्ड भी है. समृद्ध अतीत के बावजूद राहुल गांधी ने जबसे कांग्रेस की कमान संभाली है, इसके पराभव के दिन भी शुरू हो गए हैं. क्षेत्रीय दलों की चेरी बन चुकी कांग्रेस को पीएम नरेंद्र मोदी परजीवी पार्टी बताते हैं तो इसे सिर्फ विरोध के तौर पर देखना उचित नहीं होगा.

पीएम मोदी के विरोध के नाम पर कांग्रेस को परजीवी बनाते रहे हैं राहुल गांधी!
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में महायुति की जीत और विरोधी महाविकास अघाड़ी (MVA) की हार के बाद कहा कि कांग्रेस अब परजीवी पार्टी बन कर रह गई है. कांग्रेस के विरोध का मोदी का यह तरीका जैसा भी रहा हो, पर सच के करीब है. कर्नाटक और तेलंगाना को छोड़ दें तो अन्य राज्यों में भाजपा के आगे कांग्रेस पिद्दी-सी दिखती है. जिस बंगाल में कांग्रेस का लंबे समय तक शासन रहा, वहां विधायिका में उसका अब कोई नामलेवा तक नहीं बचा है. यहां तक कि इंडिया ब्लाक में शामिल रहने का दावा करने वाली टीएमसी की नेता और पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी बंगाल में कांग्रेस को परजीवी बनाने के लिए भी तैयार नहीं हैं. अन्य राज्यों में भी कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के सहारे सहमी-दुबकी खड़ी दिखती है. मोदी ने तो यहां तक कह दिया कि कांग्रेस सिर्फ अपनी ही नहीं, बल्कि अपने साथियों की नाव को भी डुबो देती है. यह भी सच है. यूपी में बहुजन समाज पार्टी (BSP) और समाजवादी पार्टी (SP) पहले कांग्रेस को सटा कर हटा चुके हैं. बिहार में खत्म हो चुकी है कांग्रेस बिहार में तो कांग्रेस कहने भर की है. सच कहें तो वह अब आरजेडी का परिवर्तित रूप बन गई है. आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव चुनावों में कांग्रेस की सीटें तय करते हैं. उम्मीदवार भी आरजेडी की पसंद के ही होते हैं. पूर्णिया में पप्पू यादव को देख लीजिए. कांग्रेस के टिकट के लिए उन्होंने अपनी जन अधिकार पार्टी (JAP) का कांग्रेस में विलय कर दिया. कांग्रेस ने पूर्णिया से उन्हें चुनाव लड़ने की हरी झंडी भी दिखा दी. सिंबल के इंतजार में पप्पू यादव ने नामांकन पत्र दाखिल करने की तारीख तक खिसका दी. पर, लालू यादव के दबाव में कांग्रेस आखिरकार पप्पू को उम्मीदवार बनाने से मुकर गई. मुकरी ही नहीं, बल्कि राहुल गांधी पूर्णिया में बता भी आए कि पप्पू उनके पास अपने और बेटे के लिए दो सीटों की मांग लेकर आए थे. नहीं दिया तो वे निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं. कांग्रेस का उनसे कोई रिश्ता नहीं है. यह अलग बात है कि पप्पू आज भी कांग्रेस से एकतरफा प्रेम करते हैं. बहरहाल, बिहार में कांग्रेस ठीक से परजीवी कहलाने की भी स्थिति में नहीं है. बिहार की 40 संसदीय सीटों में सिर्फ एक सीट पर कांग्रेस इस बार जीत पाई. यूपी में कांग्रेस सपा की चेरी बनी यूपी में कांग्रेस फिलवक्त समाजवादी पार्टी की चेरी बनी हुई है. लोकसभा का चुनाव हो या विधानसभा के उपचुनाव, कांग्रेस दावे के बावजूद सीटें लेने में पीछे हटती रही है. अव्वल तो समाजवादी पार्टी पर दबाव बनाने की सूरत में ही नहीं है कांग्रेस. दूसरे, दबाव बनाने की कभी कोशिश करती भी है तो अखिलेश यादव के एक बार हड़काने पर दुबक जाती है. भय रहता है कि पिछला अनुभव याद कर अखिलेश कहीं छोड़ न दें. अपने बूते एक सांसद जिता पाने की भी उसकी औकात नहीं रहती. कांग्रेस कभी अखिलेश तो कभी मायावती का अतीत में सहारा लेती रही है. खुद ही उसने यूपी जैसे बड़े स्टेट में अपने को परजीवी बना लिया है. यह जानते हुए भी कि संसद का रास्ता वही से जाता है. यूपी में लोकसभा की 80 सीटें हैं. महाराष्ट्र में तो दुर्दशा ही हो गई है महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और उसकी महायुति की जो दुर्दशा हुई है, उसके बाद कांग्रेस को वहां आश्रय देने वाला भी शायद ही अब कोई दल होगा. वैसे भी आश्रय देने वाले एनसीपी नेता शरद पवार और नई नवेली साथी बनी उद्धव ठाकरे की शिवसेना अपने ही अंतर्विरोधों की शिकार हैं. वे खुद सियासी शेल्टर देने वालों की तलाश में हैं. यानी महाराष्ट्र में कांग्रेस के अगले कई सालों तक फूलने-फलने की कोई संभावना नजर नहीं आती. अभी तो तकरीबन हफ्ते भर पहले ही विधानसभा चुनाव के नतीजे आए हैं. यानी कांग्रेस को अभी अनुकूल मौसम के इंतजार में ही पांच साल लग जाएंगे. 48 संसदीय सीटों वाले महाराष्ट्र में कांग्रेस का परजीवी बनना राहुल के पीएम बनने के सपने के पूरा होने में सबसे बड़ी बाधा है. कांग्रेस की राहुल को बढ़ाने की जिद तकरीबन 150 साल पुरानी और दशकों तक देश पर शासन करने वाली पार्टी कांग्रेस तीन लोकसभा चुनावों से राहुल गांधी को आजमा रही है. इस दौरान देश में लोकसभा के तीन चुनाव हुए. विधानसभा चुनाव भी होते रहे और कांग्रेस हारती रही है. यूपी, बिहार, महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों और हरियाणा, दिल्ली जैसे छोटे राज्यों में भी कांग्रेस कोने में दुबकी दिखती है. इन सतत नाकामियों के बावजूद कांग्रेस अभी राहुल गांधी के नाम का ही ढोल पीट रही है. राहुल की सबसे बड़ी नाकामी तो उसी समय उजागर हो गई थी, जब विपक्षी पार्टियों के गठबंधन ‘इंडिया’ को जन्म देने वाले नीतीश कुमार ने किनारा कर लिया. ममता बनर्जी ने ताल ठोंक कर कांग्रेस को अपने सूबे बंगाल में एक भी सीट देने से मना कर दिया. वामदलों के सहयोग से उपचुनाव जीते कांग्रेस के एकमात्र विधायक को भी ममता ने तोड़ लिया. यानी गंठबंधन का नेता बनने की कूबत भी उनमें नहीं. अब अपनी पार्टी की परजीवी भूमिका से उबरे बिना राहुल गंठजोड़ के भरोसे पीएम बनने की जिद पर अड़े हैं तो यकीन मानिए सिपहसालार उन्हें भ्रम में रखे हुए हैं. राहुल को पहले कांग्रेस को कम से कम बड़े राज्यों में परजीवी भूमिका से बाहर निकालना होगा. कांग्रेस के पास नए मुद्दों ही कमी कांग्रेस जिस राहुल गांधी को दशक भर से आजमाती आ रही है, वे घिसे-पिटे मुद्दों की राजनीति कर रहे हैं. जाति जनगणना के जिस मुद्दे को जनता भूल चुकी है या उस पर रिएक्ट नहीं करती, राहुल लोकसभा से लेकर विधानसभा चुनावों तक उसी को आजमा रहे हैं. संविधान और आरक्षण खत्म करने के भाजपा पर राहुल के आरोपों की भी अब हवा निकल चुकी है. इसलिए कि भाजपा ने अब तक ऐसा कुछ किया ही नहीं है. देश-दुनिया में मशहूर उद्योगपति गौतम अडानी के विरोध की तो राहुल ने सुपारी ही ले ली है. ऐसा करते वक्त वे भूल जाते हैं कि अडानी की कंपनियों में बड़े पैमाने पर रोजगार पाए लोगों की रोटी पर वे संकट पैदा करना चाहते हैं. हजारों लोग अडानी के उपक्रमों में काम करते हैं. क्या राहुल की वामपंथी सोच से अडानी की कंपनियों के हजारों कामगारों को खुशी मिलती होगी! क्या वे या उनके परिवारी जन कभी राहुल के पक्ष में खड़े होंगे. कांग्रेस को अगर अपनी खोई जमीन वापस लेनी है तो उसे संगठन से लेकर सिद्धांतों तक आमूल परिवर्तन करना होगा. Tags: Congress, PM Modi, Rahul gandhiFIRST PUBLISHED : November 27, 2024, 10:01 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
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