महायुति और MVA में था कांटे का मुकाबला फिर कैसे आया एकतरफा नतीजा!
महायुति और MVA में था कांटे का मुकाबला फिर कैसे आया एकतरफा नतीजा!
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे महायुति (NDA) के पक्ष में गए हैं. नतीजों को सामान्य नहीं कहा जा सकता. इसे महायुति की सुनामी कहना ज्यादा उचित होगा. लोकसभा चुनाव में अपनी उपलब्धियों से महाविकास अघाड़ी (MVA) को यह उम्मीद थी कि विधानसभा चुनाव में इससे भी बेहतर नतीजे आएंगे. हकीकत यह कि शरद पवार, उद्धव ठाकरे और राहुल गांधी जैसे नेताओं को महाराष्ट्र की जनता ने सिरे से नकार दिया है.
मतदाताओं का मन टटोलना अब आसान नहीं रह गया है. यह ट्रेंड हरियाणा विधानसभा चुनाव से ही दिख रहा है. हरियाणा में लोग आसानी से इंडिया ब्लाक की सरकार बनते देख रहे थे. एक-दो को छोड़ बाकी सारे एग्जिट पोल के अनुमान से इंडिया ब्लाक के नेताओं के चेहरे पर चमक आ गई थी. कोई राहुल गांधी का कमाल बता रहा था तो कुछ इसे मल्लिकार्जुन खड़गे का आक्रामक चुनाव प्रचार का प्रतिफल बताने में मशगूल थे. कई लोग हुड्डा की चुनावी रणनीति की कुशलता के चर्चे भी करने लगे थे. यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के बांटोगे तो कटोगे नारे को इंडिया ब्लाक की हवा बनाने में मददगार मान रहे थे. पर, नतीजों में सारे अनुमान धरे रह गए. महाराष्ट्र में भी लड़ाई कांटे की मानी-बताई जा रही थी. फिर भी महा विकास अघाड़ी (MVA) का सत्ता में आने का सपना चकनाचूर हो गया. शिवसेना (शिंदे गुट), एनसीपी (अजित पवार गुट) के साथ भाजपा ने जिस तालमेल से काम किया, उसी का परिणाम है कि महा विकास अघाड़ी (MVA) को पीछे धकेलने में महायुति को सफलता मिली है.
MVA को जोरदार झटका
महाराष्ट्र में महायुति के पक्ष में हवा का रुख कैसे पलट गया, यह अब अबूझ पहेली नहीं है. इसमें दो राय नहीं कि सत्ता में रहने के कारण भाजपा के नेतृत्व वाली महायुति को चुनाव प्रचार और लोगों को लुभाने में आसानी रही. पर, महा विकास अघाड़ी ने भी कम मेहनत नहीं की. सीट बंटवारे से लेकर सीएम के मुद्दे तक एमवीए ने बड़ी सुगमता से से सुलझा लिए थे. चुनाव प्रचार में आक्रामकता भी महायुति से कम नहीं रही. शरद पवार जैसा सियासी चाणक्य एमवीए के पास था तो उद्धव ठाकरे जैसा हिन्दुत्व का झंडाबरदार भी था. फिर भी सफलता हाथ नहीं आ सकी. यह महा विकास अघाड़ी के लिए जोरदार झटका है. इसका दुष्परिणाम आने वाले समय में MVA को झेलना पड़ जाए तो आश्चर्य नहीं. मसलन MVA में टूट के खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता.
असली-नकली बड़ा संकट
निस्संदेह सत्ता के खिलाफ एंटी इन्कम्बैंसी का खतरा रहता है. पर, इस खतरे से मुक्त कराने में एकनाथ शिंदे की शिवसेना की भूमिका भुलाई नहीं जा सकती. बाला साहेब ठाकरे के समय की शिवसेना के एक दमदार सैनिक एकनाथ शिंदे महायुति के साथ थे. उद्धव ठाकरे अलग शिवसेना चला रहे थे. बाला साहेब का बेटा होने के नाते उद्धव को पूरा भरोसा था कि शिंदे ने शिवसेना के नेताओं को भले तोड़ा है, समर्थक तो उनके ही साथ हैं. वे यह भी भूल गए कि बड़े शिवसैनिक के रूप में समर्थकों के बीच पहचान बना चुके शिंदे अब सीएम हैं.
उद्धव वादा कर सकते हैं तो शिंदे वादा पूरा करने में सक्षम हैं. संयोग से शिवसेना भी शिंदे ने अपने नाम करा ली. लगातार लंबे समय तक सत्ता में रही शिवसेना और भाजपा के रिश्ते से भी शिवसैनिक वाकिफ रहे हैं. इससे शिवसेना समर्थकों में घोर कन्फ्यूजन हुआ. और इस कन्फ्यूजन का लाभ महायुति को मिल गया.
NCP को बंटने से घाटा
एनसीपी को भी विभाजन का दंश झेना पड़ा है. शरद पवार के भतीजे अजित पवार के अलग होने के दिन से यह संदेश लोगों के बीच चला गया कि पारिवारिक एकता के बूते सत्ता की मलाई खाते रहे शरद पवार अब कमजोर पड़ रहे हैं. अजित पवार ने न सिर्फ एनसीपी का विभाजन किया, बल्कि महायुति के साथ जाकर उसकी ताकत भी बढ़ाई. सत्ता में रहने का भी असर भी एनसीपी के समर्थकों के बड़े तबके पर पड़ा. यहां भी एनसीपी समर्थक कन्फ्यूजन के शिकार हुए.
लाड़की योजना का लाभ
महायुति को सरकार की लाडकी बहिण योजना का भी बड़ा लाभ मिला है. महायुति सरकार लाडकी बहिण योजना के तहत 21 से 65 वर्ष की विवाहित, विधवा और बेसहारा महिलाओं को हर महीने 1,500 रुपए दे रही है. दोबारा सत्ता मिलने पर महायुति सरकार ने यह रकम बढ़ा कर 3000 रुपए करने का वादा किया है. इतना ही नहीं, सरकार ने इस योजना के तहत दिवाली बोनस की घोषणा की. लाडकी बहण योजना का 80 लाख महिलाओं को लाभुक बना कर एनडीए सरकार ने पहले ही बड़ा वोटॉ आधार सुनिश्चित कर लिया था. इससे महिलाओं का समर्थन महायुति को चुनाव में मिला. ऐसी और भी कई योजनाएं राज्य सरकार ने शुरू कीं, जिसका असर विधानसभा चुनाव में दिखा.
NDA की कुशल रणनीति
एनडीए ने चुनाव के लिए कुशल रणनीति बनाई. दलीय भावना से ऊपर उठ कर महायुति ने जीतने वाले उम्मीदवारों पर फोकस किया. इस क्रम में भाजपा के कई लोगों को एकनाथ शिंदे और अजित पवार ने अपनी पार्टी का उम्मीदवार बनाया. समझा-मनाकर देवेंद्र फडणवीस को भाजपा ने चुनाव से काफी पहले सक्रिय किया. फडणवीस की महाराष्ट्र में अच्छी छवि रही है. फणनवीस ने ही महायुति की पार्टियों के बीच सीटों के बंटवारे पर बेहतर ढंग से काम किया.
चुनाव के ठीक पहले सीएम एकनाथ शिंदे ने यह कह कर विवादों को विराम दे दिया कि वे सीएम पद की रेस में नहीं हैं. यानी 2014 में जिस तरह फडणवीस के नेतृत्व में तत्कालीन एनडीए ने चुनाव में कामयाबी हासिल की और सरकार बनाई, उनके इस बार भी सक्रिय रहने की वजह से लोगों को यह भरोसा हो गया कि एक बार फिर फणनवीस के हाथ ही महाराष्ट्र की कमान होगी. इससे एनडीए को कामयाब होने में काफी मदद मिली.
‘बंटोगे तो कटोगे’ कारगर
यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने हरियाणा विधानसभा चुनाव के समय से ही बंटोगे तो कटोगे का नारा उछालना शुरू किया है. पीएम नरेंद्र मोदी ने भी बाद में एक हैं तो सेफ हैं का नारा दिया. इससे हिन्दू वोटरों को ध्रुवीकृत करने में महायुति को आसानी हुई. महायुति का काम आसान करने में उलेमा संगठन के फतवे ने भी मदद पहुंचाई. महा विकास अघाड़ी के नेताओं ने उनेमा संगठन के फतवा वाले पत्र का प्रचार कर मुस्लिम वोटरों को लुभाने का काम किया. शरद पवार ने तो कई शहरों के नाम बदल कर पहले की तरह रखने का वादा कर दिया. संभव है कि इससे मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हुआ भी, लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में हिन्दू वोटर महायुति के पक्ष में गोलबंद हो गए. चुनाव के नतीजे इसी का संकेत दे रहे हैं.
Tags: Devendra Fadnavis, Eknath Shinde, Maharashtra bjp, Maharashtra ElectionsFIRST PUBLISHED : November 23, 2024, 19:00 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed