दास्तान-गो : हॉकी की दुनिया के फ़लक पर जगमगाता ‘चांद’ मेजर ध्यान चंद
दास्तान-गो : हॉकी की दुनिया के फ़लक पर जगमगाता ‘चांद’ मेजर ध्यान चंद
Daastaan-Go ; Magician of Hackey Major Dhyan Chand Birth Anniversary : यहां से अब ‘ध्यान चंद’ के लिए हॉकी के साथ रिश्ता ‘जल बिन मछली’ जैसा हो गया. साल 1922 से 1926 के बीच फ़ौज में जितनी भी खेल की प्रतिस्पर्धाएं हुईं, उनमें उन्होंने रेजीमेंट की तरफ़ से हॉकी खेलते हुए ऐसा नाम बना लिया कि उन्हें हिन्दुस्तानी फ़ौज (अंग्रेजों की) की हॉकी टीम में शामिल कर लिया गया.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, ‘जादूगर’ तो बहुत हुआ करते हैं. इस दुनिया में तमाम आए और चले गए. जब तक वे रहे, उनका जादू रहा. और इस दुनिया से उनकी रवानगी के साथ ही उनके जादू का असर भी जाता रहा. लेकिन ‘सूरज’ और ‘चांद’ के साथ ऐसा नहीं है. ज़मीन के ऊपर निगाह उठाइए. ये दोनों अपनी तरह के एक ‘इकलौते’ नज़र आएंगे. ज़मीन पर चारों तरफ़ कहीं भी नज़र घुमाइए, इनका असर हमारे गिर्द नज़र आएगा, हर वक़्त. और इनमें भी ख़ासकर ‘चांद’ के असर में तो न जाने कौन-कौन, कब-कब, कैसे-कैसे क़ैद होता रहा है. महबूब, ‘आशिक़ उसे देखकर आहें भरा करते हैं. शा’इर उसे देखकर शा’इरी किया करते हैं. ऐसा ही और भी न जाने कितना कुछ. जब से इस कुदरत ने चांद को अपना हिस्सा बनाया है, तब से उसका जादू ऐसा ही क़ायम है और क़यामत तक रहने वाला है.
जनाब, हॉकी की दुनिया में हिन्दुस्तान के मेजर ध्यान सिंह भी ऐसे ही हुए. फ़लक पर जगमगाते ‘चांद’ की तरह. इसीलिए लोग उन्हें ‘मेजर ध्यान सिंह’ के बजाय अब ‘मेजर ध्यान चंद’ के नाम से ही जानते हैं. अलबत्ता तमाम लोग उन्हें ‘हॉकी का जादूगर’ भी कहा करते हैं. लेकिन ‘जादूगर’ से कहीं ज़्यादा बेहतर उन्हें ‘चांद’ ही कहना और मानना लाज़िम होगा. क्योंकि यही एक ऐसा लफ़्ज़ है, जो उनकी शख़्सियत पर पूरी तरह फिट बैठता है. क्यों और कैसे? इन सवालों के ज़वाब उनकी इस दास्तान में आगे ख़ुद-ब-ख़ुद मिलते चलेंगे. तो जनाब, अंग्रेजों के समय उन्हीं की फ़ौज में एक टुकड़ी होती थी, ‘फर्स्ट ब्राह्मण रेजीमेंट’. वैसे, अवध के नवाब ने 1776 में इस नाम से फ़ौजी टुकड़ी बनाई थी. मगर अंग्रेजों ने इसे जारी रखा था. इलाहाबाद (प्रयागराज) में उन्होंने इस टुकड़ी को तैनात किया था. हालांकि आगे उन्होंने इसका नाम बदलकर ‘फर्स्ट पंजाब रेजीमेंट’ कर दिया.
कैसे रखा गया उनका नाम
इसी रेजीमेंट के एक फ़ौजी होते थे सूबेदार सोमेश्वर दत्त सिंह. उनके परिवार में आज की ही तारीख़, यानी 29 अगस्त को एक बच्चे ने जन्म लिया, जिसका नाम रखा गया ध्यान सिंह. साल 1905 की बात है यह. इस वक़्त सूबेदार सोमेश्वर इलाहाबाद में ही रहा करते थे. उनके दो बेटे, तीन बेटियां और भी हुईं. यानी ध्यान सिंह को मिलाकर छह भाई-बहन हुए. जब ध्यान सिंह सात-आठ साल के थे, तभी सूबेदार सोमेश्वर को सरकारी फ़रमान मानते हुए, पहले विश्व-युद्ध में अंग्रेजों की तरफ़ से लड़ने के लिए हिन्दुस्तान से बाहर जाना पड़ा. परिवार अस्त-व्यस्त होने लगा तो सूबेदार सोमेश्वर की पत्नी शारदा बच्चों को लेकर झांसी आ गईं. आगे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, परवरिश सब वहीं हुई. कहते हैं, यहां बचपने में ध्यान सिंह घर से स्कूल जाने के लिए निकलते. लेकिन अटक जाते रास्ते में ही कहीं, किसी मैदाननुमा जगह पर. फिर वहीं खेल-कूद में मशगूल हो जाते सब के सब.
और खेल क्या होते? कभी भाइयों और दोस्तों के साथ पहलवानी के दांव-पेंच आजमाना. और कभी पेड़ की टहनियों से गेंद को धकियाते हुए हॉकी खेलना. हालांकि इन दोनों में से शुरुआती दिलचस्पी पहलवानी में ज़्यादा होती थी, ऐसा कहते हैं. सो, ज़ाहिर है, खेल-कूद के चक्कर में पढ़ाई का ख़्याल कम आता था. लिहाज़ा, छठे दर्ज़े तक ही पढ़ाई हो सकी. इस वक़्त 12-13 साल की उम्र रही होगी. अगले दो-तीन बरस बस, ऐसे ही निकल गए. फिर एक रोज फ़ौज की भर्ती का इश्तिहार दिखा. पिता को फ़ौज की वर्दी में तो देखते ही रहते थे. ध्यान सिंह ने भी फ़ौज में भर्ती होने के लिए अर्ज़ी लगा दी. उन्हें नौकरी भी मिल गई. सिपाही की. शायद 10-12 रुपए कुछ की पहली तनख़्वाह हाथ में आई, तो इतने ख़ुश हुए कि रातभर सो न सके. अब उम्र 16 बरस हो चुकी थी. कहते हैं, मुकम्मल तौर पर यहां से, सही मायनों में, हॉकी के साथ ध्यान सिंह का राब्ता बना और बढ़ा.
वो रोमांचक पल
बताते हैं, फ़ौज में नौकरी की मसरूफ़ियत के बीच भी ध्यान सिंह हॉकी के लिए वक्त निकाल लिया करते थे. रात के वक़्त ‘चांद’ की रोशनी में हॉकी खेलने की प्रैक्टिस किया करते थे. इसी वज़ह से दोस्तों ने ध्यान सिंह को ‘ध्यान चंद’ कहना शुरू कर दिया था. यहीं उन पर फ़ौज के खेल-प्रशिक्षक बाले तिवारी की नज़र पड़ी और उन्होंने ध्यान सिंह को क़ायदे से हॉकी सिखाना शुरू कर दिया. इसके बाद तो पंजाब रेजीमेंट की टीम में उन्हें जगह दी जाने लगी. इस तरह, यहां से अब ‘ध्यान चंद’ के लिए हॉकी के साथ रिश्ता ‘जल बिन मछली’ जैसा हो गया. साल 1922 से 1926 के बीच फ़ौज में जितनी भी खेल की प्रतिस्पर्धाएं हुईं, उनमें उन्होंने रेजीमेंट की तरफ़ से हॉकी खेलते हुए ऐसा नाम बना लिया कि उन्हें हिन्दुस्तानी फ़ौज (अंग्रेजों की) की हॉकी टीम में शामिल कर लिया गया. यह टीम 1926 में न्यूजीलैंड के दौरे पर जा रही थी. उसमें ध्यान चंद शामिल हुए.
हिन्दुस्तानी फ़ौज की टीम ने न्यूजीलैंड में 18 मैच जीते. जबकि दो ड्रा किए और सिर्फ एक मैच हारा, वह भी शायद दोस्ताना मुक़ाबला था. टीम की इस कामयाबी के लिए सबसे अधिक ज़िम्मा-वार अगर कोई माने गए तो वे ध्यान चंद. जाहिर है, जब टीम हिन्दुस्तान लौटी, तो अंग्रेज सरकार ने ख़ुश होकर उसे तोहफ़े दिए. टीम के खिलाड़ियों को तरक्क़ी दी और ध्यान चंद भी पंजाब रेजीमेंट में बना दिए गए, लांस नायक. सिर्फ़ यही नहीं, दो साल बाद साल 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक के लिए जब हिन्दुस्तान की हॉकी टीम बनाई गई तो उसमें भी सबसे अव्वल, ध्यान चंद को रखा गया. इंडियन हॉकी फेडरेशन (आईएचएफ) भी अभी बना ही था. उसकी तरफ से पहली बार ओलंपिक में टीम भेजी जा रही थी. लिहाज़ा हिन्दुस्तान के पांच सूबों- पंजाब, बंगाल, राजपूताना, यूनाइटेड प्रोविंस, और सेंट्रल प्रोविंस के बीच मुकाबले कराकर आईएचएफ ने सबसे दमदार भारतीय टीम बनाई.
हॉकी से लगाव
बताते हैं, इन मुकाबलों के दौरान ध्यान चंद पंजाब रेजीमेंट के अफ़सरों से इजाज़त लेकर यूनाइटेड प्रोविंस की तरफ से खेले थे. हमेशा की तरह शानदार प्रदर्शन कर उन्होंने भारतीय टीम में जगह पक्की की थी. हालांकि अब तक किसी को शायद ही इल्म रहा हो, एम्सटर्डम की धरती पर सदियों तक याद रह जाने वाला कोई ‘जादू’ होने वाला है. कोई ‘जादूगर’ हॉकी के फ़लक पर जाकर ‘चांद’ की तरह बैठ जाने वाला है. पूरी दुनिया पर अपना जादू बिखेरने के लिए. लेकिन हुआ जनाब, जादू हुआ. पहली बार ओलंपिक में उतरी हिन्दुस्तान की टीम ओलंपिक का स्वर्ण पदक जीतकर ही लौटी और इस क़ामयाबी में सबसे ज़्यादा अगर कोई चमका तो वे थे ध्यान चंद. पांच मैचों में उन्होंने दूसरी टीमों के ख़िलाफ धुआंधार 14 गोल दाग दिए थे. पूरे् टूर्नामेंट में एक खिलाड़ी की ओर से दागे गए सबसे ज़्यादा गोल. इसके बाद कहते हैं, पहली बार अख़बार वालों ने ध्यान चंद को ‘हॉकी के जादूगर’ का तमगा दिया था, जो अब तक उन्हीं के पास, वैसे का वैसा ही बना हुआ है.
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दास्तान-गो : हिन्दुस्तान के लिए हिटलर को ठुकरा देने वाले ध्यान चंद ही हो सकते थे
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(नोट- इस दास्तान को लिखने में संसद टीवी के ‘विरासत’ कार्यक्रम, बीबीसी की ओर से ध्यान चंद पर बनाई डॉक्यूमेंटी और ओलंपिक्स डॉट कॉम पर मौजूद सामग्री से मदद ली गई है.)
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Tags: Birth anniversary, Major Dhyan Chand, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : August 29, 2022, 07:18 IST