कहां गया अखिलेश का पीडीए यूपी में अब ‘भाग्य-भरोसे’ कांग्रेस की नैया
कहां गया अखिलेश का पीडीए यूपी में अब ‘भाग्य-भरोसे’ कांग्रेस की नैया
UP By Election Result: यूपी में 9 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के रिजल्ट ने एक नया सवाल पैदा किया है. वह यह कि यूपी में इंडिया गठबंधन में सपा और कांग्रेस में से किसको किसकी जरूरत है.
उत्तर प्रदेश विधानसभा उपचुनावों में कांग्रेस पार्टी शामिल नहीं थी, पर पर्यवेक्षक उसके भविष्य को लेकर बेचैन हैं. क्या होने वाला है इस पार्टी का? अनिच्छा से वह इस चुनाव से बाहर रही, पर ‘इंडिया’ गठबंधन की भागीदार होते हुए भी उसके बड़े नेताओं ने इस चुनाव में भाग नहीं लिया. समाजवादी पार्टी की धुलाई के बाद कांग्रेस के पास भविष्य में या अकेले चुनाव लड़ने का विकल्प है या राज्य में ‘इंडिया’ गठबंधन को नए सिरे से खड़ा करने की चुनौती. कांग्रेस के लिए ये परिणाम भविष्य की राजनीति के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं. इस साल लोकसभा के चुनावों में सफलता पाने के बाद उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का आत्मविश्वास बहुत ज्यादा बढ़ गया था, जिसकी वजह से कांग्रेस पार्टी उसकी पिछलग्गू नजर आने लगी. इन परिणामों ने न केवल सपा की हवा निकाली है, साथ ही कांग्रेस को सपा के बंधन से मुक्त कर दिया. अब यह कांग्रेस पर निर्भर करेगा कि वह भविष्य में किस राह पर जाती है.
‘बड़े भाई’ की भूमिका
एक तरफ प्रदेश में पार्टी को पुनर्जीवित करने के प्रयासों की खबरें आती हैं, वहीं पार्टी के भीतर असंतोष की खबरें भी हैं. हाल में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय ने अंग्रेजी के एक राष्ट्रीय दैनिक से कहा, ‘हम 2027 के विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते काम कर रहे हैं…कांग्रेस गठबंधन में ‘बड़े भाई’ की भूमिका में रहा है और आगे भी रहेगा…हमने पहले भी चुनाव लड़ा है और आगे भी एक छतरी के नीचे चुनाव लड़ेंगे.’
सवाल है कि क्या वास्तव में गठबंधन यूपी में कांग्रेस को ‘बड़ा भाई’ मानता है? कम से कम दो बातें साफ दिखाई पड़ रही हैं. एक, उत्तर प्रदेश में गहरी दिलचस्पी दिखाने के बाद राहुल और प्रियंका गांधी दोनों ने अब इसे पूरी तरह भाग्य-भरोसे छोड़ दिया है. दूसरे, इस चुनाव के बाद राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले कांग्रेस एक पायदान और नीचे चली गई है.
महाराष्ट्र में शिवसेना (उद्धव) और एनसीपी शरद गुट के सामने तो अस्तित्व का संकट पैदा हुआ ही है, वहीं कांग्रेस की राष्ट्रीय-पहचान खतरे में आ गई है. झारखंड में ‘इंडिया’ गठबंधन की सफलता के बावजूद वहां कांग्रेस अब झारखंड मुक्ति-मोर्चा के रहमो-करम पर है. ‘इंडिया’ गठबंधन के कारण लोकसभा में कांग्रेस की उपस्थिति बढ़ी ज़रूर है, जिन राज्यों में गठबंधन सरकारें हैं, वहां कांग्रेस किसी न किसी क्षेत्रीय पार्टी के बाद दोयम दर्जे की पार्टी है.
कमजोर ‘स्ट्राइक-रेट’
राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस पार्टी ही बीजेपी के मुकाबले में है, पर धीरे-धीरे वह क्षेत्रीय दलों के सहारे होती चली गई है. गठबंधन सहयोगी मानते हैं कि कांग्रेस का ‘स्ट्राइक-रेट’ अच्छा नहीं है, पर वह सीटें ज्यादा मांगती है. राजनीति में क्रिकेट के खेल से ‘स्ट्राइक-रेट’ नया शब्द आया है. बिहार विधानसभा के 2020 के चुनाव में हुए गठबंधन में कांग्रेस ने 70 सीटें झटक लीं, पर उसे जीत केवल 19 में ही मिली. इसके विपरीत सीपीएमएल ने 19 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिसमें से 12 में जीत मिली.
केवल स्ट्राइक-रेट की बात ही नहीं है, बीजेपी के साथ सीधे मुकाबलों में भी उसका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है. इस बार महाराष्ट्र के उन 75 मुकाबलों में भी यह बात साबित हुई है, जहां दोनों दलों का सीधा मुकाबला हुआ. स्ट्राइक-रेट के लिहाज से दोनों पार्टियों का कोई मुकाबला ही नहीं है. बीजेपी ने 152 प्रत्याशी खड़े किए और 132 पर जीत हासिल की वहीं कांग्रेस ने 102 प्रत्याशी खड़े किए और 16 सीटें हासिल कीं.
बहरहाल इस बार अलग-अलग राज्यों में हुए चुनावों में कांग्रेस को अपने सहयोगी दलों से बार-बार यह सुनना पड़ा है कि उसका स्ट्राइक-रेट कमज़ोर है. हाल में हुए हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में उसके खराब प्रदर्शन के कारण कांग्रेस की सौदेबाजी की शक्ति को झटका लगा है और सहयोगी दलों ने उसे पीछे धकेल दिया है.
जीतने की क्षमता पर सवाल
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अड़ जाने के बाद कांग्रेस ने नौ उपचुनावों में से किसी भी सीट पर उम्मीदवार नहीं उतारने का फैसला किया, पर ऐसा उसने अनिच्छा से किया. पार्टी ने इसे संविधान की रक्षा और बीजेपी को किसी भी कीमत पर हराने का नाम दिया, पर यह साफ है कि सपा ने चुनाव जीत पाने की उसकी क्षमता पर प्रश्न-चिह्न खड़ा किया था.
उत्तर प्रदेश में ही नहीं कांग्रेस को पश्चिम बंगाल में भी झटका लगा, जहां उसकी सहयोगी माकपा ने कांग्रेस के बजाय छह उपचुनाव सीटों के लिए उम्मीदवारों की फुरफुरा शरीफ की पार्टी आईएसएफ के साथ गठबंधन करना पसंद किया. ऐसा ही असम में हुआ, जहां असम सम्मिलित मोर्चा टूट गया और कांग्रेस अकेली हो गई. यह गठबंधन 2026 के विधानसभा चुनाव के लिए तैयार किया गया है. इसके भविष्य को लेकर अब सवाल पैदा होंगे.
अहंकार बाकी
हरियाणा के नतीजों के बाद कांग्रेस की सौदेबाजी की इस क्षमता का ह्रास हुआ है. और अब महाराष्ट्र के नतीजों से इसमें और गिरावट दिखाई पड़ेगी. बावजूद इसके, उसका अहंकार गया नहीं है. उत्तर प्रदेश में सपा की नाराज़गी की एक वजह यह भी थी कि कांग्रेस ने हरियाणा और उसके पहले मध्य प्रदेश में सीट बंटवारे के लिए उसकी मांगों को नजरंदाज़ किया था.
इन राज्यों में कांग्रेस को अपनी स्थिति बेहतर बनाने के लिए क्षेत्रीय-दलों से लड़ना होगा, पर उसे उन्हीं के साथ गठबंधन बनाना पड़ता है. कांग्रेस के इस पराभव का सबसे अच्छा उदाहरण उत्तर प्रदेश है, जहां उसने समाजवादी पार्टी के सामने 1991 में घुटने टेके थे और आजतक वह घुटनों पर ही है. कांग्रेस पार्टी के नेता मानते रहे कि लोकसभा चुनाव में सपा को दलित वोट उनकी पार्टी के साथ गठबंधन के कारण मिले, जबकि सपा समझती है कि अखिलेश यादव के ‘पीडीए’ (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) समीकरण ने कांग्रेस की सीटें भी बढ़ा दीं. सच यह है कि उत्तर प्रदेश और बिहार की ओबीसी राजनीति ने कांग्रेस के आधार को समेट लिया, जिसमें मुसलमान भी शामिल हैं.
नौ सीटों पर उपचुनाव के नतीजे घोषित होने के बाद कांग्रेस ने दलितों, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच व्यापक संपर्क कार्यक्रम शुरू करने और अपने अग्रणी संगठनों में पुनर्गठन की घोषणा की है. पार्टी के सांसद और युवा दलित चेहरे तनुज पुनिया को पार्टी की अनुसूचित जाति शाखा का अध्यक्ष नियुक्त करके इस कवायद की शुरुआत की है. समाजवादी पार्टी ने जहां दावा किया है कि लोकसभा चुनाव के दौरान ‘पीडीए’ की वजह से उसे दलितों के साथ पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का भी समर्थन मिला, वहीं कांग्रेस और सपा दोनों अब यह अपने-अपने तरीके से तय करेंगे कि यह फार्मूला क्या 2027 के विधानसभा चुनाव में भी कारगर होगा?
भीतर-भीतर कांग्रेस मानती है कि समाजवादी पार्टी ने गठबंधन धर्म का पालन नहीं किया. वहीं औपचारिक वक्तव्यों में कहती रही है. कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व और बूथ स्तर पर कार्यकर्ताओं के एकजुट होने से समाजवादी पार्टी की ताकत कई गुना बढ़ गई है. नौ सीटों के इस उपचुनाव के बाद कांग्रेस और सपा दोनों को 2027 के विधानसभा चुनाव की रणनीतियों पर एकबार फिर से विचार करना होगा. यह विचार पीडीए के समीकरण को लेकर भी होगा.
Tags: Akhilesh yadav, By election, Rahul gandhiFIRST PUBLISHED : November 24, 2024, 11:53 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed