मिलिए भारत के इकलौते ‘टैक्सीडर्मिस्ट’ से अपने फ्रिज में खाना नहीं… रखते हैं मृत जानवर
मिलिए भारत के इकलौते ‘टैक्सीडर्मिस्ट’ से अपने फ्रिज में खाना नहीं… रखते हैं मृत जानवर
2003 में की थी ‘टैक्सीडर्मि’ की शुरुआत. अपने घर के फ्रिज में रखते थे मृत्य पशु पक्षी... ‘टैक्सीडर्मि’ उनका पेशा नहीं है केवल शौक के लिए करते हैं अभ्यास. अगले वर्ष पूर्ण होंगे पूरे 20 साल.
मनुष्य अगर ठान ले तो फिर क्या नहीं कर सकता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक ऐसा व्यक्ति भी है जो मृत पशु-पक्षियों को एकदम जीवित दिखने वाला बना सकता है. इनके द्वारा बनाए गए सृजन को देख कर कोई भी भ्रमित हो सकता है. जिस व्यक्ति की हम बात कर रहे हैं वह हैं ‘टैक्सीडर्मि’ के महारथी संतोष गायकवाड़. न्यूज 18 ने बातचीत की देश के एक लौते टैक्सीडर्मिस्ट संतोष गायकवाड़ से और जाना विस्तार से इस कला के बारे में.
मुंबई के रहने वाले संतोष गायकवाड़ पेशे से तो एक प्रोफेसर हैं. वह मुंबई के ही एक कॉलेज में अनाटोमी (anatomy) पढ़ाते हैं. उन्होंने पशुचिकित्सा में अपनी बैच्लर डिग्री हासिल की है जिसके बाद उन्होंने अनाटोमी में मास्टर्स भी किया है.
हम से बात करते हुए वह बताते हैं कि कैसे शुरू हुआ उनका टैक्सीडर्मिस्ट बनने का सफ़र और कैसे इस विषय में विकसित हुई उनकी रुचि.
दरअसल, वह कहते हैं कि उनकी इस कला में दिलचस्पी की कहानी शुरू होती है साल 2003 से, जब वह छत्रपति शिवाजी महाराज वास्तु संग्रहालय घूमने गए थे. वहां प्रदर्शनी के लिए लगाए गए पशु-पक्षी को देख कर वह हैरान थे कि इन पशु-पक्षी कि इतनी उत्तम अनाटोमी कैसे बनाई गई. इसके बाद से ही उनकी इस विषय में दिलचस्पी उत्पन्न होने लगी और वह लग गए रिसर्च करने और इसके बारे में पूरी तरह से जानकारी एकत्रित करने में.
वह कहते हैं कि उनको उनकी रिसर्च के वक़्त ही पता चला कि इस कला को ‘टैक्सीडर्मि’ कहते हैं और उस वक़्त देश में यह कला प्रतिबंधित थी.
दरअसल, राजा- महाराजा के ज़माने से प्रचलित इस कला को सरकार ने जंगली जानवरों के बढ़ते शिकार के मद्देनज़र प्रतिबंधित कर दिया था. लेकिन 1972 के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के लागू होने बाद जंगली जानवरों के शिकार में भारी गिरावट दर्ज हुई थी. संतोष कहते हैं कि इस बात को देखते हुए उन्होंने इस प्राचीन कला का प्रयोग मृत जानवरों के संरक्षण हेतु करने के बारे में सोचा.
उनके मुताबिक मृत जानवरों को जलाने से उनकी प्राकृतिक सुंदरता नष्ट हो जाती है और साथ ही उनका मानना है कि आने वाले वक़्त में यह सारे जानवर लुप्त हो जाएंगे, इसलिए वह इस कला का प्रयोग करके इन जानवरों को बचाना चाहते हैं. उनके मुताबिक इस का प्रयोग आने वाली पीढ़ी की पढ़ाई के लिए भी किया जा सकता है.
जानिए क्या है ‘टैक्सीडर्मी’?
‘टैक्सीडर्मि’ एक ऐसी कला है जिसके माध्यम से मृत्य पशु-पक्षी के शरीर को सालों तक जीवित रखा जा सकता है.
इस कला के मुख्य रूप से पांच चरण होते हैं – स्किनिंग, फ्लेशिंग, वायरिंग, माउंटिंग और ग्रूमिंग.
इन पांच चरणों के परिणाम स्वरूप एकदम जीवित दिखने वाले पशु-पक्षी प्राप्त होते हैं.
कैसे सीखी यह कला ?
संतोष गाइकवाड़ बताते हैं कि उन्होंने इस कला की कोई प्रोफेशनल ट्रैनिंग नहीं ली है क्योंकि जब इस कला में उनकी रुचि उत्पन्न हुई थी, उस वक़्त देश में यह कला प्रतिबंधित थी. इस कारण उन्हें इसे सीखने का अवसर प्राप्त नहीं हो पाया.
वह कहते हैं कि उन्होंने जो भी सीखा है खुद से ही सीखा है. उनके मुताबिक जब उन्होंने इस कला को सीखने की शुरुआत की थी तो उनसे काफ़ी सारी गलतियां होती थीं.
अगर वह निरंतर अभ्यास के बाद एक चरण को कुशलतापूर्वक पार कर पाते थे तो दूसरे चरण में फंस जाते और उनकी कई दिनों की मेहनत बर्बाद हो जाती. मगर वह कहते हैं ना कि अभ्यास ही मनुष्य को कुशल बनाता है. संतोष के साथ भी यही हुआ, वह मेहनत, समर्पण और निश्चय के साथ निरंतर अभ्यास करते रहे, और आज उनको ‘टैक्सीडर्मि’ में महारत हासिल है.
उनके मुताबिक ‘टैक्सीडर्मि’ एक मुश्किल कला है, हालांकि उन्होंने अनाटोमी में मास्टर की पढ़ाई की थी इसलिए उन्हें इसे सीखने में ज़्यादा चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ा.
लगता है बहुत समय –
संतोष बताते हैं कि उन्हें एक सृजन की रचना करने में छह से सात महीने का समय लगता है. इतना अधिक समय लगने का एक मुख्य कारण यह है कि ‘टैक्सीडर्मि’ उनका पेशा नहीं बल्कि शौक है. वह बतौर प्रोफेसर काम करते हैं जो कि उनकी आय का मुख्य स्रोत है.
नौकरी के साथ- साथ ‘टैक्सीडर्मि’ जारी रखना उनके लिए आसान नहीं है पर अपने शौक के चलते वह नौकरी के साथ- साथ ही अपनी कला की भी साधना जारी रखते हैं.
उनके मुताबिक अगर कोई व्यक्ति अपना पूरा समय ‘टैक्सीडर्मि’ को समर्पित करता है तो एक सृजन की रचना में औसतन पच्चीस से तीस दिन ही लगते हैं.
कैसे मिली प्रतिबंधित कला को फिर से शुरू करने की अनुमति?
वह बताते हैं कि वह जिस कॉलेज में बतौर प्रोफेसर पढ़ाते हैं, उस कॉलेज के एसोशियेट डीन ने महाराष्ट्र वन विभाग से उनकी कला को वैधता दिलाने के लिए संपर्क किया था.
लेकिन उनको एक बार में पूर्ण रूप से अनुमति नहीं दी गई थी. हर एक जानवर की ‘टैक्सीडर्मि’ से पहले उन्हें सरकारी अनुमति लेनी पड़ती थी. पर उनके सृजन को देखते हुए महाराष्ट्र वन विभाग ने संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान में ‘टैक्सीडर्मि’ केंद्र की स्थापना की. यह केंद्र पूरे देश का एक लौता ‘टैक्सीडर्मि’ केंद्र है. बाकी राज्य भी यहां मृत जानवरों को ‘टैक्सीडर्मि’ के लिए भेजते हैं और यहां बनाए गए सृजन को अपने राज्य ले जाते हैं.
‘टैक्सीडर्मि’ केंद्र की स्थापना से मिली मदद–
वह कहते हैं कि महाराष्ट्र सरकार द्वारा स्थापित ‘टैक्सीडर्मि’ केंद्र से उनको काफ़ी मदद मिली. पहले वह ‘टैक्सीडर्मि’ का सारा काम अपने ही घर पर करते थे जिससे आस-पास के लोगों और घर वालों को असुविधा होती थी. कई बार मृत जानवरों को देख कर लोग उनसे क्रोधित हो जाते थे. यहां तक की कई बार वह मृत जानवरों को अपने घर के फ्रिज में ही रखते थे जिससे परिवार वालों को आपत्ति होती थी. इसके साथ जानवरों को लाने से लेकर आखिरी चरण तक जो भी खर्च होता था वह सारा खर्च उन्हें स्वयं ही उठाना पड़ता था।
‘टैक्सीडर्मि’ केंद्र की स्थापना के साथ ही उनकी सारी परेशानियों का निवारण हो गया और इसके साथ ही अब सरकार द्वारा उन्हें मानदेय धनराशि भी मुहैया कराई जाती है.
अगले वर्ष पूरे बीस साल हो जाएंगे उन्हें बतौर टैक्सीडर्मिस्ट–
उन्होंने 2003 में इस सफ़र की शुरुआत की थी और अगले साल उनके इस सफ़र की बीसवीं वर्षगांठ है. इस अवसर पर वह कहते हैं कि यह हमेशा से उनका शौक रहा है और वह समय के अंत तक इस काम को जारी रखना चाहते हैं.
साथ ही वह कहते हैं कि अब अन्य युवा लोगों को भी इस कला को सीखना चाहिए ताकि कम से कम हम लुप्त होते जानवरों की यादें संजो कर आने वाली पीढ़ी को दे सकें.
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