क्या है मानगढ़ धाम आदिवासियों के किस संहार की कहानी कहता है
क्या है मानगढ़ धाम आदिवासियों के किस संहार की कहानी कहता है
राजस्थान के बांसवाड़ा में एक स्मारक है मानगढ़ धाम. जलियांवाला बाग से 06 साल पहले यहां अंग्रेजों ने 1500 भील आदिवासियों का कत्लेआम कर दिया था. उन्हीं की शहादत की याद में इसे बनाया गया था. लंबे समय से इसको राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने की मांग होती ऱही थी, जिसको अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां आकर मान लिया है.
हाइलाइट्सजलियांवाला बाग से 06 साल पहले मानगढ़ में हुआ था 1500 आदिवासियों का संहार अंग्रेज सेना और स्थानीय रजवाड़ों की कार्रवाई में हुआ था भील आदिवासियों का कत्लेआमअब तक मानगढ़ धाम को राष्ट्रीय धरोहर बनाने की मांग होती रही थी, अब पीएम ने इसे माना
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजस्थान के बांसवाड़ा में मानगढ़ धाम आदिवासी स्मारक को राष्ट्रीय घोषित किया है. क्या है ये मानगढ़ धाम, जो अंग्रेजों के हाथों जलियांवाला बाग से कहीं अधिक नृशंस संहार की कहानी कहता है. 17 नवंबर 1913 को राजस्थान गुजरात की सीमा पर बांसवाड़ा के मानगढ़ में अंग्रेजों ने करीब 1500 भील आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया था. लेकिन आमतौर पर इस शहादत को करीब विस्मृत ही कर दिया गया.
मानगढ़ पहाड़ी पर बना स्मारक इसी शहादत की कहानी कहता है. इसे मानगढ़ धाम के नाम से जानते हैं. इसे लगातार राष्ट्रीय धरोहर बनाने की मांग होती रही है, जिसे प्रधानमंत्री ने मान लिया है. इसे राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा देने की बात उन्होंने वहां अपने भाषण में की.
दरअसल, मानगढ़ गवाह है भील आदिवासियों के अदम्य साहस और एकता का, जिसकी वजह से अंग्रेजों को नाकों चने चबाने पड़े. ये एकजुटता भील आदिवासियों के नेता गोविंद गुरु की अगुवाई के कारण पैदा हुई थी. उनका जीवन भील समुदाय के लिए रहा. इस ऐतिहासिक विद्रोह में भीलों के निशाने पर केवल अंग्रेज नहीं थे बल्कि स्थानीय रजवाड़े भी थे, जो लगातार इन आदिवासियों पर जुल्म ढाह रहे थे.
बात तब की है जब 1857 के सैन्य विद्रोह को एक साल भी नहीं हुआ था. देश उथल-पुथल से गुजर रहा था. 1857 की क्रांति के एक साल बाद गोविंद गुरु का जन्म हुआ. युवा होने पर उन्होंने ये समझ लिया जब तक शोषित समुदायों के लोगों को साथ नहीं लाएंगे, तब तक कुछ नहीं होगा.
आदिवासियों को एकजुट करने लगे
वह लोगों को एकजुट करने लगे. बस्तियों में जाते. जागरुकता पैदा करते. साथ ही सामाजिक सुधार और चेतना का संदेश भी देते. उन्होंने स्कूल खोलने और बच्चों की शिक्षा के स्कूल खोलने की कोशिश की. साथ ही उनका विश्वास रजवाड़ाें द्वारा चलाई जाने वाली अदालतों में नहीं थे. गोविंद गुरु अपने लोगों को एक ही बात समझाते थे – ना तो जुल्म करो और ना इसे सहो. अपनी मिट्टी से प्यार करो.
कविताओं के जरिए जागरुकता फैलाने का काम
सामाजिक जागरुकता फैलाने के लिए उन्होंने कई कविताएं लिखीं. जिसे खुद गाते और समूह के साथ उन्हें गाया जाता. नतीजा ये हुआ कि आदिवासी एकजुट होने लगे. असर बढ़ने लगा. अब दक्षिणी राजस्थान, गुजरात और मालवा के आदिवासी संगठित होकर बड़ी जनशक्ति बन गए. जनाधार को बढ़ाने के बाद गोविंद गुरु ने वर्ष 1883 में “संप सभा” की स्थापना की. भील समुदाय की भाषा में संप का अर्थ होता है – भाईचारा, एकता और प्रेम. संप सभा का पहला अधिवेशन वर्ष 1903 में हुआ.
आदिवासियों की एकजुटता खतरे के तौर पर देखी जाने लगी
गोविंद गुरु राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश के आदिवासियों को शिक्षित बनाकर देश की मुख्य आवाज बनाना चाहते थे. एक ओर उनके नेतृत्व में आदिवासी जागरूक हो रहे थे तो दूसरी ओर देशी रजवाड़े व उनकी रहनुमा अंग्रेजी हुकूमत को लगने लगा कि अगर आदिवासी एकजुट होंगे तो ये किसी खतरे की तरह होगा.
बेगारी बंद कर दी, शराब पीना बंद कर दिया
लंबे समय से राजे-महाराजे भीलों और आदिवासियों से बेगारी कराते आए थे. वो अब भी ऐसा ही चाहते थे. जब उन्होंने ऐसा करने से मना किया तो राजे-महाराजे से लेकर अंग्रेज तक उनसे नाराज रहने लगे. गोविंद गुरु के कहने पर आदिवासियों ने शराब पीना बंद किया तो शराब कारोबारियों का धंधे पर असर पड़ने लगा. इससे अंग्रेजी हुकूमत को जो टैक्स के तौर पर आमदनी होती थी, वो बंद हो गई. आदिवासियों की बढ़ती जागरूकता देशी राजवाड़ों, अग्रेजों औऱ व्यापारियों सभी को नाखुश कर रही थी. सभी उनके खिलाफ होने लगे.
सभा करने गए तो वहां अंग्रेज सेना लेकर आ गए
7 दिसंबर 1908 को संप सभा का वार्षिक अधिवेशन बांसवाड़ा जिला मुख्यालय से सत्तर किलोमीटर दूर मानगढ़ में हुआ. इसमें हजारों लोग शामिल हुए. 1913 में गोविंद गुरु की अगुवाई में आदिवासी फिर राशन पानी लेकर वहां जुटे. इसे देखकर विरोधियों ने अफवाह फैला दी कि ये सभी विद्रोह करके रियासतों पर कब्जा करना चाहते हैं.
तब ये इलाका बंबई राज्य के अधीन था. बंबई राज्य का सेना अधिकारी अंग्रेजी सेना लेकर 10 नवंबर 1913 को मानगढ़ पहाड़ी के पास पहुंचा. सशस्त्र भीलों ने बलपूर्वक आयुक्त सहित सेना को वापस भेज दिया. सेना पहाड़ी से कुछ दूर पर ठहर गई. भीलों और अंग्रेजों के बीच कोई बातचीत नहीं होने की स्थिति बनती गई. अंग्रेजों ने तुरंत मेवाड़ छावनी से सेना बुलाई.
1500 आदिवासी मारे गए
सेना ने 17 नवंबर 1913 को मानगढ़ पहुंचते ही फायरिंग शुरू कर दी. आदिवासी मरने लगे. एक के बाद एक कुल 1500 आदिवासी मारे गए. गोविंद गुरु के पांव में गोली लगी. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. मुकदमा चला. फांसी की सजा सुनाई गई. बाद में फांसी को आजीवन कारावास में बदल दिया गया. अच्छे चाल-चलन के कारण सन 1923 में उन्हें रिहा कर दिया गया.
रिहा होने के बाद वे गुजरात के पंचमहल जिला के कंबोई गांव में रहने लगे. जिंदगी के अंतिम दिनों तक वह जन-कल्याण के काम में लगे रहे. 1931 में उनका निधन हो गया. उन 1500 आदिवासियों की शहादत की याद में मानगढ़ पहाड़ी पर पत्थरों से एक स्मारक बनवाया गया.
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Tags: Rajastahn, Scheduled TribeFIRST PUBLISHED : November 01, 2022, 14:16 IST