दास्तान-गो: अमजद खान को सिर्फ़ ‘गब्बर’ की तरह न देखें वे और भी बहुत कुछ हैं
दास्तान-गो: अमजद खान को सिर्फ़ ‘गब्बर’ की तरह न देखें वे और भी बहुत कुछ हैं
Daastaan-Go ; Amjad Khan other than Gabbar of Sholey ; मशहूर अदाकार अमजद खान की आज पुण्यतिथि है. मुंबई में 27 जुलाई 1992 काे उनका निधन हुआ था. उस वक्त उनकी उम्र महज 51साल थी. उनका जन्म 12 नवंबर 1940 को हुआ था. उनके पिता ज़कारिया खान उर्फ़ ‘जयंत’ भी हिन्दी फिल्मों के मशहूर अदाकार हुआ थे. वे पेशावर से आकर परिवार सहित मुंबई में आ बसे थे.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, हिन्दुस्तानी सिनेमा के एक बड़े फिल्मकार हुए हैं सत्यजीत रे. ज़्यादातर बंगाली फिल्में बनाते थे. लेकिन साल 1975-76 के आस-पास उन्होंने एक हिन्द़ी फिल्म बनाने का मंसूबा बांधा, ‘शतरंज के खिलाड़ी’. इस फ़िल्म में अवध के नवाब वाजिद अली शाह के किरदार के लिए वे अदद अदाकार ढूंढ रहे थे. उसी वक़्त 15 अगस्त 1975 को एक हिन्दी फिल्म आई, ‘शोले’. उसे देखने के बाद उनकी नज़र जिस कलाकार पर टिकी, वह जानते हैं कौन थे? ‘डाकू गब्बर सिंह’, यानी अमजद खान. कहते हैं, उनकी अदाकारी देखने के बाद सत्यजीत रे साहब ने पहली ही बार में तय कर लिया कि ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में वे अमजद खान को ही नवाब वाजिद अली शाह के किरदार के लिए लेंगे. जानने वालों ने उन्हें समझाया कि साहब, ये जोख़िम होगा. क्योंकि हिन्दी फिल्में ख़ास तौर पर, कुछ तय फॉर्मूलों पर चला करती हैं. इसीलिए फिल्म बनाने वाले अक्सर कलाकारों को उसी तरह के किरदारों में बार-बार आज़माते हैं, जिनमें देखने वाले उन्हें एक बार पसंद कर चुके हैं.
और ‘शोले’ में अमजद खान को ‘गब्बर सिंह’ के किरदार में किस हद तक पसंद किया गया, ये तो सब जानते ही हैं. लेकिन जनाब, सत्यजीत रे को इससे कोई फ़र्क न पड़ा. लिहाज़ा, अमजद खान से संपर्क किया गया. बताते हैं कि जैसे ही अमजद खान ने सुना कि सत्यजीत रे उन्हें अपनी फिल्म में लेना चाहते हैं, उन्होंने तुरंत ही ‘हां’ कर दी. क्योंकि कोई बिरला ही होता, जो उनके लिए मना करता. हालांकि एक दिक़्क़त थी कि अमजद खान के पास उस वक़्त शूटिंग के लिए कोई तारीख़ नहीं थी. सो, उन्होंने अपनी दिक़्क़त सत्यजीत रे साहब के साथ साझा की. उन्होंने भी ज़्यादा वक़्त न लिया यह कहने में कि ‘कोई बात नहीं, हम इंतिज़ार करेंगे’. और कहते हैं, जनाब पूरे तीन महीने सत्यजीत रे साहब ने अमजद खान की तारीख़ों के लिए इंतिज़ार किया. इसके बाद उनके हिस्से की शूटिंग शुरू हो सकी और साल 1977 में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ लोगों के सामने आई.
दिलचस्प बात ये कि इस फिल्म में ‘शोले’ की तरह ‘गब्बर’ यानी अमजद खान के मुकाबले में ‘ठाकुर’ मतलब संजीव कुमार ही थे. शतरंज के मुकाबलों में. संजीव कुमार ने इस फिल्म में मिर्ज़ा सज़्ज़ाद अली का किरदार किया था. लेकिन मजाल कि अमजद खान यहां भी उनके सामने किसी भी तरह से कमतर दिखाई देते. फिल्म जब आई तो किसी को एहसास तक न हुआ कि नवाब वाजिद अली शाह की सूरत में यह वही ‘गब्बर’ है, जो ‘शोले’ में तंबाकू रगड़ते हुए डायलॉग बोलते नज़र आया था, ‘यहां से 50-50 कोस दूर गांव में, जब बच्चा रात को रोता है, तो मां कहती है बेटे सो जा. सो जा, नहीं तो गब्बर सिंह आ जाएगा’. या, ‘कितने आदमी थे. सरदार- दो आदमी थे. हूम्म, दो आदमी. सुअर के बच्चो. वो दो थे और तुम तीन. फिर भी वापस आ गए’. या फिर संजीव कुमार के ही सामने, ‘बहुत जान है तेरे हाथों में. ये हाथ हमको दे दे ठाकुर. ये हाथ हमको दे ठाकुर.’
ऐसे कमाल अदाकार हुए अमजद खान, जिनकी बा-कमाल अदाकारी सिर्फ़ इन दो फिल्मों या किरदारों तक नहीं ठहरी. जनाब, फिल्मों पर लिखने वाले एक बड़े ख़बरनवीस हुए हैं अली पीटर जॉन. उन्होंने 14-15 किताबें लिखी हैं फिल्मी मसलों, वाक़ि’ओं पर. इसके अलावा मुख़्तलिफ़ (विभिन्न) प्लेटफॉर्म्स पर भी वे लगातार लिखते रहे हैं. उन्हीं ने ये ‘शतरंज के खिलाड़ी’ वाला वाक़ि’आ लोगों की जानकारी में लाया था. वे लिखते हैं, ‘अमजद खान इस किस्म के शायद इकलौते कलाकार हुए, जो किसी वक़्त तो एक दिन में नौ-नौ फिल्मों की शूटिंग किया करते थे. और सभी फिल्मों में उनके किरदार अलग होते थे. मेरा ख़्याल है कि यह एक रिकॉर्ड होना चाहिए. क्योंकि दुनिया में शायद ही कोई अदाकार ऐसा कोई कार-नामा कर सका हो’. जनाब, कुछ ज़्यादा नहीं कहा है अली पीटर ने, अमजद खान के बारे में. कोई चाहे तो ख़ुद उनकी फिल्में देखकर इसका तजरबा कर सकता है.
जनाब, अमजद खान ने ख़ुद एक इंटरव्यू के दौरान कहा था, ‘मैं ख़ुश-क़िस्मत हूं कि मुझे इस तरह के डायरेक्टर्स और राइटर्स मिले, जिन्होंने मुझे एक तरह के किरदार में फंसने से बचा लिया. उन्होंने मेरे भीतर के अदाकार को परखा और ऐसे तमाम किरदार मेरे हवाले किए, जिन्हें देखकर देखने वाले अक्सर चौंक जाया करते हैं’. उनकी कुछ फिल्मों की मिसालें लेते हैं. मसलन, ‘क़ुर्बानी’, साल 1980 में आई थी. इसमें भी अमजद खान गोलियां चलाते दिखते हैं. लेकिन एक हास्य कलाकार ‘इंस्पेक्टर अमजद खान’ की सूरत में. इसी तरह ‘लव स्टोरी’ (1981) में हवलदार शेर सिंह बनकर ‘लुड़की, लुड़का’ बोल-बोलकर हंसाते हैं. ‘पाताल भैरवी’ (1985) जैसी फिल्मों में भी उन्होंने ऐसे ही किरदार किए. जबकि ‘दादा’ (1979), ‘प्यारा दुश्मन’ (1980), ‘कमांडर’ (1981) जैसी फिल्मों में उन्होंने जो मुख़्तलिफ़ किरदार किए, वे मुख्य अदाकारों से भी कहीं ज़्यादा चर्चित हुए.
और ‘याराना’ (1981) फिल्म. उसे कोई कैसे भूल सकता है. इसमें ‘शोले’ के जय यानी कि अमिताभ बच्चन के पक्के दोस्त बने हैं ‘गब्बर’ अमजद खान. फिल्म में ‘बिशन’ नाम है उनका, जो अपने दोस्त किशन (अमिताभ) के लिए अपना सब दांव पर लगा देते हैं. ऐसे ‘यारों के यार’ हुए अमजद खान. सिर्फ़ फिल्मों में नहीं, असल ज़िंदगी में भी. और दिलचस्प बात ये कि असल ज़िंदगी में ‘शोले’ के ‘जय’ और ‘गब्बर’ यानी अमिताभ बच्चन और अमजद खान की दोस्ती ऐसी मशहूर हुई कि उन्हें फिल्मों में साथ लेने के लिए फिल्मकार और डायरेक्टर लाइन लगाकर सही वक़्त का इंतिज़ार किया करते थे. मिसाल के तौर पर जब इन दोनों को साथ लेकर ‘याराना’ बनाने का फ़ैसला हुआ तो इनके पास वक़्त नहीं था. लिहाज़ा डायरेक्टर राकेश कुमार और प्रोड्यूसर एमए नडियाडवाला ने सुबह सात से नौ बजे की शिफ्ट में फिल्म की शूटिंग पूरी की. बिना किसी ए’तिराज़ के.
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* दास्तान-गो : ‘बहुत याराना लगता है’… जय (अमिताभ बच्चन)-गब्बर (अमजद खान) का!
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Tags: Amjad Khan, Death anniversary special, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : July 27, 2022, 16:02 IST