सेना को स्विस महिला ने दी ऐसी सौगात पाने वाले फौजी पर पूरा देश करता है नाज

Kargil Vijay Diwas 2024: भारतीय सेना के लिए पदक तैयार कर रहे तत्‍कालीन मेजर जनरल हीरा लाल अट्टल को सावित्री बाई खानोलकर की ड्राइंग इतनी पसंद आई कि उन्‍होंने परमवीर चक्र सहित सभी पदकों को डिजाइन करने की जिम्‍मेदारी उन्‍हें सौंप दीं. कौन हैं इवा योन्‍ने लिंडा से सावित्री बाई खानोलकर बनने वाली यह महिला, जानने के लिए पढ़ें आगे...

सेना को स्विस महिला ने दी ऐसी सौगात पाने वाले फौजी पर पूरा देश करता है नाज
25 years of Kargil War: क्‍या आपको पता है कि भारतीय सेना में बहादुरी के लिए दिए जाने वाले परमवीर चक्र, अशोक चक्र, महावीर चक्र, कीर्ति चक्र, वीर चक्र और शौर्य चक्र का डिजाइन किसने तैयार किया है. आपको यह जानकार हैरानी होगी कि भारतीय सेना में वीरता के प्रतीक के तौर पर दिए जाने वाले सभी पदक स्विटजरजैंड मूल की महिला इवा योन्‍ने लिंडा ने तैयार किया है. हालांकि यह बात दीगर है कि जिस समय उन्‍होंने इन पदकों का डिजाइन तैयार गया था, उस समय वह हिंदू धर्म स्‍वीकार कर चुकी थीं और उनका नाम इवा योन्‍ने लिंडा से बदलकर सावित्री बाई खानोलकर हो चुका था. आपको यह भी बता दें कि भारतीय सेना के इन पदकों के साथ-साथ सवित्री बाई खानोलकर ने जनरल सर्विस मेडल 1947 को भी डिजाइन किया था. यह पदक 1965 तक ही प्रदान किया जाता था. चलिए अब आपको बताते हैं, शादी से पहले की इवा योन्ने लिंडा माडे-डे-मारोज़ और शादी के बाद की सावित्री बाई खानोलकर की पूरी कहानी. साथ भी आपको यह भी बताते हैं कि उन्‍होंने हिंदू धर्म क्‍यो स्‍वीकार किया और भारतीय सेना में वीरता के प्रतीक के तौर पर दिए जाने वाले पदकों को डिजाइन करने का अवसर उनको किस प्रकार मिला. इवा का भारतीय संस्‍कृति से कुछ यूं हुआ परिचय स्विटजरलैंड के न्‍यूचैटेल शहर में 20 जुलाई 1913 को जन्‍मी इवा योन्ने लिंडा माडे-डे-मारोज़ के पिता आंद्रे डी मैडे मूल रूप से हंगरी और मां मार्टे हेंट्जेल रूसी मूल की नागरिक थी. इवा के जन्‍म के साथ उनकी मां का निधन हो गया था, जिसके बाद उनका पालन पोषण उनके पिता ने ही किया था. चूंकि इवा के पिता जिनेवा यूनिवर्सिटी में समाजशास्‍त्र के प्रोफेसर और लीग ऑफ़ नेशन्स में पुस्तकालयाध्यक्ष भी थे. चूंकि स्‍कूल से आने के बाद इवा अक्‍सर अपने पिता के साथ लाइब्रेरी में ही रहती थीं, लिहाजा समय बिताने के लिए वह अपना ज्‍यादातर समय किताबों के बीच ही गुजारती थी. एक दिन लाइब्रेरी में किताब खोजते हुए उनके हाथ भारतीय संस्‍कृति और पौराणिक इतिहास से जुड़ी एक पुस्‍तक लग गई. इस किताब को पढ़ने के बाद इवा का मन भारतीय संस्‍कृति के प्रति इस कदर आकर्षित हुआ कि उन्‍होंने इस लाइब्रेरी में भारतीय संस्‍कृति से जुड़ी सभी किताबों को एक-एक कर पढ़ डाला. यह भी पढ़ें: 17,995 फीट की ऊंचाई पर बैठा था दुश्‍मन, MMG के सीधे निशाने पर थे भारतीय जांबाज, 24 मई को हुआ बड़ा फैसला, फिर.. सियाचिन ग्‍लेशियर और लेह-लद्दाख को हथियाने के इरादे से पाकिस्‍तानी सेना ने घुसपैठियों के भेष में मस्‍कोह से बटालिक सेक्‍टर के बीच अपनी बिसात बिछाई थी. दुश्‍मन का मंसूबा था कि वह नेशनल हाईवे-1 को अपने कब्‍जे में लेकर इस इलाके को शेष भारत से काट दे. लेकिन… कारगिल युद्ध की पूरी कहानी और कब क्‍या हुआ, जानने के लिए क्लिक करें. रिवियेरा समुद्र तट पर हुई एक मुलाकात और… एक दिन रिवियेरा समुद्र तट पर अपने पिता के साथ टहल रही इवा की मुलाकात ब्रिटेन के सेंडहर्स्‍ट मिलिट्री कॉलेज में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों के एक समूह से हुई. भारतीय छात्रों के इस समूह में विक्रम खानोलकर भी शामिल थे. इवा और विक्रम के बीच भारतीय संस्‍कृति को लेकर एक लंबी चर्चा हुई. इस चर्चा के बाद इवा ने विक्रम का पता लिया और वहां से चली गईं.  इसके बाद, इवा और विक्रम के बीच भारतीय संस्‍कृति को लेकर पत्राचार होने लगा. धीरे-धीरे इवा और विक्रम के बीच अच्‍छी दोस्‍ती हो गई. कुछ ही समय में इस दोस्‍ती ने प्रेम का रूप ले लिया. अब इवा और विक्रम एक दूसरे में अपना जीवन साथी तलाशने लगे. वहीं, कुछ समय के बाद विक्रम अपनी पढ़ाई पूरी कर भारत वापस आ गए. लेकिन, उनके और इवा के बीच लगातार पत्राचार चलता रहा. स्‍वदेश वापसी के बाद विक्रम ने भारतीय सेना ज्‍वाइन कर ली और वह 5/11सिख बटालियन का हिस्‍सा बन गए. विक्रम खानोलकर को पहली पोस्टिंग औरंगाबाद में मिली. यह भी पढ़ें: कारगिल के वो 63 परम-महा-वीर, हर दिन लिखी वीरता की एक नई इबारत, कुचला दुश्‍मन का गुरूर… कारगिल युद्ध में वीरता के लिए सबसे अधिक पदक पाने वालों में भारतीय सेना की कश्‍मीर राइफल्‍स और राजपूताना राइफल्‍स के जांबाज शामिल हैं. कारगिल युद्ध में जांबाजी के लिए भारतीय सेना के किस रेजिमेंट के किस अधिकारी को मिला कौन सा पदक, जानने के लिए क्लिक करें. विक्रम से शादी के लिए इवा ने अपना हिंदू धर्म अब तक इवा ने विक्रम से शादी करने का पक्‍का मन बना लिया था. मन में शादी का इरादा लेकर जल्‍द ही इवा भारत आ गई और विक्रम से अपने दिल की बात कह डाली. विक्रम भी यही चाहते थे, लेकिन मराठी संस्‍कृति को मानने वाले उनके परिजन इस रिश्‍ते के लिए तैयार नहीं थे. कुछ दिन चली मान मनौव्‍ल के बाद आखिरकार विक्रम के परिजन मान गए और उन्‍होंने इवा और विक्रम की शादी के हामी भर दी. 1932 में विक्रम और इवा की शादी मराठी रीति रिवाज से हो गई. शादी के बाद इवा ने हिंदू धर्म अपना लिया और वह इवा से सावित्री बाई खानोलकर बन गई. इवा ने सावित्री नाम के साथ पूरी रतह भारतीय संस्‍कृति, मराठी पहवाना और खान-पान को भी स्‍वीकार लिया था. उन्‍होंने पश्चिमी परिधान छोड़कर मराठी संस्‍कृति से जुड़ी नौ गज की साड़ी पहनना शुरू कर दिया था. कुछ ही समय में वह मांसाहार भोजन छोड़कर पूरी तरह से शाकाहारी बन गईं. इनता ही नहीं, जल्‍द ही सावित्री ने मराठी और हिंदी भाषा बोलना भी सीख लिया था. यह भी पढ़ें: कारगिल युद्ध की वो 21 तारीखें, जिसने बदल दिया ऑपरेशन विजय का पूरा रुख, जमींदोज हुए पाक के नापाक मंसूबे… Kargil Vijay Diwas 2024: लगभग असंभव दिख रही लड़ाई को भारतीय सेना के जांबाजों ने अपने पराक्रम और युद्ध कौशल से विजय में तब्‍दील कर दिया. कारगिल युद्ध के दौरान वह 21 तारीखें बेहद खास रहीं, जो युद्ध के बदलते रुख की गवाह बनी. कौन सी थी वह तारीखें और उन तारीखों पर क्‍या हुआ, जानने के लिए क्लिक करें. सावित्री ने पटना में ली वेद-उपनिषद की शिक्षा कैप्‍टन से मेजर के पद पर पदोन्‍नति के बाद विक्रम खानोलकर की तैनाती पटना में हो गई. पटना पहुंचने के बाद सावित्री से जुड़ गईं और वहां से उन्‍होंने वेद, उपनिषद, हिंदू धर्म और संस्‍कृत नाटक सहित अन्‍य भारतीय ग्रंथों का अध्‍ययन किया. इन विषयों में परांगत होने के बाद सावित्री स्‍वामी रामकृष्‍ण मिशन से जुड़ गई और वहां पर भारतीय संस्‍कृति पर प्रवचन देने लगीं. इस बीच, सावित्री ने धार्मिक ज्ञान के साथ-साथ चित्रकला और स्‍केचिंग की विधा में भी खुद को पारांगत कर लिया था. तमाम विधाओं में पारांगत होने के बाद सावित्री ने ट्स ऑफ़ महाराष्ट्र और संस्कृत डिक्शनरी ऑफ़ नेम्स नामक दो पुस्तकों का लेखन भी किया. चंद वर्षों के अंतराल में सावित्री पूरी तरह से भारतीय संस्‍कृति में ढल चुकी थी. उनसे मिलकर यह कहना अब बेहद मुश्किल हो गया था कि उनका जन्‍म और परवरिश स्विटजरलैंड में हुई थी. यह भी पढ़ें: दुश्‍मन तक पहुंचने का था एक ही रास्‍ता, जगह-जगह पर बिछे थे लैंड माइन, ऊपर से हो रही थी गोलियों की बौछार, लेकिन.. तोलोलिंग पर दो हमने अब तक विफल हो चुके थे. देश के लिए प्राणों का बलिदान देने वाले मेजर विकास अधिकारी का शव अभी तक तोलोलिंग की पहाडि़यों पर ही पड़ा हुआ था. सब जीत की संभावना सिर्फ 1 फीसदी बता रहे थे. ऐसे में, तोलोलिंग की लड़ाई में क्‍या हुआ, तोलोलिंग की कहानी एक योद्धा की जुबानी जानने के लिए क्लिक करें. कुछ इस तरह शुरू हुआ पदकों के डिजाइन का काम 1947 के हुए भारत-पाकिस्‍तान युद्ध बहादुरी का अभूतपूर्व परिचय देने वाले जवानों-अधिकारियों का सम्‍मान करने के लिए भारतीय सेना नए पदक तैयार कर रही थी. पदक तैयार करने की जिम्‍मेदारी भारतीय सेना के तत्‍कालीन मेजर जनरल हीरा लाल अट्टल को सौंपी गई थी. मेजर जनरल अट्टल ने अब तक पदकों के नाम का तो चयन कर लिया था, लेकिन उनके डिजाइन का काम पूरा नहीं हुआ था. एक दिन, संयोगवश मेजर जनरल हीरा लाल अट्टल की मुलाकात सावित्री से हो गई. सावित्री की भारतीय संस्‍कृति को लेकर समझ और पौराणिक प्रसंगों के ज्ञान ने मेजर जनरल हीरा लाल अट्टल को आश्‍चर्यचकित कर दिया था. वहीं, सावित्री की चित्रकारी औ स्‍केचिंग देखने के बाद मेजर जनरल हीरा लाल अट्टल ने मन ही मन तय कर लिया था कि पदकों के डिजाइन का काम वह सावित्री से ही कराएंगे. कुछ इस तरह तैयार हुए भारतीय सेना के सभी पदक कुछ दिनों के इंतजार के बाद मेजर जनरल अट्टल ने पदक की डिजाइन तैयार करने का प्रस्‍ताव सावित्री बाई के सामने रख दिया. जिसके सावित्री बाई ने सहर्ष स्‍वीकार कर लिया. वीरता के लिए भारतीय सेना के सर्वोच्‍च सम्‍मान परमवीर चक्र के लिए कांस्‍य धातु से बनी 3.5 व्‍यास की एक गोलकार कृति तैयार की गई. इस कृति में भगवान इंद्र के शस्‍त्र वज्र और महर्षि दधीचि के त्‍याग को शामिल किया गया. इसके अलावा, वज्र की चार चिन्‍हों को परमवीर चक्र की चारों दिशाओं के शामिल किया गया. पदक में एक तरफ बीच में राष्‍ट्रीय चक्र अशोक को शामिल किया गया और दूसरी ओर कमल के फूल को जगह दी गई. पदक में हिंदी और अंग्रेजी भाषा में परमवीर चक्र लिया गया. परमवीर चक्र की ही तरह सावित्री बाई ने अशोक चक्र, महावीर चक्र, कीर्ति चक्र, वीर चक्र और शौर्य चक्र का डिजाइन भी तैयार किया. और फिर अध्‍यात्‍म से जुड़ गईं सावित्री बाई मेजर जनरल विक्रम खानोलकर की 1952 में मृत्‍यु हो गई, जिसके बाद सावित्री बाई ने अपना जीवन अध्‍यात्‍म को समर्पित कर दिया. इसके बाद वह दार्जिलिंग स्थिति रामकृष्‍ण मिशन के जुड़े एक आश्रम में चली गईं. उन्‍होंने अपने जीवन का आखिरी समय अपनी बेटी मृणालिनी के साथ गुजारा. 26 नवंबर 1990 में सावित्री बाई खानोलकर का निधन हो गया. Tags: Kargil day, Kargil warFIRST PUBLISHED : July 25, 2024, 16:34 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
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