एक के सिर पर दूसरा एक हाथ के सहारे हो जाता है खड़ा मिलिए बेलेंसिंग ब्रदर्स से
एक के सिर पर दूसरा एक हाथ के सहारे हो जाता है खड़ा मिलिए बेलेंसिंग ब्रदर्स से
पिछले दस सालों से कर रहे हैं ऐक्रबैटिक जिम्नैस्टिक. राष्ट्रीय स्तर पर भी जीते हैं कई सारे मेडल, पर सरकार ने नहीं की कोई मदद. इंडिया गोट टैलेंट और हुनरबाज़ से मिली पहचान, अब मिलते हैं कई सारे कॉर्पोरेट इवेंट्स.
‘एक्रोबैटिक जिम्नास्टिक’ को देश भर में पहचान दिलाने निकले हैं सिरसा (हरियाणा) के दो भाई राहुल सिंह और मुकेश सिंह. इन्हें आज पूरा देश ‘‘बैलेंसिंग ब्रदर्स’ के नाम से भी जानता है. न्यूज18 ने बात की इंडिया के इन ‘‘बैलेंसिंग ब्रदर्स’ से और जानी उनके इस ‘बैलेंस’ के सफ़र के पीछे की कहानी.
राहुल बताते हैं कि उन्हें बचपन से ही खेल कूद का बहुत शौक रहा है. उन्होंने हिसार में काफ़ी छोटी उम्र से ही फुटबॉल की ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी थी. दरअसल, पहले उनका परिवार हिसार में बसा था पर पिता के ट्रांसफर के चलते वह सपरिवार सिरसा आ गए. सिरसा आने के बाद साधन के अभाव के चलते उनकी फुटबॉल ट्रेनिंग पर विराम लग गया. सिरसा में एक भी स्टेडियम में फुटबॉल के उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था ना होने के कारण उन्हें फुटबॉल छोड़ना पड़ा. खेल कूद में अत्यंत रुचि के चलते वह जुट गए अलग-अलग प्रशिक्षण केंद्रों में जाकर वहां सिखाए जाने वाले खेलों के बारे में पता लगाने में.
इस बात से अनजान की शायद उनकी यह खोज जल्द ही उनके जीवन को एक नया रुख देने वाली थी, वह पहुंचे सिरसा के दलबीर सिंह स्टेडियम. यहां उनका परिचय हुआ जिम्नास्टिक से. स्टेडियम में कुछ जिम्नास्ट को प्रशिक्षण लेते देख उनकी इसमें रुचि जागी और फिर शुरुआत हुई उनके बैलेंस के सफ़र की. राहुल बताते हैं कि इससे पहले उन्होंने कभी जिम्नास्टिक को इतने करीब से नहीं देखा था और जैसे-जैसे वक़्त बीतता गया उनकी इसमें रुचि बढ़ने लगी. उनके मुताबिक जिम्नास्टिक एक काफ़ी मुश्किल खेल है और इसके लिए सबसे जरूरी है शरीर का लचीला होना.
राहुल पिछले दस सालों से जिम्नास्टिक कर रहे हैं. उन्होंने हमेशा अपनी पढ़ाई के साथ साथ ही जिम्नास्टिक किया. वह बाहर कई सारे शोज भी करते हैं और उसी के साथ उन्होंने अपनी बीए की पढ़ाई पूरी की. इसके बाद उन्होंने बीपीएड किया और फिर जिम्नास्टिक में डिप्लोमा भी पूरा किया. अब वह एक प्रमाणित ट्रेनर भी हैं.
वह बताते हैं कि उन्हें देखकर उनके छोटे भाई मुकेश ने भी जिम्नास्टिक सीखने का फैसला किया और फिर वह भी दलबीर सिंह स्टेडियम में उनके साथ जिम्नास्टिक सीखने लगे. ‘एक्रोबैटिक जिम्नास्टिक’ के हर स्टंट को एक जोड़ी में करना होता है और संयोग से राहुल के जोड़ीदार उनके भाई मुकेश थे. उन दोनों ने जब से एक साथ स्टंट करना शुरू किया उसके बाद से हमेशा ही वह दोनों केवल एक दूसरे के साथ ही स्टंट करते हैं. हर इवेंट और हर प्रतियोगिता में दोनों एक साथ ही परफॉर्म करते हैं. मुकेश ने भी बीपीएड किया है और अभी उन्होंने भी प्रमाणित ट्रेनर बनने की परीक्षा दी है.
कोच को जाता है सारा श्रेय
उनके मुताबिक वह आज जो भी हासिल कर पाए हैं उसका श्रेय उनके कोच राधे श्याम को जाता है. उनकी बदौलत ही वह इतनी मुश्किलों के बावजूद इतनी दूर तक आ पाए.
शो से मिली पहचान
राहुल और मुकेश ‘इंडिया गॉट टैलेंट’ के अंतिम पड़ाव तक पहुंचे थे. हालांकि वह शो जीतने में सफल नहीं हुए थे पर इस शो के माध्यम से उन्होंने देश भर में अपनी पहचान बनाई. इसकी वजह से मिला उन्हें कई सारे कॉर्पोरेट इवेंट्स और शोज में परफॉर्म करने का मौका. इसके बाद इसी साल प्रसारित हुए शो ‘हुनरबाज़ – देश की शान’ में भी उन्होंने हिस्सा लिया था. इस शो में वह दोनों दूसरे पड़ाव तक ही पहुंच पाए थे .
‘एक्रोबैटिक जिम्नास्टिक’ में किया भारत का प्रतिनिधित्व
2008 में हुए ‘एक्रोबैटिक जिम्नास्टिक’ वर्ल्ड कप में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था.
कॉर्पोरेट शो और इवेंट बने कमाई का ज़रिया
वह बताते हैं कि टीवी पर प्रसारित हुए शोज में हिस्सा लेने के बाद उन्हें कई सारे कॉर्पोरेट शो और इवेंट के प्रस्ताव मिले. हर कॉर्पोरेट शो में परफॉर्म करने की उनकी फीस पचास हज़ार रुपये से शुरू होती है और फीस किए गए परफॉर्मेंस स्टंट के ऊपर निर्भर करती है. एक स्टंट तीन मिनट का होता है जिसे वह एंट्री कहते है, अगर एंट्री ज्यादा हुई तो उनकी फीस भी ज़्यादा होती है.
खोली खुद की अकादमी
वह बताते हैं कि सिरसा में पिछले साल उन दोनों ने अपनी खुद की अकादमी खोली है. इस अकादमी में अभी फ़िलहाल 35 बच्चे हैं, इन सभी बच्चों को यह दोनों खुद ही प्रशिक्षण देते हैं. और जब भी कभी इन्हें शो के लिए या किसी प्रतिस्पर्धा में भाग लेने बाहर जाना पड़ता है तो इसके लिए उनके पास एक सहायक है जो उनकी अनुपस्थिति में अकादमी का कार्यभार संभालता है. वह दोनों इस अकादमी के माध्यम से 30 से 40 हज़ार रुपये महीने के कमा लेते हैं.
परिवार ने हमेशा दिया साथ
वह बताते हैं कि उनके परिवार वालों ने हमेशा उन दोनों का साथ दिया और वह जो भी करना चाहते थे उन्हें करने दिया. उनकी बचपन से ही खेल कूद में रुचि को देखते हुए परिवार वालों ने उन्हें कभी पढ़ाई के लिए मजबूर नहीं किया.
सरकार ने कभी नहीं दिया साथ
उनके मुताबिक भारत में जिम्नास्टिक को बाकी खेलों की तुलना में बहुत कम तवज्जो दी जाती है. इस खेल और इनके खिलाड़ियों के लिए सरकार द्वारा कोई साधन और सुविधा उपलब्ध नहीं कराई जाती है. वह बताते हैं कि स्कूल नेशनल में सिल्वर और ब्रान्ज़ मेडल जीतने और सीनियर नेशनल में तीन गोल्ड मेडल जीतने के बावजूद उन्हें सरकार की तरफ़ से कोई स्कॉलरशिप और मान्यता नहीं मिली.
इसके अलावा जब भी वह किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में भाग लेने जाते हैं तो भी उन्हें सारी व्यवस्था स्वयं करनी पड़ती और सारा खर्च भी स्वयं ही उठाना पड़ता है. जिम्नास्ट के लिए कोई फिजियोथेरेपिस्ट की सुविधा भी उपलब्ध नहीं है. वह कहते हैं कि सारे खर्च वह लोग स्वयं उठाते हैं इसके बाद फिजियोथेरेपिस्ट का खर्च उठा पाना उनके लिए मुमकिन नहीं है.
कोरोना के दौरान गुज़रे बहुत ही बुरे वक़्त से
कोरोना के दौरान उनका काम पूरी तरह से ठप था. ना कोई शो प्रसारित हो रहे थे और ना ही कोई इवेंट्स हो रहे थे. लॉकडाउन खुलने के बाद भी इस इंडस्ट्री पर पूरी तरह तालाबंदी थी और अकादमी भी बंद थी जिसके कारण उन्हें आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा. वह बताते है कि बहुत सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था क्योंकि जिम्नास्टिक की डाइट भी काफ़ी अच्छी खासी होती है और अभ्यास के लिए भी काफ़ी पैसों की जरूरत होती है. इस दौरान उनके एक दोस्त नवीन ने उनकी बहुत सहायता की थी.
भविष्य की योजना
भविष्य के बारे में पूछने पर वह कहते हैं कि वह अमेरिका गॉट टैलेंट में हिस्सा लेना चाहते हैं. इसके अलावा वह अन्य अंतराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत का प्रतिनिधित्व करना चाहते हैं. और साथ ही अपनी अकादमी को बड़ा करना चाहते हैं. वह अन्य शहरों में भी यह अकादमी खोलना चाहते हैं ताकि जिम्नास्टिक के बारे में बच्चों को पता चले और उन्हें सीखने का मौका मिले.
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