साल 1820. लखनऊ से 150 किलोमीटर दूर फैजाबाद में एक गरीब सैयद परिवार के घर एक लड़की का जन्म हुआ, जो खुद को पैगंबर मोहम्मद का वंशज बताया था. परिवार वालों ने उस लड़की का नाम मुहम्मदी खानम रखा. बच्ची पर पैदा होते ही बिजली गिरी. जन्म देते वक्त मां गुजर गई. पिता फैजाबाद में छोटा-मोटा काम करते थे. पत्नी की मौत के बाद बेटी को लेकर लखनऊ आ गए और गुजारा करने लगे. मुहम्मदी 12 साल की थीं, तब उसके पिता भी गुजर गए. इसके बाद वह अनाथ हो गई. उस वक्त किसी को अंदाजा नहीं था कि ये अनाथ लड़की आगे चलकर अवध की बेगम बनेगी.
चाची ने कर दिया सौदा
मां-बाप की मौत के बाद मुहम्मदी खानम के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उसके चाचा पर आ गई. जो लखनऊ में एंब्रॉयडरी का काम किया करते थे. सुदीप्ता मित्रा रूपा पब्लिकेशन से प्रकाशित अपनी नई किताब ‘ए नवाब एंड ए बेगम’ (A Nawab and A Begum) में लिखती हैं कि मुहम्मदी की चाची किसी तरह परिवार का गुजारा करती थीं. हमेशा पैसे की तंगी रहती थी. एक दिन उनके घर के सामने एक पालकी आकर रुकी, जिसमें से बुर्का पहने दो महिलाएं उतरीं. उन्होंने मुहम्मदी की चाची के हाथ में रुपए की गड्डी थमाई. मुहम्मदी को जब तक कुछ समझ में आता, तब तक उसे जबरन पालकी में बैठा दिया गया. पालकी लखनऊ के चौक में रुकी, जो तवायफों का मोहल्ला था.
सुदीप्ता मित्रा लिखती हैं कि मुहम्मदी को लाने वाली दोनों महिलाओं का नाम अम्मन और इमामम था, जो कभी तवायफ थीं. उम्र ढलने के बाद उन्होंने शाही हरम के लिए महिलाएं तैयार करना शुरू कर दिया था. उन्हें संगीत से लेकर तमाम तालीम दिया करती थीं. अम्मन और इमामम की कोठी में आने के बाद मुहम्मदी की ट्रेनिंग शुरू हुई. सुबह जल्दी जगना पड़ता और देर शाम तक संगीत से लेकर डांस और फारसी जैसी चीजें सिखाई जातीं.
नवाब के ‘परीखाना’ में एंट्री
मुहम्मदी खानम जब 23 साल की हुईं तब उनकी एंट्री नवाब वाजिद अली शाह के शाही हरम में हुई, जिसे ‘परीखाना’ कहा जाता था. सुदीप्ता मित्रा लिखती हैं कि कुछ इतिहासकार यह भी दावा करते हैं कि मुहम्मदी की शाही महल में बताओ खवासीन (नौकरानी) एंट्री हुई थी. कुछ वक्त में ही उन्होंने अपने हुनर से वाजिद अली शाह का दिल जीत लिया.
मुहम्मदी से बनीं बेगम हजरत महल
कुछ दिनों बाद नवाब वाजिद अली शाह ने मुहम्मदी का नाम ‘महक परी’ रख दिया और उनसे मुता विवाह (कांट्रेक्ट मैरिज) कर लिया. बाद में उन्हें ‘इफ्तिखार-उन-निशा’ की उपाधि दी. आगे चलकर मुहम्मदी खानम बेगम हजरत महल के नाम से जानी गईं.
अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की अगुवाई
साल 1856 में नवाब वाजिद अली शाह को अंग्रेजों ने अवध की गद्दी से उतार दिया और उन्हें कलकत्ता निर्वासित कर दिया. नवाब ने लखनऊ छोड़ने से पहले 9 बीवियों को तलाक दिया. जिसमें बेगम हजरत महल भी शामिल थीं. नवाब के जाने के बाद वह लखनऊ में ही रुकीं. साल भर बाद 1857 में आजादी की पहली चिंगारी भड़क उठी, जिसे ‘गदर’ कहते हैं. उसकी आग लखनऊ तक पहुंची.
बेटे को घोषित कर दिया नवाब
इतिहासकारों के मुताबिक लखनऊ में इस आग को हवा देने की अगुवाई बेगम हजरत महल (Begum Hazrat Mahal) कर रही थीं. उनके नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने लखनऊ को चारों तरफ से घेर लिया. चिनहट में लड़ाई हुई, जिसमें अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी और बेगम हजरत महल ने अपने बेटे बिरजिस कद्र को अवध का नवाब घोषित कर दिया.
FIRST PUBLISHED : May 22, 2024, 17:15 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed