लखनऊ में 160 साल पहले खुली सबसे बड़ी प्रिंटिग प्रेसपहली बार छापी रामचरित मानस
लखनऊ में 160 साल पहले खुली सबसे बड़ी प्रिंटिग प्रेसपहली बार छापी रामचरित मानस
लखनऊ में 1858 में देश में पहला आधुनिक प्रिंटिंग प्रेस खोला गया. ये ऐसी प्रेस थी जिसने उर्दू से लेकर अंग्रेजी औऱ हिंदी तक हजारों तरह की अलग अलग किताबें छापीं. रामचरित मानस को भी सबसे पहले छापने का श्रेय इसी नवल किशोर प्रेस को जाता है.
हाइलाइट्स ये तब देश के सबसे बड़े प्रिंटिंग प्रेस में एक था, बेशुमार किताबें सस्ते में छापीं मिर्जा गालिब की किताबें यहां छपतीं थीं तो कुरान और रामचरित मानस भी पहली बार छापी इस प्रेस का नाम था नवल किशोर प्रिंटिंग प्रेस, देश का पहला आधुनिक और बड़ा छापाखाना
1857 की क्रांति के एक साल बाद लखनऊ में एक ऐसा काम हुआ, जो समय के साथ बहुत बड़ा हो गया. लखनऊ में 162 साल पहले देश की सबसे पहली और सबसे बड़ी स्वदेशी प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत हुई. समय के साथ इसने देश के सारे छापेखानों को पीछे छोड़ दिया. यहां मिर्जा गालिब की किताबें छपती थीं. तो पहली बार हिंदी में रामचरित मानस छपकर बहुत कम दाम में घर-घर तक पहुंचीं. इस प्रिंटिंग प्रेस ने फिर बहुत तरक्की की.
पता नहीं लखनऊ में अब किसी को उनका नाम भी मालूम होगा या नहीं. वैसे यूपी की राजधानी में एक सड़क का नाम उन पर भी है. उनका नाम मुंशी नवल किशोर था. उन्हें भारतीय प्रिंटिंग का शहजादा कहा जाता है. एशिया का सबसे पुराना छापाखाना उन्होंने लखनऊ में स्थापित किया था. पहले छोटा और फिर बड़ा होते हुए खासा आधुनिक, जिसमें ब्लैक एंड व्हाइट से लेकर कलर तक 5000 से ज्यादा किताबों के टाइटल छपे
वैसे तो भारत में प्रिंटिंग का इतिहास 1556 में शुरू होता है, जबकि पुर्तगाल से ईसाई मिशनरी ने गोवा में पहला प्रिंटिंग प्रेस लगाया था. इस प्रेस ने 1577 में एक पुर्तगाली किताब का तमिल अनुवाद छापा था. पहली बार तब कोई चीज भारतीय भाषा में प्रिंट हुई थी. लेकिन उसके बाद अगले 200 सालों तक भारत में किसी भारतीय ने प्रिंटिंग प्रेस की दुनिया में कदम नहीं रखा था. हालांकि यूरोप से व्यापारी भी भारत आकर कारोबार जमाने लगे थे. ईस्ट इंडिया कंपनी भी भारत में आकर टिक चुकी थी. दक्षिण में हालैंड और फ्रांस अपने उपनिवेश बनाने की होड़ में थे. मुगल दरबार में तब किताबें हाथ से कैलियोग्राफी करके ज्यादा लिखी जाती थीं. नवल किशोर ने केवल 22 साल की उम्र में लखनऊ में ऐसा प्रिंटिंग व्यवसाय शुरू किया, जो समय के साथ फैला भी और आधुनिक होता गया. उनका छापाखाना बड़ा और आधुनिक तकनीक से लैस था. (फोटो – न्यूज18 ग्राफिक)
उन्होंने छपी हुई किताबें घर घर तक पहुंचाईं
18वीं सदी के आखिर तक भारतीयों को महसूस होने लगा कि मशीनें जो टैक्स्ट छापती हैं, उनकी अलग ताकत होती है. 19वीं सदी के मध्य में कई भारतीयों ने प्रेस लगाने शुरू किए. मुंशी नवल किशोर भारत में प्रिंट मीडियम के पायनियर थे. ना तो वह प्रसिद्ध लेखक थे और ना ही उन लोगों में जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ तब विद्रोह की मशाल जलाई थी. लेकिन उन्होंने लेखकों की किताबें और उन्हें जनता तक पहुंचाने का काम बखूबी किया. वह तब प्रिंट की एक ताकत बन गए थे.
ये देश की पहली बड़ी प्रेस थी-नवल किशोर प्रेस
उन्होंने प्रिंटिंग को भारत में कामर्शिलाइज किया. छपी किताबों को बहुत कम दामों में लोगों तक पहुंचाया जाति लोगों का ज्ञान बढ़े और साहित्य से लेकर विज्ञान तक में उनकी रुचि जगे. उनकी प्रेस ने ज्यादा चीजें हिंदी और उर्दू में छापीं, जो उस समय के लिहाज से एक बड़ा योगदान था. उन्होंने सही मायनों में देश की पहली बड़ी प्रेस लखनऊ में लगाई, इसका नाम था नवल किशोर प्रेस. 1866 में नवल किशोर प्रेस ने रंगीन और कैलियोग्राफी वाली इस तरह की किताबें भी छापीं, जो तकनीक प्रिंटिंग के लिहाज से समय से आगे थी. (Source: BL Asian and African/Twitter)
अलीगढ़ से जमींदार परिवार से ताल्लुक
नवल किशोर अलीगढ़ के उस अमीर भार्गव जमींदार परिवार से आते थे, जिनकी जागीर अलीगढ़ के सासनी में थी. उनके परिवार में उनके पुरखों ने मुगलों के यहां अच्छी हैसियत में नौकरियां की थीं. परिवार में संस्कृत पढ़ने लिखने की परंपरा थी. युवा नवल किशोर ने भी इसको अपनाया. चूंकि परिवार मुगलों से जुड़ा था तो जाहिर है कि फारसी भी उन्हें खूब आती थी. उन्होंने 1852 में आगरा कॉलेज में दाखिला लिया. उन्होंने वहां अंग्रेजी और फारसी पढ़ी.
अखबार में नौकरी से करियर शुरू किया
1854 में वह लाहौर चले गए. वहां उन्होंने कोह-ए-नूर प्रेस में नौकरी कर ली. जो तब पंजाब का पहला उर्दू अखबार कोह-ए-नूर छापता था. एक साल उन्होंने यहां अप्रेंटिसशिप की. इसी काम के बाद भविष्य में उन्होंने वो काम किया, जिसने उन्हें देश में प्रिटिंग का पायनियर बना दिया. जब आगरा लौटे. अपना खुद का अखबार साफिर ए आगरा शुरू किया. फिर लाहौर गए. इसके बाद वापस आगरा आ गए. लखनऊ में पता नहीं किसी को उनका नाम याद भी है या नहीं लेकिन लखनऊ के एक मार्ग का नाम उन पर जरूर है. (Source: Guzashta Lakhnau/Facebook)
लखनऊ में प्रिंटिंग प्रेस खोली
इस बीच उन्होंने ब्रितानियों का दिल जीता. 1857 की क्रांति हो चुकी थी. इसके बाद देश में तेज बदलाव हो रहे थे. तकनीक बदल रही थी. लखनऊ वो शहर था, जिसने 1857 की क्रांति में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. अंग्रेज अब इस शहर की फिजां बदलने में लगे थे.
वह 1858 में लखनऊ चले आए. इस शहर में ब्रितानियों की मौजूदगी के साथ ये आर्थिक से लेकर सांस्कृतिक स्तर पर बदलाव देख रहा था. नवंबर1858 में उन्होंने यहां ब्रिटिश अफसरों की मंजूरी से एक प्रेस लगाई. उन्होंने उत्तर भारत का पहला उर्दू अखबार अवध अखबार निकालना शुरू किया. जल्दी ही अंग्रेज प्रशासन उन्हें प्रिंटिंग का जॉबवर्क बड़े पैमाने पर देने लगा. 1860 में उन्हें इंडियन पैनल कोड को उर्दू में छापने का काम मिला.
मिर्जा गालिब की किताबें छापीं, कुरान भी छापी
इसके बाद तो वह किताबें छापने में लग गए. एक के बाद दूसरी किताब. इसी दौरान उन्होंने मिर्जा गालिब से संपर्क साधा. उनके प्रकाशन बने. 1869 में उनके प्रेस ने पहला उर्दू का नॉवेल छापा, जो नाजीर अहमद का लिखा था. इसी दौरान उन्होंने फैसला किया कि वो कुरान का संस्करण बहुत सस्ते दामों में छापेंगे. इसका दाम तब डेढ़ रुपए रखा गया. ये खूब बिकी. सामान्य मुस्लिमों तक पहुंच सकी.
रामचरित मानस की एकसाथ 50 हजार प्रतियां छापकर बेचीं
अगर वह उर्दू की किताबें छाप रहे थे तो हिंदी की किताबें भी छापनी शुरू कीं. तुलसीदास की रामचरित मानस भी उनके प्रेस ने सबसे पहले छापी, जिसकी 1873 में 50,000 कॉपियां बिकीं. सुरदास की सूर सागर भी उनके प्रेस से छपी. 1880 में उनकी प्रेस ने तुलसीदास का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया. 1870 के दशक के आखिर तक वह करीब 3000 से ज्यादा किताबों के टाइटल छाप चुके थे, जो हिंदी, उर्दू, फारसी और संस्कृत में थीं. बहुत सी किताबें मराठी और बांग्ला में भी. ज्यादातर किताबें चाहें वो विज्ञान की हो या साहित्य उसे अंग्रेजी से भी अनुवाद करके छापा गया.
लंदन तक खोल लिया आफिस
1877 में उनके प्रेस से निकाला जा रहा अखबार दैनिक हो गया. नवल किशोर ने अपनी प्रेस की शाखाएं कानपुर, गोरखपुर, पटियाला और कपूरथला तक खोलीं. लंदन में एक एजेंसी स्थापित की. वह किताबों को प्रकाशित करने के साथ उनकी बिक्री का काम भी कर रहे थे. उनका प्रेस मार्केटिंग और एडवर्टाइजिंग में आगे था. उस जमाने के लिहाज से उनकी प्रेस ना केवल आधुनिक थी बल्कि नई तकनीक से लैस भी.
वह प्रिटिंग की दुनिया शहंशाह माने जाने लगे
उत्तर भारत में कदम जमाने के बाद वह कोलकाता गए. वहां प्रेस खोला. कई किताबें छापीं. प्रिटिंग की दुनिया में तब उन्हें शंहशाह माना जाने लगा. वह आगरा कालेज की कमेटी में भी थे. कई संस्थाओं, शिक्षा संस्थानों में संरक्षक की भूमिका निभाई. 1895 में उनका निधन हो गया. उनके द्वारा स्थापित प्रेस बिजनेस बहुत मुनाफा दे रहा था. उसने उस दौरान लोगों के पढ़ने की आदत को बढ़ाया. तब ज्यादातर लोग जो किताब पहली बार पढ़ते थे, वो नवल किशोर प्रेस से ही छपी और प्रकाशित हुई रहती थी.
बाद में भारत सरकार ने उन पर डाक टिकट निकाला. हालांकि उनके निधन के बाद नवल किशोर प्रेस का सितारा डूबने लगा. बाद में ये उनके उत्तराधिकारियों में बंट गई. अब तो खैर ये प्रेस बंद हो चुकी है लेकिन इसका इतिहास वाकई यादगार है. दुनिया के प्रिंटिंग इतिहास की जब भी बात चलेगी तो भारत की प्रिटिंग की दुनिया में उनका नाम हर हाल में लिया जाएगा.
Tags: Lucknow city, Lucknow city factsFIRST PUBLISHED : November 12, 2024, 19:49 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed