दास्तान-गो : गुजरात के अमूल को हिन्दुस्तान की ‘अमूल्य धरोहर’ कहिए तो बेहतर
दास्तान-गो : गुजरात के अमूल को हिन्दुस्तान की ‘अमूल्य धरोहर’ कहिए तो बेहतर
Dasstaan-Go ; Success Story of Amul, The Taste of India : सरकार से मंज़ूरी मिलने के बाद खेड़ा के किसानों ने पहली सहकारी संस्था बनाई. ‘खेड़ा जिला सहकारी दुग्ध-उत्पादक संघ प्राइवेट लिमिटेड, आणंद’. साल 1946 की ही वह तारीख़ थी 14 दिसंबर, जो बस, आने ही वाली है. उस रोज़ गुजरात के ‘दूध-गंगा आंदोलन-अमूल’ की बुनियाद में पहली ईंट की तरह इस संस्था ने सरकारी दस्तावेज़ जगह बनाई थी. हालांकि, उस तारीख़ के बजाय इस ‘दूध-गंगा आंदोलन’ में दर्ज़ हो गई 26 नवंबर की तारीख़, जो कल ही है, शनिवार को.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, साल 1945 की बात है ये. उस वक़्त गुजरात का बड़ा इलाक़ा बंबई सूबे के मातहत हुआ करता था. तभी सूबे की अंग्रेज सरकार ने एक योजना शुरू की. इसके ज़रिए खेड़ा और उसके आस-पास के इलाक़ों से दूध ख़रीदा जाना था. फिर उसे रियायती दरों पर लोगों को मुहैया कराया जाना था. अच्छी बात थी. यहां तक किसी को कोई दिक़्क़त नहीं रही. लेकिन परेशानी तब शुरू हुई, जब अंग्रेजों ने इस योजना के तहत दूध ख़रीदने-बेचने का ज़िम्मा ‘पोली-पोलसन’ की जोड़ी को दे दिया. ‘पोली-पोलसन’, याद आया? अरे वही, जो राजा सगर की 60,000 औलादों की तरह घमंडी हो गए थे. कल, 24 नवंबर को ही तो पढ़ा था उनके बारे में! दूध-गंगा की पहली दास्तान में! ये उससे आगे का क़िस्सा है. सो जनाब, ‘पोली-पोलसन’ तो निकले ही थे कारोबारी फ़ैलाव के लिए. वह भी अपनी शर्तों के मुताबिक. तिस पर उन्हें अंग्रेज सरकार से समर्थन मिल गया.
हालांकि सरकार से मिला समर्थन ज़िम्मेदारी की शक़्ल में था लेकिन ‘पोली-पोलसन’ की जोड़ी ने वह सब भूलकर मनमानी शुरू कर दी. क्योंकि उस वक़्त हिन्दुस्तान में दूध-मक्खन का कारोबार करने वाली कोई और कंपनी तो थी नहीं. अकेली यही थी, ‘पोली’ यानी पेस्तोनजी इडुलजी की कारोबारी औलाद ‘पोलसन’. तो जनाब, अब ये ‘पोली-पोलसन’ खेड़ा और उसके आस-पास दूध-उत्पादन करने वाले किसानों से कौड़ी-मोल में दूध ख़रीदने लगे. और बड़ा मुनाफ़ा जेब में रखते हुए, वह दूध सरकारी योजना के मुताबिक बंबई और उसके इलाक़ों में रियायती दरों पर बेचने लगे. अब कोई यहां पूछ सकता है कि जब बेचने के लिए दरें रियायती थीं तो मुनाफ़ा बड़ा कैसे? सो इसका ज़वाब ये है कि योजना तो सरकारी ही थी न, और सरकार ने दूध बेचने की रियायती कीमतें तय की थीं, ख़रीदने की नहीं. ऊपर से कंपनी के नुक़सान की भरपाई का भी बंदोबस्त था.
तो इस तरह ‘पोली-पोलसन’ को उसके कारोबारी-फ़ैलाव का मंसूबा पूरा करने के लिए यह सरकारी मदद भी थी. और इस बात का जल्द ही दूध-उत्पादक किसानों को इल्म हो गया. उन्हें समझ में आ गया कि यह कंपनी सरकार की मिली-भगत से उनके साथ छल कर रही है. सो, इस छल का ज़वाब उन्होंने बल से देने का मंसूबा बांधा. बल, तपस्या का. राजा सगर के 60,000 घमंडी लड़कों को भी तो कपिल मुनि ने तपस्या के बल पर ही ख़ाक किया था. फिर सगर के बाद तीसरी पीढ़ी में हुए उनके पड़पोते भागीरथ जब मां-गंगा को स्वर्ग से धरती पर लाए, तो वह भी तपस्या के बल पर ही. और गंगाधर-शिव, जिन्होंने स्वर्ग से उतरीं मां-गंगा के वेग को जटाओं में बांधा, वे तो हैं ही तपस्वी. सो, ‘दूध-गंगा के क़िस्से में गंगोत्री’ की सूरत पाने को तैयार खेड़ा इलाक़े के किसानों ने भी यही रास्ता चुना. तपस्या का. और उनके अगुवा हुए त्रिभुवनदास किशीभाई पटेल.
तो जनाब, ये जो त्रिभुवनदास थे न, इनके इरादे, हौसले, तौर-तरीके सब गांधीवादी थे. लिहाज़ा उन्होंने पहले आस-पास के किसानों को साथ ले जाकर सरदार वल्लभभाई पटेल से मिलने का फ़ैसला किया. ये बात है, 1945 की ही. तब तक सरदार पटेल हिन्दुस्तान की सियासत में ख़ासा असर क़ायम कर चुके थे. लोग उन्हें पंडित जवाहरलाल नेहरू के टक्कर की शख़्सियत मानने लगे थे. गुजराती तो थे ही. खेड़ा के पास नडियाद में पैदाइश पाई थी उन्होंने. सो, त्रिभुवनदास को वे ही सबसे मुफ़ीद लगे. लिहाज़ा वे उनके पास पहुंच गए. ठीक वैसे ही, जैसे राजा भागीरथ पहुंचे थे ‘गंगाधर-शिव’ के पास. कि प्रभु! मां-गंगा को धरती पर लाना है. आप रास्ता बताएं और जब वे धरती पर उतरें तो उनका वेग संभालें. और जैसे ‘गंगाधर-शिव’ तुरंत राजी हुए, वैसे ही सरदार पटेल ने हामी भर दी. ‘दूध-गंगा के अवतरण’ से जुड़े त्रिभुवनदास के भागीरथी प्रयास में साथ देने को.
बस, एक मशवरा दिया सरदार पटेल ने त्रिभुवनदास को, ‘पोलसन को हटाने का सिर्फ़ एक ही तरीका है त्रिभुवन. डेयरी आपकी होनी चाहिए. किसानों की. आपकी अपनी सहकारी (को-ऑपरेटिव) डेयरी होनी चाहिए. ताकि मुनाफ़ा किसी बिचौलिए की जेब में न जाए. उसका पूरा फ़ायदा आप लोगों को ही मिले’. कहते हैं, सरदार पटेल साल 1942 से ही इस बात की ज़ोरदार वकालत करते आ रहे थे कि किसानों की उपज का उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा से मुनाफ़ा मिले, इसके लिए उनके अपने सहकारी संगठन होने चाहिए. उनकी उपज की ख़रीद-फ़रोख़्त सब इन्हीं सहकारी-संगठनों के मार्फ़त होनी चाहिए. लिहाज़ा दूध-किसानों की दिक़्क़त दूर करने के लिए उन्होंने यही तरीका सुझाया, जो त्रिभुवनदास को भी समझ में आ गया. यही नहीं, उस दौर में सरदार पटेल के भरोसेमंद नेताओं में थे मोरारजी देसाई, जो आगे हिन्दुस्तान के वज़ीर-ए-आला बने.
देसाई साहब भी गुजराती. बताते हैं, उन्हें सरदार पटेल ने तब त्रिभुवनदास और उनके साथ जुड़े किसानों की मदद के लिए खेड़ा भेजा था. वहां देसाई साहब और त्रिभुवनदास की अगुवाई में तय हुआ कि किसान अब अपना सहकारी-संगठन बनाएंगे और अंग्रेज सरकार से मांग की जाएगी कि वह इन्हीं संगठनों के ज़रिए दूध खरीदे. किसी ‘पोली-पोलसन’ के ज़रिए नहीं. साल 1946 में समरखा गांव में हुई मीटिंग में यह फ़ैसला किया गया. इसकी इत्तिला सरकार तक भी पहुंचा दी गई. लेकिन सरकार तो ‘सरकार’ ही होती है. और वह भी अंग्रेज सरकार? नहीं मानी. दूध-किसानों की मांगों काे सिरे से ख़ारिज़ कर दिया उसने. ऐसे में त्रिभुवनदास को सरदार पटेल की एक और बात याद आई, ‘अच्छी तरह सोच लो त्रिभुवन. रास्ता मुश्किल और जोखिम भरा है. अगर तुम लोग जोखिम उठाने को तैयार हो, तो मैं तुम्हारे साथ हूं’. ये हिदायत पुराने दौर जैसी थी.
पुराना दौर, ‘मां-गंगा’ के अवतरण का. उस वक़्त राजा भागीरथ को भी ऐसी ही हिदायत दी गई थी, ‘याद रखिए भागीरथ. धरती पर मां-गंगा को लाने में जोखिम बहुत है. क्योंकि मां-गंगा तुम्हारे रथ के पीछे-पीछे चलेंगी. यानी आपको उनके वेग से भी तेज रफ़्तार के साथ उनके आगे-आगे चलना होगा. नहीं तो…’ कहते हैं, तब राजा-भागीरथ ने फिर तपस्या की और देवताओं से हवा की रफ़्तार से दौड़ने वाले घोड़े हासिल किए थे, उन्हें वे अपने रथ में जोतकर आगे-आगे चले और ‘मां-गंगा’ उनके पीछे. इस तरह, वहां तक पहुंचे जहां उनके पूर्वजों (राजा सगर के 60,000 लड़के) की ख़ाक पड़ी थी. और फिर ‘मां-गंगा’ के रास्ते से हट गए. इसके बाद ‘मां-गंगा’ समंदर में जा समाईं. सोचकर देखिए उस जोखिम-भरे कारनामे के बारे में. कुछ ऐसा ही कारनामा खेड़ा के दूध-किसानों ने भी किया. सरकार ने जब उनकी बात नहीं मानी तो उन्होंने ‘दूध-गंगा’ बहाव रोक दिया.
दूध-किसानों ने जब सरकार की तरफ़ जाती ‘दूध-गंगा’ का बहाव रोका तो बंबई और उसके आस-पास के इलाक़ों में सनाका खिंच गया. दूध, मलाई, मक्खन के शौक़ीन ‘लाट-साहब’ लोगों के घरों में त्राहिमाम् जैसे हालात हो गए. खेड़ा और आणंद के इलाक़ों से ही बंबई को दूध मिलता था ज़्यादातर. और वहां से उसकी आमद एक-दम बंद हो चुकी थी. ऐसे में सरकार ने पहले तो डंडे के जोर पर किसानों को ठिकाने लगाने की कोशिश की. मगर यह सब बे-असर रहा. यही कोई 15 दिनों तक ये ‘दूध-हड़ताल’ चली. और आख़िरकार सरकार को ही झुकना पड़ा. बताते हैं, ये 15 दिनी दूध-हड़ताल का महीना शायद नवंबर का ही था, जिसके बाद बंबई में डेयरी-विभाग के कमिश्नर-साहब को ‘दूध-किसानों’ से बात करने के लिए भेजा गया था. पर वे ठहरे अंग्रेज. हिन्दी आती नहीं थी. सो, उन्होंने एक हिन्दुस्तानी अफ़सर को मदद के लिए साथ ले लिया और दोनों पहुंचे खेड़ा.
कमिश्नर-साहब से बातचीत के दौरान दूध-किसानों ने अपनी वही पुरानी दो मांगें दोहरा दीं. पहली कि उन्हें सहकारी संगठन बनाने दिया जाए. उसे सरकारी दस्तावेज़ में सहकारी-संस्था के तौर पर दर्ज़ किया जाए. और दूसरी कि सरकार ‘बॉम्बे मिल्क स्कीम’ के लिए दूध-किसानों के सहकारी संगठन से ही दूध ख़रीदे. कहते हैं कि इस बाबत डेयरी-विभाग के कमिश्नर साहब ने पहले तो इन मांगों को मानने से मना ही किया था. लेकिन फिर उनके हिन्दुस्तानी मददग़ार अफ़सर ने उन्हें समझाया, ‘साहब, मान भी जाइए. बना लेने दीजिए इन्हें सहकारी संस्था. देखते हैं, कितने दिन चलती है. वैसे, ये हिन्दुस्तानी हैं साहब. दो क़दम भी साथ मिलकर चलने में इन्हें जोर आता है. ज़्यादा दिन चल नहीं पाएंगे’. और कमिश्नर-साहब ने अपने ‘भरोसेमंद अफ़सर’ के इस मशवरे पर भरोसा कर लिया. उस ज़माने में अंग्रेजों के मददग़ार ऐसे हिन्दुस्तानी हजारों होते थे. ख़ैर.
तो जनाब, सरकार से मंज़ूरी मिलने के बाद खेड़ा के किसानों ने पहली सहकारी संस्था बनाई. ‘खेड़ा जिला सहकारी दुग्ध-उत्पादक संघ प्राइवेट लिमिटेड, आणंद’. साल 1946 की ही वह तारीख़ थी 14 दिसंबर, जो बस, आने ही वाली है. उस रोज़ गुजरात के ‘दूध-गंगा आंदोलन-अमूल’ की बुनियाद में पहली ईंट की तरह इस संस्था ने सरकारी दस्तावेज़ जगह बनाई. और फिर ‘अमूल : हिन्दुस्तान की अमूल्य धरोहर’ की तरह तारीख़ में दर्ज़ होता गया. हालांकि, हिन्दुस्तान के ‘दूध-गंगा आंदोलन’ में 14 दिसंबर के बजाय 26 नवंबर की तारीख़ ने ‘राष्ट्रीय दुग्ध दिवस’ के तौर पर जगह पाई है. ऐसे में, सवाल हो सकता है कि आख़िर क्यों? ज़वाब कल ही.
आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.
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Tags: Amul, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : November 25, 2022, 08:20 IST