दास्तान-गो : हिन्दुस्तान के लिए हिटलर को ठुकरा देने वाले ध्यान चंद ही हो सकते थे

Daastaan-Go ; Magician of Hackey Major Dhyan Chand Birth Anniversary : ध्यान चंद ने जूते उतारकर खेलना शुरू कर दिया. यह देख उनके भाई रूप सिंह ने भी ऐसा ही किया. अब दोनों भाई नंगे पैर खेल रहे थे, अपने ठेठ देसी अंदाज़ में. इस दौरान कई मर्तबा उन्होंने जर्मन टीम की बेइज़्ज़ती की. सामने गोलकीपर को अकेला खड़े देखने के बावज़ूद ध्यान चंद वहां से मुस्कुराते हुए गेंद गोल-पोस्ट में डाले बिना लौटा लाते. वे यूं अपने पर हुए हमले का ज़वाब दे रहे थे.

दास्तान-गो : हिन्दुस्तान के लिए हिटलर को ठुकरा देने वाले ध्यान चंद ही हो सकते थे
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…  ———– जनाब, एम्सटर्डम ओलंपिक के बाद ध्यान चंद को ‘हॉकी के जादूगर’ का जो तमगा मिला, वह यूं ही नहीं था. दरअस्ल, पहली बार ओलंपिक के लिए जब हिन्दुस्तान की हॉकी टीम एम्सटर्डम पहुंची तो वहां पहला मैच 17 मई को था. इससे पहले तीन हफ़्ते का वक़्त था. तो भारतीय टीम ने हॉलैंड में चार, जर्मनी में दो और बेल्जियम में एक प्रैक्टिस मैच खेल लिया. इन सात मैचों में कुल 64 गोल किए थे, हिन्दुस्तान की टीम ने. इनमें से करीब 50 गोल ध्यान चंद ने किए थे. इससे ओलंपिक में मुक़ाबले के लिए उतरीं सभी टीमों में पहले से ख़ौफ़ पसर गया था. लोगों के बीच हिन्दुस्तानी टीम के साथ-साथ ध्यान चंद के चर्चे भी यूं हो गए थे कि टीम जहां भी जाती, उसकी एक झलक पाने के लिए हुज़ूम उमड़ा करता था. ख़ासकर लोग ध्यान चंद को देखने के लिए बेताब हुए जाते थे. और फिर ध्यान चंद ने न्यूजीलैंड में, पहले विदेश दौरे पर भी तो यही किया था. बताते हैं, न्यूजीलैंड के साथ हुए 21 मुकाबलों में हिन्दुस्तान की टीम ने 192 गोल किए थे. सिर्फ 24 गोल खाए थे. इसमें भी ध्यान चंद ने सबसे ज़्यादा लगभग 100 गोल किए थे. एम्सटर्डम तक उसके चर्चे भी पहुंचे हुए थे. तिस पर से ओलंपिक से पहले हुए प्रैक्टिस मैच. इससे किसी भी विरोधी टीम के हौसले पस्त होना लाज़िमी था, जो कि थे भी. सो, हिन्दुस्तानी टीम बेरोक-टोक पहले ही ओलंपिक में सीधे फाइनल तक पहुंच गई. लेकिन फाइनल मैच में हॉलैंड के साथ मुक़ाबले से पहले बड़ी रुकावट आ गई. मुमकिन है, लगातार खेलने की वज़ह रही हो. फाइनल से पहले टीम के अधिकांश खिलाड़ी बीमार हो गए. ख़ुद ध्यान चंद को भी बुखार था. डॉक्टरों ने आराम की सलाह दी. टीम मैनेजर ने भी यही मशवरा दिया. लेकिन न ध्यान चंद माने और न ही उनके साथी दूसरे खिलाड़ी. हॉकी के इन ‘सिपाहियों’ ने जान की बाजी लगाकर फाइनल मुकाबला जीता. इस ओलंपिक में सिर्फ हिन्दुस्तानी टीम ने स्वर्ण पदक ही नहीं, बल्कि खेल के क़द्र-दानों का दिल भी जीता. क्योंकि हिन्दुस्तान की टीम के ख़िलाफ़ कोई टीम ओलंपिक के मुक़ाबलों के दौरान एक गोल भी नहीं कर पाई थी. ओलंपिक की इस जीत ने हॉकी के खेल को हिन्दुस्तान के गली-मोहल्लों तक पहुंचा दिया. जैसे, आज-कल क्रिकेट किसी इबादत की तरह हर कहीं खेला जाता है, उसी तरह उन दिनों हॉकी खेली जाने लगी थी. ध्यान चंद अब तक ‘झांसी हीरोज़’ के नाम से एक अलग हॉकी क्लब भी बना चुके थे. यही एक इक़लौता ग़ैर-फ़ौजी क्लब था, जिसके साथ वे अक्सर खेला करते थे. यहां वे नई उम्र के खिलाड़ियों को तैयार भी करते. उन्हें सिखाते थे. इनमें उनके छोटे भाई रूप सिंह भी थे, जो अपने ‘दद्दा’ (बड़े भाई) की तरह हॉकी खेलने के लिए तैयार हुए थे. इस तरह के सिलसिले के बाद आया साल 1932 का. लॉस एंजिलिस में अगला ओलंपिक. हिन्दुस्तान की टीम के सामने अब ख़िताब बचाने की चुनौती थी. लेकिन अंगेज सरकार ने पैसे की कमी बताते हुए टीम भेजने के लिए माली मदद देने से मना कर दिया. तब आईएचएफ ने हौसला दिखाया और बंगाल हॉकी संघ तथा पंजाब नेशनल बैंक ने उदारता. बैंक ने आसान शर्तों पर आईएचएफ को कर्ज़ दिया और बंगाल हॉकी संघ ने मदद. इससे हिन्दुस्तान की हॉकी टीम को लॉस एंजिलिस भेज जाने का बंदोबस्त हो सका. हालांकि इससे पहले आईएचएफ ने सभी खिलाड़ियों को इस पर भी मनाया कि वे निजी तौर पर इनाम में मिले पैसे संघ को देंगे और बीच में कुछ मैच खेलकर बैंक का क़र्ज़ चुकाने के लिए पैसे जुटाने में मदद करेंगे. ऐसे इंतज़ामात के बाद भारतीय हॉकी टीम लॉस एंजिलिस पहुंची, जिसमें ध्यान चंद के साथ इस बार उनके छोटे भाई रूप सिंह भी थे. कहते हैं, 27 मई 1932 को जब मद्रास से कोलंबो के रास्ते लॉस एंजिलिस के लिए हिन्दुस्तानी हॉकी टीम रवाना हुई तो पूरा शहर उसे विदा करने के लिए उमड़ आया था. टीम रास्ते-रास्ते रुक-रुक कर मैच खेलती जाती थी. कोलंबो और जापान में. हिन्दुस्तान के भीतर भी मैच हुए थे. ये सभी शानदार तरीके से जीतती हुई क़रीब डेढ़ महीने बाद जुलाई में भारतीय टीम लॉस एंजिलिस पहुंची. यादग़ार तरीके से अपना ख़िताब बचाया. अमेरिका को ओलंपिक के फाइनल मुक़ाबले में 24-1 से हराया. लेकिन लौटी नहीं. बल्कि अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, हॉलैंड, हंगरी, ऑस्ट्रिया, रोम और चैकोस्लोवाकिया में भी कई मैच खेले और जीते. इसके बाद टीम हिन्दुस्तान लौटी. यहां फिर क़रीब 10 मैच खेले. ग़ौर कीजिए, खिलाड़ी यह पूरी मशक़्क़त वह क़र्ज़ चुकाने के लिए कर रहे थे, जो ओलंपिक में टीम भेजने के लिए आईएचएफ ने पंजाब नेशनल बैंक से लिया हुआ था. साल 1934 में दिल्ली में हुए पश्चिमी एशियाई खेलों तक ध्यान चंद अब हिन्दुस्तान की हॉकी टीम के कप्तान बन चुके थे. टीम जीत के सिलसिले को क़ायम रखे हुए थी. साथ ही 1936 के बर्लिन ओलंपिक की तैयारी भी जारी थी. इसके तहत न्यूजीलैंड में 28 मैचे खेले और सारे जीते. वहां तक आने-जाने के दौरान श्रीलंका और ऑस्ट्रेलिया में 20 मैच खेले. वे भी जीते. इनमें क़रीब 200 गोल तो सिर्फ़ कप्तान ध्यान चंद ने दागे. कहते हैं, इन्हीं मैचों में से एक में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट के ‘भगवान’ सर डॉन ब्रेडमैन भी थे. एडीलेड के इस मैच में दक्षिण ऑस्ट्रेलिया को भारत ने 10 गोल से हराया. इसके बाद ध्यान चंद से आकर ब्रेडमैन ने कहा, ‘आप तो गोल ऐसे दागते हैं, जैसे मैं क्रिकेट में रन बनाता हूं’. इसके बाद 1936 के ओलंपिक में हिस्सा लेने हिन्दुस्तानी टीम जर्मनी के बर्लिन पहुंची. पैसे की कमी अब भी थी. मुश्क़िल हालात में वहां तक पहुंचना हुआ था. हालांकि बर्लिन में जो हुआ, उसने तमाम मुश्क़िलों को धता बता दिया. ध्यान चंद की टीम को अपना ख़िताब तो बचाना ही था, जो उसने बचाया. अलबत्ता, कहानी इससे ज़्यादा है. बर्लिन में भीड़ पागलों की तरह हिन्दुस्तानी खिलाड़ियों के इस्तिक़बाल में बिछी जाती थी. टाउन हॉल में उसका ख़ैर-मक़दम किया गया. पूरे शहर में पोस्टर लगाए गए. इनमें लोगों से अपील की गई कि वे स्टेडियम में आएं और हिन्दुस्तानी हॉकी के जादूगरों का खेल देखें. टीम ने यहां नौ अभ्यास मैच खेले. इनमें से आठ जीते. फिर ओलंपिक के सभी मुक़ाबलों में कुल 38 गोल कर तमाम टीमों को धूल चटाते हुए ख़िताब फिर अपने नाम किया. फाइनल में मेज़बान जर्मनी से मुक़ाबला था. बताते हैं, उस मैच को देखने क़रीब 40,000 दर्शक जुटे थे. अभ्यास मैच में जर्मनी एक बार हिन्दुस्तान की टीम को हरा चुका था. इसी आधार पर घरेलू मीडिया ने उसके पक्ष में माहौल बना रखा था. जर्मनी ने इस मुक़ाबले के लिए हिन्दुस्तान को पहले हरा चुकी अपनी टीम उतारी थी. इससे मुक़ाबला करने में पहले-पहल हिन्दुस्तानी खिलाड़ियों को कुछ दिक़्क़त हुई. फिर भी वे हाफ-टाइम के कुछ बाद तक छह गोल करने में सफल रहे. इससे जर्मन टीम बौखला गई. बताते हैं, तब जर्मनी के गोलकीपर ने ध्यान चंद पर हॉकी से हमला कर दिया. उनका दांत टूट गया लेकिन वे बोले कुछ नहीं. बाहर गए, दवा लगवाई और वापस मैदान में आ गए. खेल से ज़वाब देने के लिए. ध्यान चंद ने जूते उतारकर खेलना शुरू कर दिया. यह देख उनके भाई रूप सिंह ने भी ऐसा ही किया. अब दोनों भाई नंगे पैर खेल रहे थे, अपने ठेठ देसी अंदाज़ में. इस दौरान कई मर्तबा उन्होंने जर्मन टीम की बेइज़्ज़ती की. सामने गोलकीपर को अकेला खड़े देखने के बावज़ूद ध्यान चंद वहां से मुस्कुराते हुए गेंद गोल-पोस्ट में डाले बिना लौटा लाते. वे यूं अपने पर हुए हमले का ज़वाब दे रहे थे. पूरा स्टेडियम उनकी इस गांधी-गीरी पर जान छिड़क रहा था और जर्मन टीम शर्म से पानी-पानी हुई जाती थी. हालांकि इस गांधी-गीरी के बावज़ूद हिन्दुस्तान ने जर्मन टीम पर कुल आठ गोल तो दाग ही दिए. ख़िताबी जीत का ताज अब भी हिन्दुस्तानी हॉकी के सिर पर जगमगा रहा था. अगस्त की 16 तारीख़ को ओलंपिक के समापन समारोह के बाद दावत हुई. बताते हैं, यही वह मौका था जब उस वक़्त दुनिया के सबसे ताक़तवर तानाशाह ने उनके सामने पेशकश की थी कि वे ‘जर्मनी की ओर से खेलने लगें. बदले में जर्मन सेना में ऊंचा ओहदा दिया जाएगा. माला-माल कर दिया जाएगा’. लेकिन ध्यान चंद ने उस पेशकश को बड़ी शाइस्तगी से, विनम्रता से ठुकरा दिया. ये कहकहर, ‘नहीं मैं अपने हिन्दुस्तान में ख़ुश हूं. मैं वहीं रहकर अपने मुल्क की सेवा करना चाहता हूं’. ऐसा कहने और करने वाले सिर्फ़ ध्यान चंद या उनके जैसे चुनिंदा लोग ही हो सकते थे. बर्लिन के वाक़ि’अे के बाद अंग्रेज सरकार ने ध्यान चंद को तरक़्की देकर फ़ौज में लेफ्टिनेंट बना दिया हिन्दुस्तान की आज़ादी के वक़्त 1947 तक वे कैप्टन के ओहदे तक पहुंच चुके थे. अंतरराष्ट्रीय हॉकी से दूर हो गए थे. लेकिन हिन्दुस्तान के भीतर आगे कुछ सालों तक मैच खेलते रहे और खिलाते-सिखाते भी रहे. साल 1956 में ध्यान चंद मेजर के ओहदे से सेना से रिटायर हुए. उसी साल उन्हें सरकार ने पद्म-भूषण से नवाज़ा. इसके बाद अगले 15-20 साल का वक़्त उन्होंने हिन्दुस्तान की नई हॉकी प्रतिभाओं को प्रशिक्षित करने, उन्हें दिशा देने में लगाया. और फिर 1979 के दिसंबर महीने की तीन तारीख़ को उनका ज़िस्म इस दुनिया को छोड़ गया. हालांकि हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियों के दिलों में ‘दद्दा’ आज भी ज़िंदा हैं. तभी तो आज पूरा हिन्दुस्तान ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ की सूरत में उन्हें याद करते हुए उनका जन्मदिन मना रहा है. ये सिलसिला 2012 से जारी है. — पिछली कड़ी में आपने पढ़ा दास्तान-गो : हॉकी की दुनिया के फ़लक पर जगमगाता ‘चांद’, मेजर ध्यान चंद —- (नोट- इस दास्तान को लिखने में संसद टीवी के ‘विरासत’ कार्यक्रम, बीबीसी की ओर से ध्यान चंद पर बनाई डॉक्यूमेंटी और ओलंपिक्स डॉट कॉम पर मौजूद सामग्री से मदद ली गई है.) ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें up24x7news.com हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट up24x7news.com हिंदी | Tags: Birth anniversary, Hindi news, Major Dhyan Chand, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : August 29, 2022, 10:05 IST