दास्तान-गो : ‘देवदासी-घराने’ की गंगूबाई ‘किराना-घराने’ में आईं तो हुईं गंगूबाई हंगल जी!
दास्तान-गो : ‘देवदासी-घराने’ की गंगूबाई ‘किराना-घराने’ में आईं तो हुईं गंगूबाई हंगल जी!
Daastaan-Go ; Gangu Bai Hangal Death Anniversary : कहते हैं, सवाई गंधर्व से सीखने के बाद तो गंगूबाई का फ़न यूं निखरा कि एक वक़्त उनके पास फिल्म बनाने वालों, रेडियो, रिकॉर्डिंग स्टूडियो वग़ैरा के नुमाइंदों और महफ़िलों के ऑर्गनाइज़रों की क़तार लगी रहा करती थी. सब उनका वक़्त चाहते थे.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, ये साल 1924 से कोई एक-दो बरस बाद की बात होगी. कलकत्ते में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की बड़ी महफ़िल जमी थी. पूरे हिन्दुस्तान से बड़े गवैये वहां आए थे. सुनने वालों में त्रिपुरा के राजा भी ख़ास तौर पर उस महफ़िल में शामिल होने वाले थे. महफ़िल में गाने के लिए एक 15-16 बरस की बच्ची को भी बुलाया गया था. कर्नाटक (उस वक़्त मैसूर स्टेट) के धारवाड़ इलाके से त’अल्लुक़ था उसका. लोगों ने काफ़ी नाम सुन रखा था. इसलिए बुला लिया गया. बावजूद इसके, महफ़िल के ऑर्गनाइज़र जो थे, उन्हें भरोसा न था कि ये बच्ची हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के धुरंधरों के बीच मंच पर ठहर भी पाएगी या नहीं. लिहाज़ा, उन्होंने बच्ची के सामने शर्त रखी कि मंच पर नुमूदार होने से पहले निज़ी महफ़िल में चुनिंदा लोगों के बीच कुछ गाकर सुनाए. बच्ची राज़ी हो गई. उसका गाना हुआ और तब कहीं जाकर ऑर्गनाइज़र मुतमइन हुए.
बताते हैं, इसके बाद जब मंच पर उस बच्ची का गाना हुआ तो त्रिपुरा के राजा पर उसकी गायकी का ऐसा असर हुआ कि उन्होंने वहीं अपनी तरफ़ से सोने की मुद्रा उसकी नज़र कर दी. इनाम के तौर पर. जनाब, उस बच्ची का नाम जानते हैं क्या था? गंगूबाई हंगल. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के ‘किराने घराने’ की अज़ीम गुलू-कार (गायिका). वह भी उस दौर की, जब औरतों का मर्दों के साथ बैठना तो दूर, घर से निकलना भी इज़्ज़त की निग़ाह से नहीं देखा जाता था. और फिर उनके साथ गाना बजाना? ख़ुदा ख़ैर करे. इसके बारे में तो सोचना भी गुनाह होता था. तिस पर, ख़्याल गायकी में तब रामचंद्र गणेश कुंदगोलकर (सवाई गंधर्व), उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, पंडित रामनारायण, जैसे तमाम दिग्गजों की तूती बोला करती थी. इन सबका इस मु‘आमले में ‘शेर’ के जैसा दर्ज़ा होता था. और गायकी का मंच इनके असर का इलाका.
इन हालात में एक औरत, वह भी कम उम्र, ‘ख़्याल गायकी के शेरों’ से उन्हीं के इलाके में मुक़ाबले के लिए उतरी. और सिर्फ़ उतरी नहीं, आगे चलकर इन शेरों के सामने उन्हीं के अंदाज़, बल्कि उन्हीं के जैसी आवाज़ और ठसक के साथ, बराबरी का मुक़ाबला किया. उनके इसी अंदाज़ का असर था कि मंच पर आने से कुछ ही बरस में उनका त‘अर्रुफ़ (परिचय) गंगूबाई हंगल से ‘गंगूबाई हंगल जी’ हो गया. यक़ीन न हो, तो उस ज़माने के वीडियो देख डालिए. गंगूबाई का अंदाज़-ए-बयां नज़र आ जाएगा. उनकी गायकी पर कान देंगे, तो उसमें मर्दाना आवाज़ की झलक मिलेगी. ज़ेहनी तौर पर समझने की कोशिश करेंगे, तो उनकी गायकी में वे तमाम बारीकियां दिखेंगी, जो तब के बड़े दिग्गजों के गाने-बजाने में दिखती थीं. और दिली तौर पर महसूस करेंगे तो ये गायकी कलेजे को उतनी ही ठंडक देगी, जितनी कि किसी भी अज़ीम फ़नकार को सुनकर मिला करती है.
जनाब, हिन्दुस्तान के एक ख़बरनवीस हुए, प्रदीप ठाकुर. उनकी किताब है, ‘इंडियन म्यूज़िक मास्टर्स ऑफ अवर टाइम’. अंग्रेजी ज़बान में है. इसमें गंगूबाई के बारे में भी तमाम क़िस्से दर्ज़ हैं. मसलन- गंगूबाई महज 20-21 बरस की थीं कि वे तीन बच्चों की मां बन चुकी थीं. इससे चार साल पहले जिनकी वे शरीक़-ए-हयात बनीं, उन्होंने दुनिया छोड़ दी थी. इसके बावज़ूद गंगूबाई का हौसला उनके हाथ से न छूटा. वे इस हाल में भी हिन्दुस्तान की मुख़्तलिफ़ (विभिन्न) जगहों पर जाकर मजलिसों, महफ़िलों में हिस्सा लेती रहीं. अपने फ़न का मुज़ाहिरा (प्रदर्शन) करती रहीं. ऐसे कि उनका हौसला और फ़न जल्द ही सबकी निगाह में आ गया. साल 1932 का था, जब ब्रितानिया म्यूज़िक कंपनी एचएमवी (हिज मास्टर्स वॉइस) तक गंगूबाई की सुर्ख़ियां पहुंची. कंपनी ने उन्हें राज़ी किया कि उसके लिए वे कुछ गाएं. गंगूबाई राज़ी हुईं तो उनका पहला रिकॉर्ड आया.
ये रिकॉर्ड बंबई में तैयार किया गया. इसके एक साल बाद यानी 1933 से उन्हें रेडियो पर गाने का मौका मिला. यह ऐसी महफ़िल होती थी, जो रिकॉर्ड नहीं की जाती थी. बल्कि फ़नकार स्टूडियो में बैठकर गाते और उनका गाया हुआ रेडियो के ज़रिए सीधे सुनने वालों के कानों तक पहुंचता था. बताते हैं, साल 1935 में गंगूबाई का इसी तरह का एक प्रोग्राम उस वक़्त के किराना घराने के बड़े गवैये सवाई गंधर्व ने सुना. गंगूबाई ने तब ‘दुर्गा’ (राग) गाया. इसका सवाई गंधर्व पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने तुरंत ही गंगूबाई को सिखाने का मंसूबा बांध लिया. इस तरह क़ा’इदे से ता’लीम शुरू हुई उनकी. कहते हैं, सवाई गंधर्व से सीखने के बाद तो गंगूबाई का फ़न यूं निखरा कि एक वक़्त उनके पास फिल्म बनाने वालों, रेडियो, रिकॉर्डिंग स्टूडियो वग़ैरा के नुमाइंदों और महफ़िलों के ऑर्गनाइज़रों की क़तार लगी रहा करती थी. सब उनका वक़्त चाहते थे.
ये क़रीब-क़रीब वही वक़्त था, जब पंडित भीमसेन जोशी भी सवाई गंधर्व के पास मूसीक़ी की ता’लीम लेने गए थे. और वहां पहले से सीख रही शाग़िर्द होने के नाते गंगूबाई भी भीमसेन जोशी को कुछ न कुछ सिखाती, बताती रहती थीं. रियाज़ में उनका साथ दिया करती थीं. ख़ास तौर पर सुबह के वक़्त की ख़रज की रियाज़ में दोनों अक्सर साथ ही होते थे. हालांकि इस सब से पहले एक वक़्त ऐसा भी हुआ, जब गंगूबाई को यूं किसी के साथ उठना-बैठना मयस्सर न होता था. उन्हें समाजी दायरे से बाहर माना जाता था. प्रदीप ठाकुर की ही किताब में एक वाक़ि’आ साल 1924 का भी दर्ज़ है. वह भी सीधे गंगूबाई के हवाले से. उस वक़्त बेलगाम शहर में कांग्रेस पार्टी का अधिवेशन हुआ था. महात्मा गांधी भी उसमें शामिल हुए. तब इस क़िस्म के जलसों में मनोरंजन के लिए गाने-बजाने की महफ़िलें भी होती थीं. सो, वहां भी महफ़िल हुई, जिसमें गंगूबाई को बुलाया गया.
गंगूबाई बहुत छोटी थीं उस वक़्त. यही कोई 11-12 बरस की. फिर भी उन्हें याद रहा अच्छी तरह कि उस वक़्त अधिवेशन में मौज़ूद नेताओं ने उनके खाने-पीने का इंतज़ाम अलग से किया था. सबके साथ बैठकर खाने-पीने की उन्हें इज़ाज़त नहीं थीं. जनाब जानते हैं क्यों? क्योंकि गंगूबाई ने जिसकी कोख से पैदाइश पाई, उस मां को समाज इज़्ज़त की नज़र से नहीं देखता था. देवदासी थीं उनकी मां अंबाबाई. देवदासी, जिनका पेशा मंदिरों में गाने-बजाने का हुआ करता था. बताते हैं, उन औरतों की शादियां उसी मंदिर के देवता से की जाती थी, जिसमें वे अपने फ़न का मुज़ाहिरा करतीं. फिर समाज में कोई और उनसे शादी न करता. अलबत्ता, वे चाहें तो किसी के साथ रह ज़रूर सकती थीं. लेकिन उसे उस देवदासी का खाविंद (पति) नहीं माना जाता था. इसीलिए देवदासियां अपने नाम के साथ उस मर्द का सरनेम भी नहीं लगाया करती थीं. बल्कि मां का सरनेम लगाती थीं.
यही वज़ह कि अंबाबाई ने अपनी मां कमलाबाई का सरनेम (हंगल) साथ रखा. ऐसे ही गंगूबाई ने भी अपनी मां और उनकी औलादों ने उनका. यही नहीं, एक और मसला था, जो बचपन में गंगूबाई की परेशानी की वज़ह बना. उनकी जात. वे मछुआरों की एक जात ‘गंगामथा’ से त’अलल्लुक़ रखती थीं. इस बरादरी को हिन्दुस्तान की सरकार ने अभी अगस्त- 2010 में ही ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) में शामिल किया है. ऐसा ‘भारत का राजपत्र’ यानी कि गजट बताता है. नहीं तो इससे पहले तक इस जात को समाज में नीची हैसियत वाला ही गिना जाता था. यही वज़ह रही कि गंगूबाई की किताबी ता’लीम भी पूरी नहीं हो पाई. एक-दो बरस जाने के बाद ही छूट गई. हालांकि इन तमाम ख़ामियों के बावज़ूद गंगूबाई का पूरा ख़ानदान (मां, नानी वग़ैरा) मूसीक़ी के मामले में कहीं अव्वल, बहुत अव्वल हुआ. और यह ख़ासियत गंगूबाई को पैदाइश के वक़्त से ही हासिल रही.
गंगूबाई धारवाड़ में पैदा हुईं. मार्च महीने की पांच तारीख़ को, साल 1913 में. इनके पिता का नाम चिक्कुराव नडिगर बताया जाता है. बरहमन थे. धारवाड़ में ही खेती-बाड़ी किया करते थे. अंबाबाई ने उन्हीं के घर आसरा लिया हुआ था. जैसा कि पहले ही ज़िक्र किया, अंबाबाई दक्षिण भारत के संगीत की अच्छी जानकार थीं और उन्होंने बेटी को बचपने से ही इसकी ता’लीम देना शुरू कर दी थी. साथ ही, एक मंसूबा बांध लिया था कि बेटी को समाज में इज़्ज़त का रुतबा दिलवाना है. उसे ‘देवदासी’ नहीं बनने देना है. लिहाज़ा, जब उन्होंने देखा कि बेटी के हुनर को अब अगले पायदान पर ले जाकर निखारने की ज़रूरत है, तो वे उसे लेकर हुबली चली आईं. इस वक़्त गंगूबाई की उम्र यही कोई 13 बरस के आस-पास रही होगी. यहां मूसीक़ी की अगली ता’लीम पहले कुछ वक़्त कृष्णाचार्य हुलुगुर के साथ शुरू हुई. वे किन्नरी (वीणा की तरह का एक साज़) बजाया करते थे.
इसके बाद थोड़ा वक़्त दत्तोपंत देसाई की उस्तादी में गुज़रा. और फिर आख़िर में ‘सवाई गंधर्व’ की छांव में ठिकाना मिला. इसी बीच, जब गंगूबाई 16 साल की थीं, तो अगले चार बरस के लिए गुरुराव कौलगी का उन्हें साथ मिला. वे बरहमन थे. पेशे से वकील. लेकिन तीन औलादों (दो लडके- नारायण राव, बाबू राव और बेटी- कृष्णा) की पैदाइश के बाद परिवार आगे ख़ुशहाल वक़्त बिताता कि गुरुराव का इंतिक़ाल हो गया. इसके बाद गंगूबाई ने अकेले ही न सिर्फ़ अपने बच्चों को पाला. बल्कि अपनी भी वह हैसियत बनाई कि समाज तो क्या, सरकारों को भी उनकी इज़्ज़त-अफ़ज़ाई के लिए झुकना पड़ा. सबूत यूं कि साल 2009 में आज ही की तारीख़, यानी 21 जुलाई को जब गंगूबाई का इंतिक़ाल हुआ, तो कर्नाटक सरकार ने दो दिन का राजकीय शोक घोषित किया था. फिर उनके नाम पर मैसुरु में संगीत की यूनिवर्सिटी बनाई. भारत सरकार ने भी उन्हें ‘पद्म-विभूषण’ जैसे अवॉर्ड से नवाज़ा (2002 में) और 2014 में उनके नाम एक डाक टिकिट भी जारी किया.
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Tags: Death anniversary special, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : July 21, 2022, 09:36 IST