दास्तान-गो : चेहरा ये बदल जाएगा ‘नाम गुम नहीं होगा’ नाम भूपिंदर सिंह हो तो!
दास्तान-गो : चेहरा ये बदल जाएगा ‘नाम गुम नहीं होगा’ नाम भूपिंदर सिंह हो तो!
Daastaan-Go ; Bhupinder Singh Death : इन दोनों (भूपिंदर-मिताली) का बेटा भी हुआ, निहाल. अच्छा मूसीक़ार है वह भी. हालांकि साज़ छोड़कर आज उसने मशाल थामी है. बीती शाम, यानी 18 जुलाई को दुनिया से अलविदा कह गए अपने वालिद (भूपिंदर) के ज़िस्म को निहाल ने आग के हवाले किया है. उस ‘बेजान ज़िस्म’ के निशां मिटाए हैं. मगर जनाब, भूपिंदर सिंह के ‘नाम के निशां’ भला कौन ही मिटा सकता है? और कैसे?
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, हिन्दी फिल्मों के अज़ीम गुलू-कार (गायक) भूपिंदर सिंह की आवाज़ में एक ग़ज़ल है. बोल हैं, ‘नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा. मेरी आवाज़ ही पहचान है, ग़र याद रहे.’ तमाम मायनों में सही बैठती है. लेकिन जब भूपिंदर सिंह के जैसी अज़ीम शख़्सियत के इस दुनिया-ए-फ़ानी (नश्वर जगत) से अलविदा कहने की बात हो, तो मायने पूरी तरह सटीक नहीं होते. इनमें तब्दीली करनी पड़ती है. यूं कि ‘चेहरा बदल जाएगा लेकिन नाम ग़ुम नहीं होगा.’ क्योंकि ज़िस्मानी तौर पर दुनिया छोड़ देने के बाद उस ज़िस्म में, उसी चेहरे के साथ वापस आना मुमकिन नहीं. यक़ीनी तौर पर रूह नए ज़िस्म, नए चेहरे के साथ वापस आएगी, दुनिया में. इस लिहाज़ से चेहरा तो यक़ीनन बदलेगा. लेकिन बावज़ूद इसके, दुनिया से इस क़िस्म की शख़्सियतों का ‘नाम गुम हो जाए’ ये भी मुमकिन नहीं. और नाम भूपिंदर सिंह हो, तब तो बिल्कुल भी नहीं. उन्हीं ने कहा है न ‘मेरी आवाज़ ही पहचान है’, वह रहेगी. उनकी शख़्सियत उनकी पहचान है. बनी रहेगी. कामयाबी तक उनका सफ़र उनकी पहचान है. बना रहेगा.
हालांकि ये आवाज़, ये गुलू-कारी (गायकी) हमेशा से उनकी पहचान नहीं थी. पहले भूपिंदर गिटार बजाया करते थे. और उससे भी पहले जब खेलने-कूदने के दिन थे, तो एक वक़्त इसी गाने-बजाने से दूर भागा करते थे. कुछ बरस पहले एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने ख़ुद बताया था, ‘मेरी पैदाइश (छह फरवरी, 1940 को) अमृतसर में हुई. मेरे वालिद साहब (नाथा सिंह जी) खालसा कॉलेज, अमृतसर में म्यूज़िक प्रोफेसर थे. बचपन वहीं गुज़रा. छोटा ही था, जब पिताजी दिल्ली आ गए. हम दिल्ली में रहे बहुत साल. मैं दिल्ली में बड़ा हुआ. संगीत विरसे (विरासत) में पिताजी से मुझे मिला. मैंने उसे आगे बढ़ाया. और कभी बचपन में होता है कि बच्चे खेलना चाहते हैं, जिस वक़्त, आप उनको बोलिए कि आप गाना सीखो, तो अच्छा नहीं लगता. किसी भी बच्चे को अच्छा नहीं लगेगा. मेरे साथ अक्सर ऐसा होता था कि जब मुझे खेलना होता तो प्रैक्टिस (रियाज़) का टाइम होता था.’
‘मुझे लगता है (अब) कि वो कुछ अच्छा ही था. वो किया तो अच्छा उसका फल मिला है. दिल्ली में ही फिर मैंने अपनी जो बेसिक एजुकेशन है, वो पूरी की. फिर 60, अर्ली 60, 62-63 में मुझे मदन (मोहन) साहब बॉम्बे ले के आए थे. मेरा पहला नग़्मा जो मैंने गाया, वह फिल्म ‘हक़ीक़त’ (1964) के लिए था. मदन साहब ने उसका संगीत दिया था. और मुझे पहला ब्रेक, इस तरह मदन साहब ने दिया था. और (मोहम्मद) रफ़ी साहब के साथ मुझे गाने का मौका मिला. मन्ना डे साहब थे. तलत महमूद साहब थे. उनके साथ गाने का मौका मिला. बड़ी ख़ुशी की बात थी. घबराहट भी थी. लेकिन बड़ा अच्छा नग़्मा बन पड़ा.’ जनाब, बीच में यहां एक दिलचस्प वाक़िये पर ग़ौर फ़रमाइए. स्कूल, कॉलेज की तालीम पूरी करने के बाद साल 1960 के आस-पास भूपिंदर साहब दिल्ली में ऑल इंडिया रेडियो में लग गए थे. वालिद से गुलू-कारी के साथ गिटार, वॉयलिन भी सीख लिया था.
बताते हैं, रेडियो पर गिटार बजाने का काम ही उन्हें दिया गया, जो उन्हें रास भी आया था. रेडियो में म्यूज़िक डायरेक्टर सतीश भाटिया के मातहत काम करते थे. उन्हीं सतीश साहब ने एक बार, जब मदन साहब दिल्ली आए, तो उनके लिए रात के खाने का इंतज़ाम किया था. मूसीक़ी की महफ़िल भी जमाई हुई थी. उसमें भूपिंदर ने गिटार बजाया और शायद कुछ गुनगुनाया भी. ‘धुनों के पारखी’ मदन साहब को एक झटके में ही समझ आ गया कि लड़का (भूपिंदर तब 21-22 बरस के होते थे) अच्छी तरह सीखा-समझा हुआ है. लिहाज़ा उन्होंने भूपिंदर को बॉम्बे बुला भेजा और ‘हक़ीक़त’ में नामी गुलू-कारों के साथ गाने का मौका दिया, ‘हो के मज़बूर मुझे, उसने बुलाया होगा’. इस तरह, पहली मर्तबा एक मखमली-सी आवाज़ सुनने वालों के कानों से होकर सीधे उनके दिलों में जा उतरी. आगे ब-क़ौल भूपिंदर साहब, ‘इस तरह अमृतसर से दिल्ली और फिर बॉम्बे का मेरा सफ़र हुआ.’
‘इंडस्ट्री में मुझे मदन साहब ज़रूर लेकर आए थे. पर ख़य्याम साहब (मूसीक़ार) ने मुझे सबसे पहला सोलो गवाया था- ‘ऋुत जवां जवां, रात मेहरबां’. बड़ा अच्छा ख़ूबसूरत सा अंग्रेजी टाइप का गाना था. वही, जो ‘आख़िरी ख़त’ (1966) में उन्होंने मेरे ऊपर ही पिक्चराइज़ किया था.’ इस नग़्मे को सुनकर देखिए, जनाब. इसमें भूपिंदर की गिटार-साज़ी से भी वाबस्त हो सकेंगे. और उनकी गिटार-साज़ी से और बेहतर तरीके से, बारीक़ियों के साथ वाबस्त होना हो, तो ‘हरे रामा, हरे कृष्णा’ (1971) फिल्म का मशहूर नग़्मा ‘दम मारो दम, मिट जाए ग़म’ सुन लीजिए. या फिर ‘यादों की बारात’ (1973) का नग़्मा ‘चुरा लिया है तुमने जो दिल को’. इन नग़्मों की धुनें ‘पंचम’ यानी राहुल देब बर्मन ने बनाई हैं. और भूपिंदर ने गिटार बजाया है, जो ‘पंचम’ की मंडली में अक्सर ही गिटार बजाया करते थे, ये कम लोग ही जानते हैं. ये गिटार-साज़ी भी भूपिंदर की शख़्सियत का अहम पहलू है.
और जनाब, ‘पंचम’ ने भूपिंदर साहब से सिर्फ़ गिटार ही नहीं बजवाया. उन्होंने भी उनसे नग़्मे गवाए और बहुत अच्छे-अच्छे गवाए. भूपिंदर ही फ़रमाते हैं, ‘आरडी बर्मन साहब ने ‘परिचय’ (1972) में मुझे सबसे पहले गाना गवाया था. लता जी के साथ मैंने गाया था. बड़ी अच्छी सेमी-क्लासिकल धुन थी उसकी. डुएट था वो. मैं आपको अकेला ही सुनाता हूं, ‘बीती न बिताई रैना, विरहा की जाई रैना’, बहुत पॉपुलर गाना है ये. आज भी जब हम स्टेज पर जाते हैं तो इस गाने की बड़ी फ़रमाइश आती है. बड़ा एहसानमंद हूं ‘पंचम’ आरडी बर्मन साहब का कि उन्होंने बड़े अच्छे-अच्छे गाने दिए मुझे गाने के लिए.’ सच है जनाब, ये नग़्मा भला किसने सुना या गुनगुनाया होगा, ‘हूज़ूर इस क़दर भी न इठला के चलिए’ (‘मासूस’ 1983). और वो, ‘दुक्की पे दुक्की हो या सत्ते पे सत्ता’ (‘सत्ते पे सत्ता’, 1982). इस तरह के ‘पंचम’ के तमाम नग़्मों में आवाज़ भूपिंदर साहब की ही है.
दूसरे मूसीक़ारों ने भी भूपिंदर की आवाज़ भरपूर अपने धुनों में, नग़्मों में इस्तेमाल की. मसलन- ‘एक अकेला इस शहर में, रात में और दोपहर में’. ये मशहूर नग़्मा ‘घरोंदा’ (1977) फिल्म का है. इसी फिल्म का एक और ‘दो दीवाने शहर में, रात में और दोपहर में.’ इनकी धुनें मशहूर मूसीक़ार जयदेव ने बनाई हैं. इसी तरह, ‘दिल ढूंढता है, फिर वही, फ़ुर्सत के रात दिन’. ये ‘मौसम’ फ़िल्म का नग़्मा है. इसकी धुन मदन मोहन ने तैयार की है. इस तरह हिन्दी सिनेमा के मुख़्तलिफ़ मूसीक़ारों ने भूपिंदर साहब की इस अलहदा-सी आवाज़ को जब, जहां, जिस वक़्त ज़रूरत हुई, सुनने वालों तक पहुंचाया. इस बाबत भूपिंदर फ़रमाते हैं, ‘बड़े अच्छे लोग मिले मुझे. इंडस्ट्री में जितने भी लोग मिले मुझे उन्होंने बहुत मोहब्बत, बहुत प्यार दिया. किसी से कहने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि मुझे काम दो. भगवान की इतनी मेरे पे मेहर (मेहरबानी) हुई कि बता नहीं सकता.’
‘मैंने जितना भी, जो कुछ भी किया है. जो मुझे मिला है, जो मैंने किया है, वो मेरे पास आया है. तो, मैंने कभी जा के कोई दरवाज़ा नहीं खटखटाया कि भई मैं गाता हूं या गिटार बजाता हूं. मुझे कुछ काम दीजिए. ऐसा मुझे नहीं करना पड़ा. क्योंकि लोगों ने इतना प्यार दिया. इतनी मोहब्बत दी कि मैं आज भी उन सबका शुक्रगुज़ार हूं.’ जनाब, भूपिंदर साहब का ये सिलसिला चल ही रहा था कि उनकी ज़िंदगी में एक ख़ूबसूरत मोड़ आया. ये साल 1983 की बात है. बांग्लादेश से तअल्लुक रखने वालीं मिताली मुखर्जी से उनकी आंखें चार हुईं और दोनों ने शादी कर ली. मिताली भी आला दर्ज़े की गुलू-कार हैं. लिहाज़ा शादी के बाद धीरे-धीरे भूपिंदर ने फिल्मों में गाना बंद-सा कर दिया. मिताली के साथ मिलकर ग़ज़लों के निजी एलबम निकालने लगे. इनमें ‘आरज़ू’, ‘चांदनी रात’, ‘गुलमोहर’, ‘ग़ज़ल के फूल’, ‘इक आरज़ू’ वग़ैरा ख़ूब मशहूर हुए. आगे चलकर इन दोनों का बेटा भी हुआ, निहाल. अच्छा मूसीक़ार है वह भी. हालांकि साज़ छोड़कर आज उसने मशाल थामी है.
बीती शाम, यानी 18 जुलाई को दुनिया से अलविदा कह गए अपने वालिद (भूपिंदर) के ज़िस्म को निहाल ने आग के हवाले किया है. उस ‘बेजान ज़िस्म’ के निशां मिटाए हैं. मगर जनाब, भूपिंदर सिंह के ‘नाम के निशां’ भला कौन ही मिटा सकता है? और कैसे? यक़ीन जानिए. जो रूह भूपिंदर सिंह के ज़िस्म को छोड़कर गई है न, उसे जल्द ही लौटना होगा. ज़िस्म बदलकर. चेहरा बदलकर. और जब तक लौटेगी नहीं, भूपिंदर के चाहने वाले उसे यूं ही पुकारा करेंगे, ‘किसी नज़र को तेरा इंतिज़ार आज भी है, कहां हो तुम कि ये दिल बेक़रार आज भी है’.
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Tags: Death, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : July 19, 2022, 15:13 IST