दास्तान-गो: गुजरात में एक ही साल में दो ‘महात्मा’ हुए उनमें एक कहलाए बप्पा ‘ठक्कर बप्पा’!
दास्तान-गो: गुजरात में एक ही साल में दो ‘महात्मा’ हुए उनमें एक कहलाए बप्पा ‘ठक्कर बप्पा’!
Daastaan-Go ; Birth Anniversary of Thakkar Bappa of Gujarat : वहां उन्होंने देखा कि आदिवासी समाज का एक जोड़ा (मियां-बीवी) भूख-प्यास से बिलख रहे अपने तीन बच्चों को मिट्टी में गाड़ने की कोशिश कर रहा है. वे दोनों ख़ुद भूख से तड़पते थे और अपने अधमरे बच्चों को उनकी जान निकलने से पहले ही दफ़्न करने का बंदोबस्त कर रहे थे. ताकि उन्हें यूं मरते हुए न देखना पड़े. यह देखकर ‘ठक्कर बप्पा’ की रूह कांप गई. उन्होंने झपटकर उन बच्चों को बचाया. उनके इलाज़, भोजन-पानी वग़ैरा का इंतज़ाम किया. और यहीं उन्होंने फ़ैसला किया कि अब नौकरी नहीं करनी है.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, तारीख़ में ऐसी मिसालें कम ही मिलती हैं जब एक ही जगह, एक ही साल में, कुछ दिनों-महीनों के फ़ासले से ‘महात्मा’ जैसी दाे शख़्सियतों की पैदाइश हो. अलबत्ता गुजरात में एक ऐसी मिसाल है. साल 1869 की. इस साल वहां डेढ़ महीने के फ़ासले पर दो ‘महात्मा’ पैदा हुए. पहले दो अक्टूबर को समंदर के एक छोर पर पोरबंदर में मोहनदास करमचंद गांधी. उन्हें दुनिया ने ‘बापू’ के नाम से जाना. और फिर 29 नवंबर को, पोरबंदर से क़रीब 300 किलोमीटर दूर समंदर के दूसरे छोर पर, भावनगर में अमृतलाल विट्ठलदास ठक्कर. उन्हें उनके उनके चाहने वालों ने ‘बप्पा’ कहा. ‘ठक्कर बप्पा’. और दिलचस्प ये कि उम्र में बड़े होने के बावजूद ‘बापू’ ख़ुद भी इन ‘ठक्कर बप्पा’ को ‘बप्पा’ ही कहा करते थे. जानते हैं क्यों? यक़ीनन इसका ज़वाब बहुत लोगों के पास ‘नहीं’ में ही होगा. क्योंकि वक़्त के साथ-साथ लोगों के ज़ेहन से, धीरे-धीरे जब ‘बापू’ की भी यादें धुंधली पड़ने लगी हैं, तो ‘ठक्कर बप्पा’ जैसी शख़्सियतों को कोई क्या ही याद रखेगा.
ख़ैर, आज मौक़ा है तो इस दास्तान के ज़रिए ‘ठक्कर बप्पा’ और उनके कामों को थोड़ा याद कर लेते हैं. थोड़ा इसलिए कि इस तरह की बड़ी शख़्सियतों को चंद लफ़्ज़ों में समेटना मुमकिन नहीं होता. तो जनाब, सुनिए. ये जो ‘ठक्कर बप्पा’ थे न, इन्हें ‘बापू’ भी ‘बप्पा’ यूं ही नहीं कहते थे. उनके काम ही इस तरह के हुए कि कोई भी उन्हें अपने वालिद की तरह इज़्ज़त देने को तैयार हो जाए. यहीं ध्यान दिलाते चलें कि गुजरात में पिता को, वालिद को ‘बप्पा’ भी कहा जाता है. और जनाब, ‘ठक्कर बप्पा’ ने पूरी ज़िंदगी, बल्कि आख़िरी सांस तक, हर किसी का पिता की तरह ही ख़्याल रखा. ख़ास तौर हरिजन और आदिवासी समाज के लोगों का. ठीक वैसे ही, जिस तरह महात्मा गांधाी रखा करते थे. लेकिन दिलचस्प ये कि महात्मा गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से हिन्दुस्तान लौटे भी नहीं थे, ‘ठक्कर बप्पा’ ने यहां हरिजन, आदिवासी समाज के हक़ में काम शुरू कर दिया था.
ये बात है 1890 के आस-पास की और ‘बापू’ हिन्दुस्तान लौटे थे, जनवरी 1915 में. वैसे, तब तक ‘बापू’ दक्षिण अफ्रीका में ‘रंगभेद-विरोधी आंदोलन’ की अगुवाई कर चुके थे. उसकी बुनियाद उन्होंने साल 1893 में डाल दी थी. इन बातों का चर्चा सब तरफ़ ही ख़ूब था. लेकिन इधर हिन्दुस्तान में, लगभग इसी वक़्त, बिना किसी शोरगुल के जिन्होंने हरिजन और आदिवासी समाज की भलाई के लिए काम शुरू किया, वे ‘ठक्कर बप्पा’ थे. तब तक ‘ठक्कर बप्पा’ इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर चुके थे. उन्होंने पूना इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री ली. वहीं उनका त’अर्रुफ़ बड़े समाजसेवी धोंडो केशव कर्वे से हुआ. उस ज़माने में कांग्रेस के बड़े नेता गोपाल कृष्ण गोखले से भी उनकी वाक़िफ़िय्यत होने लगी. यानी पढ़ाई करते-करते ही समाज के लिए कुछ कर गुज़रने की उनकी सोच लगभग तैयार हो गई थी. लेकिन उन्होंने पहले पढ़ाई पूरी की.
इसके बाद बताते हैं कि अंग्रेज सरकार ने जब उन्हें नौकरी दी तो सबसे पहले ‘बापू’ के गांव पोरबंदर भेजा. हालांकि अब तक ‘बापू’ से ‘ठक्कर बप्पा’ को कोई वास्ता बना नहीं था. और ‘ठक्कर बप्पा’ भी अभी ‘इंजीनियर’ अमृतलाल ठक्कर की सूरत में ही थे. बहर-हाल, इस सूरत में कुछ वक़्त पोरबंदर में गुज़ारने के बाद सरकार ने ‘ठक्कर बप्पा’ को भेज दिया युगांडा. वहां पहली रेल लाइन बिछाई जा रही थी. सो, उसी सिलसिले में काम के लिए. फिर वहां का काम पूरा हुआ तो सरकार ने उन्हें पहले सांगली और बंबई की म्युनिसिपैलिटी में तैनात किया. यहां इससे आगे का क़िस्सा बताने से पहले ये भी याद दिलाना ज़रूरी लगता है कि अंग्रेजों के दौर में गुजरात और महाराष्ट्र अलग-अलग नहीं होते थे. बल्कि ये दोनों ही इलाक़े बंबई सूबे का हिस्सा हुआ करते थे. तो जनाब, इस तरह इंजीनियर अमृतलाल ठक्कर पोरबंदर, युगांडा, सांगली होते हुए पहुंचे बंबई.
साल अब तक वही आ चुका था, 1893-94 का. यानी क़रीब-क़रीब एक साथ दक्षिण अफ्रीका में मोहनदास गांधी ने ‘बापू’ होने की राह पर क़दम बढ़ाया और इधर हिन्दुस्तान के बंबई में अमृतलाल ठक्कर ने ‘बप्पा’ होने की तरफ़. कहते हैं, उस दौरान इंजीनियर की हैसियत से ‘ठक्कर बप्पा’ एक बार बंबई की हरिजन बस्तियों में चल रहे काम का जाइज़ा लेने गए. वहां उन्होंने हरिजन समाज के लोगों की जब दुर्दशा देखी तो उनका दिमाग़ ही चक्कर खा गया. कई सवाल कौंध गए उसमें. यूं कि पूरे शहर की ‘गंदगी’ सिर पर ढोकर साफ़-सफ़ाई का बंदोबस्त करने वाले इन लोगों को ख़ुद कैसे मुश्क़िल हालात में रहना पड़ रहा है? कीचड़ से बजबजाती नालियों के बग़ल में? शहर से दूर गंदगी से भरे किन्हीं बदबूदार इलाक़ो में? जहां ये अक्सर बीमार होते रहते हैं, मर जाते हैं, पर कोई पूछता भी नहीं? आख़िर क्या है ये सब? क्या इनको सफ़ाई से रहने का हक़ नहीं?
कहते हैं, तब इन सवालों का कोई ज़वाब नहीं मिला ‘ठक्कर बप्पा’ को. सरकार के ग़लियारों से तो बिल्कुल भी नहीं, क्योंकि वहां तो दीगर हिन्दुस्तानियों की आवाज़ भी नक़्क़ार-ख़ाने में तूती सरीख़ी बनी हुई थी. तो फिर इन हरिजनों की कौन सुनता भला? लिहाज़ा, ‘ठक्कर बप्पा’ ने तय कर लिया कि वे इस हरिजन समाज के हालात सुधारने का बीड़ा ख़ुद उठाएंगे. उन्होंने इस जानिब काम भी शुरू कर दिया कि तभी एक और ऐसा वाक़ि’आ गुज़रा कि फिर अमृतलाल ‘इंजीनियर’ नहीं रह सके. बल्कि ‘ठक्कर बप्पा’ हो गए पूरी तरह से. दरअस्ल, 1896-97 और फिर 1899-1900 में लगातार हिन्दुस्तान के कई इलाकों में भयानक अकाल पड़ा. इन दोनों मौक़ों पर बंबई सूबे में अकाल का ख़ासा असर रहा. ख़ासकर देहातों और आदिवासी इलाक़ों में. साे, ऐसे ही एक दफा अकाल के हालात देखने को ‘ठक्कर बप्पा’ किसी आदिवासी इलाक़े में गए हुए थे.
बताते हैं, वहां उन्होंने देखा कि आदिवासी समाज का एक जोड़ा (मियां-बीवी) भूख-प्यास से बिलख रहे अपने तीन बच्चों को मिट्टी में गाड़ने की कोशिश कर रहा है. वे दोनों ख़ुद भूख से तड़पते थे और अपने अधमरे बच्चों को उनकी जान निकलने से पहले दफ़्न करने का बंदोबस्त कर रहे थे. ताकि उन्हें यूं मरते हुए न देखना पड़े. यह देखकर ‘ठक्कर बप्पा’ की रूह कांप गई. उन्होंने झपटकर उन बच्चों को बचाया. उनके इलाज़, भोजन-पानी वग़ैरा का इंतज़ाम किया. और यहीं उन्होंने फ़ैसला किया कि अब सरकारी नौकरी नहीं करनी है. हरिजन और आदिवासी समाज की नौकरी करनी है. उन्हीं की सेवा करनी है. इसके बाद ‘सर्वेंट ऑफ़ इंडिया सोसायटी’ यानी ‘भारत सेवक समाज’ में शामिल हो गए. यह बात है 1914 की. यह संगठन 1905 में गोखले साहब ने बनाया था. उन्होंने ही आगे चलकर ‘ठक्कर बप्पा’ को ‘बापू’ यानी महात्मा गांधी से मिलवाया.
हालांकि, जिस वक़्त ‘बप्पा’ का ‘बापू’ से मेल हुआ, ‘ठक्कर बप्पा’ आदिवासी और हरिजन समाज के बीच अपने कामों से मुल्क के बड़े हिस्से में मशहूर हो चुके थे. शायद यही वजह रही कि महात्मा गांधी ने जब शुरुआती दौर में छुआछूत के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू किया तो उस बारे में मशवरा ज़्यादातर ‘ठक्कर बप्पा’ से ही किया. इतना ही नहीं, बताते हैं कि महात्मा गांधी ने साबरमती आश्रम में, तमाम ए’तिराज़ को अनदेखा करते हुए, पहली बार एक हरिजन परिवार की तैनाती भी ‘ठक्कर बप्पा’ के कहने पर ही की थी. इसके बाद 1932 के आस-पास ‘बापू’ ने अपने सहयोगी घनश्याम दास बिड़ला की मदद से ‘छुआछूत निवारण संघ’ की स्थापना की तो इसका महासचिव उन्होंने ‘ठक्कर बप्पा’ को बनाया. इसी संगठन ने आगे ‘हरिजन सेवक संघ’ की सूरत ली, जिससे ‘ठक्कर बप्पा’ का नाता 20 जनवरी 1951 को उनके इंतिक़ाल तक बना रहा.
इस संगठन से जुड़ा एक वाक़ि’आ दिलचस्प है. बताते हैं एक बार ‘ठक्कर बप्पा’ को लगा कि महात्मा गांधी को अपनी मशहूरियत का फ़ायदा हरिजन, आदिवासी समाज के मुआमलों को देना चाहिए. लिहाज़ा उन्हें उन्होंने एक पत्र लिख दिया. इसमें मशवरा दिया कि ‘क्यों न इन समाजों की भलाई के लिए ‘बापू’ देशभर का दौरा करें’. इस बाबत उन्होंने सुझाया ही था, उम्मीद नहीं पाली थी. क्योंकि ‘बापू’ तब सियासी मसलों, आंदोलनों वग़ैरा में व्यस्त रहने लगे थे. लेकिन ‘बापू’ को ‘बप्पा’ का यह मशवरा ऐसा जंचा कि उन्होंने उन्हें ही इस दौरे का पूरा इंतज़ाम करने को कह दिया और जब बंदोबस्त हो गया तो उनको साथ लेकर निकल पड़े. यह बात है 1932-33 की, जब पूरे सालभर ‘बापू और बप्पा’ देशभर में छुआछूत के ख़िलाफ़ अलख जगाते घूमते रहे. हरिजन कोष के लिए पैसे इकट्ठे करते रहे. उनके लिए मंदिर, कुएं, धर्मशालाएं वग़ैरा खुलवाते रहे.
हालांकि, ऐसा भी कहा जाता है कि ‘ठक्कर बप्पा’ को आदिवासी समाज की चिंता आख़िरी दिनों में ज़्यादा रहने लगी थी. वैसे, वे तब तक ‘भील सेवा मंडल’, ‘गोंड सेवक संघ’, ‘वनवासी सेवा मंडल’ जैसे संगठन बना चुके थे. हरिजनों के साथ आदिवासियों के लिए भी सहकारी समितियों का इंतज़ाम भी कर दिया था. ताकि इनके ज़रिए इस समाज के लोग कर्ज़ के जंजाल से मुक्त हों. लेकिन फिर भी बताया जाता है कि वे ज़िंदगी आख़िरी सालों ‘हरिजन सेवक संघ’ के कामों से मुक्त होकर सिर्फ़ आदिवासियों के लिए काम करना चाहते थे. उन्होंने इस बाबत ‘बापू’ के सामने इच्छा भी जताई थी. लेकिन ‘बापू’ ने उनसे कहा, ‘बप्पा, आप हरिजन सेवक संघ का काम मत रोकिए. बल्कि उससे समय निकालकर आदिवासी कल्याण का काम करते रहिए.’ लिहाज़ा, बप्पा ने वही किया. और ऐसे ही कामों से वह क़द हासिल किया कि ‘बापू’ भी उन्हें ‘बप्पा’ कहते रहे हमेशा.
आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.
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Tags: Gujarat, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : November 29, 2022, 09:34 IST