दास्तान-गो : अब्दुल कलाम…जब ‘मिसाइल-मैन’ खुद ‘मिसाइल’ बन गए राष्ट्रपति चुनाव में
दास्तान-गो : अब्दुल कलाम…जब ‘मिसाइल-मैन’ खुद ‘मिसाइल’ बन गए राष्ट्रपति चुनाव में
Daastaan-Go ; APJ Abdul Kalam and Presidential Election- 2002 : जुलाई की 15 तारीख़ को हुई वोटिंग का नतीज़ा 18 को आया. कलाम साहब को 90 फ़ीसद के क़रीब वोट मिले. क़रीब 9,22,884 और 30 में 28 सूबों में उन्हें जीत मिली. जबकि सहगल को दो सूबों से 1,07,366 वोट मिले. करीब 10 फ़ीसद.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, हिन्दुस्तान अपने ‘मिसाइल-मैन’ को भला कैसे और क्यों ही भूला होगा. एपीजे अब्दुल कलाम, पूरा नाम- अवुल पाकिर जैनुलाब्दीन अब्दुल कलाम. ये जब साल 2002 से 2007 तक हिन्दुस्तान के सद्र-ए-रियासत यानी कि राष्ट्रपति रहे तो इन्हें एक और तमगा मिला था. ‘पीपुल्स प्रेसिडेंट’ का. माने ‘अवाम के चहीते राष्ट्रपति. और दिलचस्प यूं रहा कि ये दोनों ही तमगे उन्हें किन्हीं सरकारों ने नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान की ‘अवाम ने ‘अता किए थे. बदले में वे बहुत कुछ दे गए इस मुल्क को. ‘अग्नि’ जैसी मिसाइलों का हौसला, ‘परमाणु-बम’ की हिम्मत और वह सोच, जिसे अमल में लाकर हिन्दुस्तान आने वाले वक़्त में दुनिया के ताक़तवर मुल्कों में ख़ुद को सबसे आगे खड़ा कर सकता है. उनकी ख़ुद लिखी किताबों में इन तमाम चीज़ों से जुड़े मुख़्तलिफ़ (विभिन्न) क़िस्से कहे गए हैं.
इन्हीं क़िस्सों में एक राष्ट्रपति चुनाव से जुड़ा वाक़िया भी है. साल 2002 का, जब ‘मिसाइल-मैन’ खुद राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ‘किसी मिसाइल की तरह’ ही बन पड़े थे. उस वाक़िए का ज़िक्र आज दो वज़हों से मौजूं (उपयुक्त) और दिलचस्प हुआ है. पहली- आने वाली 18 जुलाई की तारीख़ में अगले राष्ट्रपति के चुनाव के लिए वोट डाले जाने हैं. और दूसरी- आज, यानी 15 जुलाई की ही तारीख़ थी, जब साल 2002 में राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोट डाले गए थे. उस चुनाव में ‘मिसाइल-मैन’ ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ में रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल से मुक़ाबला किया था. और तमाम अगर-मगर, गुणा-गणित को ज़मींदोज़ कर दिया था. बल्कि सिर्फ़ मुक़ाबले के दौरान ही नहीं, उसके पहले भी कलाम के नाम ने कुछ इसी तरह का असर दिखाया था. सियासी ग़लियारों में भी. आख़िर ‘मिसाइल’ का असर कुछ इसी तरह तो हुआ करता है.
कलाम साहब अपनी किताब ‘टर्निंग प्वाइंट्स : ए जर्नी थ्रू चैलेंजेज़’ में लिखते हैं, ‘ये 10 जून 2002 की बात है. मैं कुछ छात्रों और साथी प्रोफेसरों के साथ नई अनुसंधान परियोजना से जुड़ी मीटिंग में था. बैठक अन्ना विश्वविद्यालय (चेन्नई) के खूबसूरत परिसर में हो रही थी. बैठक से निपटने के बाद जब मैं अपने दफ्तर की तरफ बढ़ा तो कुलपति कलानिधि आदिनारायण ने मुझे बताया कि मेरे फोन की घंटी लगातार बज रही है. शायद, कोई मुझसे बात करना चाह रहा था. इसके बाद जब मैं दफ्तर में पहुंचा तो ज़ल्द ही फोन की घंटी फिर बजी. उस तरफ़ प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी थे. उन्होंने मुझसे कहा कि मेरे पास आपके लिए महत्वपूर्ण खबर है. मैं अभी गठबंधन के सभी नेताओं के साथ बैठक कर के आया हूं. हमने फैसला किया है कि देश के राष्ट्रपति के रूप में आपकी जरूरत है. आपकी सहमति चाहिए. मैं आपसे सिर्फ ‘हां’ सुनना चाहता हूं.’
कलाम लिखते हैं, ‘यह सुनकर मैंने कहा- वाजपेयी जी क्या आप मुझे दो घंटे का वक़्त देंगे? सोचने के लिए. और मेरी इच्छा यह भी है कि राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार के रूप में मेरे नाम पर सभी दलों में सर्वसम्मति हो जाए, तो बेहतर. इस पर वाजपेयी जी ने कहा- पहले आप अपनी सहमति दीजिए. फिर हम सर्वसम्मति बनाने के लिए दूसरे दलों से बात करेंगे. इसके बाद दूसरी तरफ़ से फोन रख दिया गया. मेरे पास सोचने के लिए बहुत कम समय था. मुझे अपनी सहमति जल्द देनी थी. फिर भी मैंने इस बीच अपने कुछ मित्रों से बातचीत की. उनमें कुछ सिविल सेवा के अधिकारी थे. कुछ राजनीति से जुड़े हुए भी. यही कोई 30 फोन-कॉल किए होंगे. ज़्यादातर लोगों की राय इस पक्ष में थी कि मुझे सहमति दे देनी चाहिए. लिहाज़ा, जब दो घंटे बाद फिर वाजपेयी जी का फ़ोन आया तो मैंने रज़ामंदी दे दी. उनसे कह दिया- मैं इस महत्वपूर्ण मिशन के लिए तैयार हूं.’
आगे क़िस्सा यूं बढ़ता है कि कलाम साहब की मंज़ूरी मिलने के बाद वाजपेयी जी ने उसी रोज़ कांग्रेस पार्टी की मुखिया सोनिया गांधी और उनके नज़दीकी नेताओं को अपने घर बुला भेजा. इस मसले पर बातचीत के लिए. वे लोग जब वहां पहुंचे तो वाजपेयी जी ने बताया कि उनकी पार्टी की अगुवाई वाले सियासी गठजोड़ ने कलाम साहब का नाम राष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवारी के लिए तय किया है. फिर पूछा भी कि आप लोगों को इस नाम पर कोई एतिराज़ तो नहीं? बताते हैं, यह सुनकर सोनिया गांधी को तुरंत भरोसा नहीं हुआ. उन्हें थोड़ा भरम हुआ था शायद कि क्या वाजपेयी जी और उनकी पार्टी वाक़’ई में एक ग़ैर-सियासी मुस्लिम शख़्सियत को अगले राष्ट्रपति चुनाव में उतार रही है! लेकिन जब वाजपेयी जी ने उन्हें यक़ीन दिलाया कि कलाम साहब का नाम सच में तय किया गया है और ये बदला नहीं जाएगा, तो सोनिया गांधी का भरम जाता रहा फिर.
उस वक़्त ऐसी तमाम सियासी मेल-मुलाक़ातों में जो अंदरख़ाने की चीज़ें घट रही थीं, उनके बारे में कुछ बड़ी मैगज़ीनों ने तफ़सील से क़िस्सा-गोई की थी, अगले कुछ दिनों में. इस तरह का एक क़िस्सा 24 जून 2002 की तारीख़ में लिखा गया था. ‘इंडिया टुडे’ में. इसमें बताया गया था कि सोनिया गांधी ने जब ‘मिसाइल-मैन’ के नाम पर अपनी मंज़ूरी दी तो कांग्रेस पार्टी की अ्गुवाई वाले गठजोड़ की ज़मीन पर दरारें साफ़ नज़र आने लगी थीं. इस गठजोड़ में समाजवादी और कम्युनिस्ट पार्टियों के बड़े अहम किरदार हुआ करते थे तब. इनमें समाजवादी की अगुवाई मुलायम सिंह यादव किया करते थे. उन्हें जब कलाम साहब के नाम का पता चला तो उन्होंने भी तुरंत अपनी रज़ामंदी दे दी. बल्कि वे तो उससे पहले ही कलाम को ये अहम ओहदा देने के हामी थे. लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियां मुतमइन (संतुष्ट) न थीं. ब-जाए, उनके कुछ नेता तो सख़्त ए’तिराज़ जता रहे थे.
अगले रोज, उस दौर में कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े लीडर हरकिशन सिंह सुरजीत के घर एक मुलाकात हुई. इसमें विपक्षी गठजोड़ के तमाम नेता जुटे. मुलायम सिंह भी गए. अपने अज़ीज़ अमर सिंह के साथ. बताते हैं, इस मुलाक़ात के दौरान सबकी राय सुनने के बाद हरकिशन सिंह सुरजीत ने सवाल किया, ‘तो फिर क्या होगा?’ तब किसी दूसरे नेता ने ज़वाब दिया, ‘अब हमारा गठजोड़ (कांग्रेस की अगुवाई वाला) बे-मा’नी हो गया है.’ इतना ही नहीं, कुछेक नेताओं ने मुलायम सिंह से भी नाराज़गी का खुला इज़हार किया कि उन्होंने उन सबसे अलग रुख़ लेते हुए कलाम साहब के नाम पर मंज़ूरी दी है. तब मुलायम सिंह बोले, ‘मैंने तो आप लोगों के सामने भी कलाम साहब का नाम लिया था. कि उन्हें अपनी तरफ़ से खड़ा कर लेते हैं. बल्कि उन्हें भारत रत्न देने की भी वक़ालत कर चुका हूं.’ बात कुछ बढ़ती कि अमर सिंह ने मामला साफ़ करने की कोशिश की फिर.
अमर सिंह ने तब उस मुलाक़ात के दौरान मौज़ूद नेताओं से कहा, ‘हमें हक़ीक़त का सामना करना चाहिए. लोग कलाम साहब के नाम पर ख़ुश हैं. वे सियासत करने वालों से ख़फ़ा हैं. हालात यूं है कि वे ‘अमर सिंह’ के नाम की जगह सचिन तेंदुलकर या इन्फोसिस के मुख़िया एनआर नारायण मूर्ति को कहीं अधिक तरज़ीह देंगे.’ मगर कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता अब भी मुतइन न हुए और इस गठजोड़ में कांग्रेस समेत कई पार्टियों के रास्ते अलग हो गए. कम्युनिस्ट और उनका साथ देने वाली कुछ पार्टियों ने कैप्टन लक्ष्मी सहगल को कलाम साहब के ख़िलाफ़ चुनाव में उतार दिया. लेकिन नतीज़ा जो क़रीब-क़रीब तयशुदा था, वही हुआ. जुलाई की 15 तारीख़ को हुई वोटिंग का नतीज़ा 18 को आया. कलाम साहब को 90 फ़ीसद के क़रीब वोट मिले. क़रीब 9,22,884 और 30 में 28 सूबों में उन्हें जीत मिली. जबकि सहगल को दो सूबों से 1,07,366 वोट मिले. करीब 10 फ़ीसद.
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