(डॉ. रमा सिंह/ Dr. Rama Singh)
मानव जीवन में जब भावों का अभाव होता है तब पीड़ा जन्म लेती है. यह पीड़ा जब मानव-मन को विभिन्न रूपों में सालती है तब कई कलाएं स्वतः स्फूर्त होती हैं क्योंकि मानव-मन कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में अभिव्यक्ति चाहता है. यह अभिव्यक्ति विविध कलाओं में होती है. कालान्तर में ये कलाएं ही उस देश, काल, स्थान की संस्कृति बन जाती हैं. इन कलाओं में भी वास्तु, नृत्य, संगीत व साहित्य ऐसी कलाएं हैं जो व्यक्ति के अचेतन में सोए भाव को जगाती हैं और सामाजिक व्यवहार में उसे अभिव्यक्त करती हैं. भारतीय दर्शन में वह लौकिक संसार ‘भवसागर’ कहलाता है यह ‘भव’ ही ‘भावों’ का जन्मदाता है और ‘भाव’ ही ‘भावनाओं’ का पालनकर्ता है. ‘भाव’ के बिना साहित्य अधूरा है. ‘भाव’ का गहन आनंद ही ब्रह्मानंद सहोदर कहलाता है.
शब्द, अर्थ, भाव, विचार और कल्पना साहित्य के उपकरण हैं. इनमें प्रथम शब्द व अर्थ के ‘भाव’ अधूरे हैं और बिना ‘भाव’ के शब्द व अर्थ निष्प्राण है. ये शब्द ही हमारी भावनाओं के संवाहक हैं. ये सारथी हैं उस परमसत्ता के जो हमें लौकिक जगत में सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् का ज्ञान देकर उस परमलोक तक ले जाते हैं जहां आनन्द-ही-आनन्द विराजमान है. इस आनन्द का आनन्द ‘गूँगे का गुड़’ है जिसे महसूस तो किया जा सकता है, व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. गीत, नवगीत, ग़ज़ल, कविता, क्षणिकाएं आदि उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम हैं. इनकी लयात्मकता, गीतात्मकता से बंधकर उसकी लेखनी नित नवीन रचना करती चलती है.
प्राचीनकाल से ‘दोहा’ जो काव्य का लघुत्तम छन्द है, अभिव्यक्ति में आज भी अपनी अस्मिता बनाए हुए है. कुल दो पंक्तियों में जो तेरह-ग्यारह मात्राओं से बंधी हुई हैं, भाव को अभिव्यक्त करना गागर में सागर भरना ही है. ये दो पंक्तियां ही उसका तन-मन-प्राण हैं, जिसमें दोहे का संपूर्ण व्यक्तित्व निहित है.
जाने कब से यह लघु छंद संघर्ष करते हुए पुनः अपनी ध्वजा हिंदी साहित्य में फहरा कर कह रहा है कि, ‘देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर’, अर्थात् हम दिखने में छोटे जरूर है पर हमारी मार बहुत गहरी है. अगर यह मार इतनी गहरी नहीं होती तो कबीर, रहीम, सूर, जायसी, तुलसी व बिहारी के दोहे आपके हृदय में बिराजे न होते और न समयानुसार स्वतः मुख से निःसृत होते. एक बीज की भांति विशाल वृक्ष का भाव दोहे में निहित रहता है; इसीलिए दोहे की लोकप्रियता प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल तक बनी हुई है.
आधुनिककाल में कई रचनाकार ‘दोहा’ लिख रहे हैं, उसकी सहजता, सरलता व सात्विकता ने कलमकारों को आकृष्ट किया है. दोहा भी आधुनिक ग़ज़ल की भांति पारम्परिकता से निकलकर नए परिवेश के साथ तादाम्य स्थापित कर रहा है. जहां नीतिगत दोहे हैं वहीं सामाजिक विखंडन व विद्रूपताओं पर कबीर की भांति शब्दों का घातक प्रहार भी कर रहे हैं. ये दोहे जहां प्रकृति की सुषमा है वहीं इन दोहां में कोमलता अपने सम्पूर्ण सौन्दर्य के साथ विराजमान है. दोहा स्वयं में पूर्ण, लघु तथा स्वतंत्रा इकाई है.
प्रसिद्ध कवि अशोक मैत्रेय का दोहा संग्रह ‘पकड़ो हाथ कबीर’ का शुभारम्भ ही ‘वाणी वंदन’ से किया गया है. कवि मां वाणी से प्रार्थना करता है कि उसे ऐसा आशीष मिले जिससे वह कुहासों को चीर रवि का प्रकाश ला सके-
चीर कुहासे बढ़ सकूं, लाऊं रवि को खोज।
तमस पराजित कर सकूं, ऐसा भर दे ओज।।
मेरे मन में है छिपे, भावों के अंबार।
मुझको दे आशीष मां, इनको दूं आकार।।
कवि जिस समाज में जी रहा है वहां स्वयं को अभिव्यक्त करना भी मुश्किल है, उसकी मुश्किल यही है कि वह द्वन्द्व का जीवन नहीं जीना चाहता, इसलिए मां से निवेदन करता है-
नहीं जानता क्या लिखूं, मन में चलता द्वन्द्व।
हाथ पकड़ मुझको सिखा, कलम चले निर्द्वन्द्व।।
कवि का का जन्म अनायास होता है ‘वियोगी होगा पहला कवि’ की भांति जब बाह्य जगत की पीड़ा हृदय को मथने लगती है, तब कविता के छंद स्वतः फूट पड़ते हैं, कवि कह उठता है-
ऐसा कुछ मीतर घंटे, टूट पड़े तटबन्ध।
तब मेरी यह लेखनी, रच देती नवछन्द।।
कविता का जन्म वैसे ही नहीं हो जाता. इसका जन्म तो प्रसव-पीड़ा के समान है. जब नई रचना सृजित हो जाती है तब कवि को जो सन्तुष्टि मिलती है उसका आभास ही कुछ और है-
बड़ा कठिन होता प्रसव, पीड़ित होते प्राण।
कविता लेती जन्म जब, तब मिलता है त्राण।।
आज के समय में कवि व कविताओं की बाढ़ आई हुई है, पर उस कविता में प्रायः संवेदना नहीं है, जिस कविता में संवेदना न हो वह कविता कैसी? कवि का जीवन ही कविता है-
कोरे कागज पर भरे, अजब अनूठे रंग।
जीवन उसका काव्य है, कविता जिसके संग।।
यही कारण है कि वह काव्य का दीप जलाकर घर-घर रोशनी बाँटना चाहता है, वह तोप व गोले के सम्मुख कविता को हथियार बनाना चाहता है-
आओ, हम सब बैठ लें मन चौबारा लीप।
घर-घर बांटे रोशनी, जला काव्य का दीप।।
नहीं तोप, बरछी नहीं, है पानी की धार।
पत्थर को बालू करे, कविता वह हथियार।।
कवि, कविता को हथियार क्यों बनाना चाहता है, कोई तो इसका कारण होगा. आज का सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक जीवन विद्रूपताओं से भरा हुआ है. समाज विखंडित हो रहा है. जाति-भेद, वर्ग-भेद, द्वेष, हिंसा, नफरत, घृणा, सभी मानव विरोधी भाव अपना सर उठाए हैं. राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है, संसद असंसदीय होती जा रही है. सारे सामाजिक सम्बन्ध जो पहले जीवन देते थे, प्रतिपल जीवन लीलने को तैयार हां तो कवि क्या करे? उसकी लेखनी स्वतः कह उठती है-
राजनीति वेश्या बनी, नेता बने दलाल।
अपराधी छैला बने, जीना हुआ मुहाल।।
नेता, बाबू अरु पुलिस, बन्दर हैं ये तीन।
अंधे, गूंगे, बधिर बन, माल रहे हैं बीन।।
भ्रष्टाचार यहां तक बढ़ गया है कि-
जैसे-तैसे हो रहा, सब सरकारी काम।
फाइल तक रेंगे नहीं, बिन पैसा बिन दाम।।
आजादी से पूर्व आजादी के दीवानों ने जब अपनी कुर्बानी दी होगी तब ये नहीं सोचा होगा कि जिस देश को स्वराज दिलाने का संकल्प उनके मन में है उसकी स्वराज्य के बाद कैसी दुर्दशा होगी. माली ही जब बाग को खायेगा तो बचायेगा कौन?
कौवा काटे हंस को ये कैसा अन्धेर।
उल्टी गंगा बह रही समय-समय का फेर।।
नदियां चली पहाड़ से, पहुंच सकी ना गांव।
उतनी-उसने बांट ली, जिसका जितना दांव।।
फूल सशंकित हो रहे, भ्रमर पड़े हैं मौन।
विपदा में उद्यान है, मुक्ति दिलाए कौन।।
यह मुक्ति का प्रश्न हर उस नागरिक के मन में है जो देशभक्त है, जो देश को विश्व के शीर्ष पर देखना चाहता है, पर जब भारत, भारत नहीं रहता, इन्डिया और हिन्दुस्तान में बँट जाता है तो कवि अपनी लेखनी को रोक नहीं पाता, कह उठता है-
ये है इनका ‘इण्डिया’, उनका ‘हिन्दुस्थान’।
मेरा भारत खो गया, होकर लहुलुहान।।
कवि का ‘भारत’ जो प्रकाश का पुंज है, ज्ञान का अपरिमित भण्डार है, अध्यात्म का उत्कर्ष है, दर्शन का आदर्श है. उस भारत की क्या स्थिति है? विकास के नाम पर करोड़ों डकारे जा रहे हो, फिर भी स्थिति नियंत्रित है, कैसी विडम्बना है-
नंगे तन, मूखे बदन, जीवन जाये बीत।
फुटपाथों पर जिन्दगी, है विकास की रीत।।
समाज नर व नारी रूपी दो पहियों पर चलता है. अगर एक पहिया बड़ा हो और दूसरा छोटा तो जीवन रूपी गाड़ी का चलना दुश्वार है, परन्तु जिस देश में नैतिकता का पतन हो गया हो, नारी सहभागिनी नहीं, भोग्या वस्तु समझी जाती हो, उस समाज का उत्थान कैसे संभव है? आज नारी अपनी रक्षा किससे व कैसे करे, जब घर ही लंका बन जाए-
घर-घर लंका हो गई, झाँक रहे शैतान।
आर्तनाद सीता करे, हैरत में हनुमान।।
पापी लीला रच रहे, मंच बना है देश।
रावण घूमें ठाठ से, धरे राम का वेष।।
कवि अशोक मैत्रेय उस पीढ़ी के रचनाकार हैं जब समाज के कुछ नैतिक मूल्य थे, अपनत्व था, भाईचारा था, रिश्ते-नाते थे और इस सबके ऊपर थी मां, ब्रह्मा के बाद सृष्टि की रचयिता. कवि के अचेतन में भी नारी मां के रूप में ही विराजमान है, कुछ दोहे दृष्टव्य हैं-
उमा-रमा-शचि-भारती, जिसमें सब मौजूद।
उस माँ का मैं अंश हूं, मेरा यही वजूद।।
माँ की ममता है बड़ी, छोटे हैं देवेश।
माँ के आगे सब झुकें, देव दनुज-दरवेश।।
माँ का आंचल निष्कलुष, देता छाँह-सदैव।
माँ की कर लो अर्चना, माँ देवों की देव।।
कवि ने अपने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे है, सत्य की अनुभूति ही उनका काव्य है, उनका कथन है. आज आर्थिक तंगी, बदहाली के कारण बेटे गांवों से महासागरों में और देश से विदेश जाने लगे है. ऐसे में उनके माँ-बाप की क्या मनःस्थिति है उसका सजीव चित्राण देखें-
चिट्ठी क्यों लाता नहीं, क्या है तेरी चाल।
क्यों चुप है तू डाकिए, सुना लाल का हाल।।
नौ-नौ आँसू रो रही मन में छाया क्लेश।
घर-आंगन सुनसान है, लाल गया परदेस।।
अंधी माँ आशा करे, बेटा आए पास।
लिए लकुटिया हाथ में, बैठा बाप उदास।।
‘पकड़ो हाथ कबीर’ में कवि की लेखनी जहां सामाजिक विद्रूपताओं, विसंगतियों के प्रति आग उगलती है वहीं वह भारतीय सांस्कृतिक पर्व होली और ऋतुओं के राजा वसंत को भी नहीं भूलती. कवि के मन का कोमल भाव इन दोहों में परिलक्षित होता है, साथ ही बिगड़ते ‘पर्यावरण’ पर भी उसकी लेखनी चल ही पड़ती है-
पनिहारिन पनघट चली, बंधन खुले अनंत।
धुंध कुहासे छँट गये, आये कंत बसंत।।
मेरा मन है रंग तो तेरा चित्त गुलाल।
दोनों मिलकर कर रहे अब तो खूब धमाल।।
प्रेम भक्ति के रंग है, श्रद्धा बनी गुलाल।
खेलूं तुमसे फाग अब, आ जाओ गोपाल।।
पर होली, बसंत जहां प्रेम के पर्व है वहीं समाज में नफरत की आग, अलगाव की आग भी शीर्ष पर है, मौसम बदहाल है, घर-घर शमशान है, तो कवि कैसे चुप रहे-
होली पर कैसे उड़े, केसर और गुलाल।
घृणा-द्वेष के ताप से, मौसम है बदहाल।।
इस बदहाल मौसम में अशोक मैत्रेय चाहते हैं-
मन माटी चन्दन बने, अरु सद्भाव अबीर।
तब कहना तुम गर्व से, होली खेल कबीर।।
‘पकड़ो हाथ कबीर’ दोहा-संग्रह में अधिकांश दोहे कबीर की भांति ही समाज की प्रत्येक विषम व्यवस्था पर प्रहार करते हैं. कवि की लेखनी ठुक-ठुक कर धीरे-धीरे नहीं चलती वरन् सीधे-सीधे हथौड़े का प्रहार करती है, वह उत्तेजना नहीं पैदा करती वरन् सोचने को बाध्य करती है. समाज का कोई भी अंग ऐसा नहीं है जिस पर दोहाकार की लेखनी ना चली हो-कुछ दोहे दृष्टव्य है-
जाति-पाँति अरु धर्म की चल तोड़ें दीवार।
समरसता-सद्भाव के, बन कर पहरेदार।।
भूल गए हैं लोग अब, सम्बन्धों के अर्थ।
तात-मात अरु भ्रात सब, लगते इनको व्यर्थ।।
लोकतंत्रा के दीप का, तेल चुराएँ चोर।
जागो बन्दो घेर लो, बिना मचाए शोर।।
वाणी के वंशज उठो, कलम उठाओ आज।
चिड़ियों को ताकत मिले, हायँ पराजित बाज।।
ऐसे एक नहीं अनेक दोहे इस संग्रह की शोभा बढ़ा रहे हैं, जो कवि की पीड़ा के साथ-साथ उसकी परिपक्व मानसिकता का भी परिचय देते हैं. भक्ति के दोहे, रामजन्मभूमि पर उनका चिन्तन, सामाजिक समरसता, सौहार्द्र पर भी कवि की लेखनी निरन्तर चली है. नई पीढ़ी की पाश्चात्यीकरण की सोच पर कवि व्यथित है. हमारा देश जो कभी धर्मगुरु कहलाता था, उसी देश की नई पीढ़ी स्वयं को पाश्चात्य रंग में रंग कर प्रसन्न हो रही है. उसे तो पता ही नहीं है कि विश्व को शून्य का ज्ञान भारत ने ही दिया था-
जगद्गुरु भारत रहा, दिया शून्य का ज्ञान।
पछुआ ने जब से ठगा, खोई निज पहचान।।
कवि अशोक मैत्रेय ने प्रत्येक दोहे में जहां जीवन के प्रेम रूप को चित्रित किया है वहीं संवेदनहीन होते जा रहे समाज की प्रत्येक स्थिति जो दिन-प्रतिदिन बदरंग होती जा रही है का भी विषद चित्रण किया है. अंततः कवि की चाहत है-
पाखंडों को तोड़कर खींचू नई लकीर।
पांव कभी फिसले नहीं, पकड़ो हाथ कबीर।।
‘पकड़ो हाथ कबीर’ संग्रह के दोहे छन्दशास्त्रा की दृष्टि से भी परिपूर्ण है. भाव के अनुसार शब्दों का संयोजन अप्रतिम है. भाषा लच्छेदार न होकर प्रायः अभियात्मक या व्यंजनात्मक है. अन्य भाषा के शब्दों से भी कवि को कोई परहेज नहीं है. भावों की संप्रेषणीयता ही कवि का मूल उद्देश्य है. प्रत्येक दोहा कवि के मन में जलती प्रचण्ड दाह का ही शाब्दिक प्रस्फुटन है. कवि अशोक मैत्रेय का यह प्रथम दोहा संग्रह वास्तव में प्रशंसनीय है.
Tags: Hindi Literature, Hindi Writer, New booksFIRST PUBLISHED : June 15, 2024, 12:22 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed