रोगी के जीवट साहस की कहानी है पारुल सिंह की पुस्तक ऐ वहशते दिल क्या कहूं

रोगी के जीवट साहस की कहानी है पारुल सिंह की पुस्तक ऐ वहशते दिल क्या कहूं
(डॉ. मधु संधु/ Dr. Madhu Sandhu) साहित्य ने जब-जब चिकित्सकों, वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को आकर्षित किया है, उन्होंने इसे शाश्वत ऊंचाइयों से ही जोड़ा है. मास्को मेडिकल कॉलेज से अपनी शिक्षा पूरी करने वाले एंटोन चेखव रूस के जाने-माने चिकित्सक होने के साथ विश्व प्रसिद्ध नाटककार और कथाकार रहे. कहते थे- चिकित्सा उनकी धर्म पत्नी है और साहित्य प्रेमिका. प्रवासी भारतीय माता-पिता की संतान अब्राहम वर्गीस मशहूर अमेरिकन चिकित्सक होने के साथ उपन्यासकार, संस्मरण लेखक भी हैं. वे मानते हैं कि चिकित्सा उनका पहला प्यार है और लेखन सीधे उसी से निकला है. हारवर्ड विश्वविद्यालय से एम. डी. करने वाले जॉन माइकल क्रिचटन नाटक, कहानिया, उपन्यास लिखने में रूचि रखते थे. ‘द जुरैसिक पार्क’ उनकी विश्व प्रसिद्ध रचना है. इन्फोसिस कंपनी की अध्यक्ष टाटा मोटर्स की पहली महिला इंजीनियर सुधा मूर्ति ने साहित्य को 32 पुस्तकें दी हैं. उपन्यास, कहानी, लघु कथा, यात्रा संस्मरण- सब पर लेखनी चलाई है. नौ उपन्यासों के रचयिता बेस्ट सेलर लेखक चेतन भगत ने दिल्ली प्रोद्यौगिकी संस्थान से मकेनिकल इंजीन्यरिंग की तालीम हासिल की थी. हिंदी ब्लोगिंग के आदि पुरुष रवि रतलामी टेक्नोक्रेट थे. हिंदी पठन और कविता, गजल, व्यंग्य, स्तम्भ लेखन में उनकी पैठ थी. नोएडा की पारुल सिंह भी हिंदी जगत का एक उभरता हुआ हस्ताक्षर हैं. वे विज्ञान की छात्रा रही हैं. अल्मोड़ा विश्वविद्यालय से बॉटनी में एम. एस. सी. हैं. ‘चाहने की आदत है’ उनका कविता संग्रह है. ‘ऐ वहशते दिल क्या कहूं’ पारुल का संस्मरणात्मक उपन्यास है. कहानी का आरंभ जुलाई, 2014 से किया गया है. जब 42 वर्षीय नायिका पहली बार अस्पताल में एडमिट हुई थी. पारुल पुस्तक की भूमिका में कहती हैं- “मैंने अपनी हार्ट सर्जरी के अनुभवों पर यह किताब लिखनी शुरू की. आजकल हम- मैं और मेरे पति ब्रजवीर सिंह जी, अलग- अलग शहरों में हैं तो मैं दिन भर का लिखा उन्हें भेजती. सर्जरी के समय हम दोनों साथ थे.” लिखने में, साफगोई में पति का हाथ प्रमुख रहा- “जो बात कहते डरते हैं सब, तू वो बात लिख/ इतनी अंधेरी थी न कभी पहले रात, लिख जिनसे कसीदे लिखे थे वो फेंक दे कलम/ फिर खूने दिल से सच्चे दिल की शिफात लिख.” जुलाई, 2014 से नायिका पारुल सिंह तकलीफ में है. सांस की तकलीफ है, चक्कर आते हैं, सूजन है, बाल गिरते हैं, बेहोशी-सा भी कुछ है. डॉक्टर इसे पैनिक अटैक कह स्ट्रैस और डिप्रेशन की दवाई देते रहते हैं, खुश रहने के लिए कहते हैं और रोग बढ़ता जाता है. सितंबर 2017 की इकोकार्डियोग्राफी बताती है कि दिल का एक वॉल्व बुरी तरह लीक कर रहा है और सर्जन ही बताएगा कि ओपन हार्ट सर्जरी करके इस वॉल्व की मरम्मत करनी है या इसे बदलना है. सर्जरी के लिए वह नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट, दिल्ली में दाखिल होती है. पता चलता है कि देर हो जाने के कारण वॉल्व रिपेयर का ऑप्शन नहीं रहा. अब एनिमल टिशू से बना मकेनिकल वॉल्व लगेगा. पन्द्रह परिच्छेदों का यह संस्मरणात्मक उपन्यास रोगी के जीवट की, साहस की कहानी है. स्मृतियों से आच्छन्न पूर्वदीप्ति शैली ने, गीत- ग़ज़ल- शेर ने, अतीत के रोचक प्रसंगों ने, परामनोविज्ञान की अलौकिक अनुभूतियों ने दुख की इस गाथा में साहित्य रस का सानुपातिक मिश्रण कर दिया है. ‘जिंदगी के युद्ध की रूमानी कहानी’ में पंकज सुबीर लिखते हैं– “यह किताब लड़ना नहीं सिखाती, बल्कि आनंद के साथ लड़ना सिखाती है. जो कुछ हो रहा है, उस पर यदि आपका वश नहीं है, तो उसका आनंद लेना चाहिए. यह दुख की कहानी है, मगर इसमें दुख कहीं नहीं है. दुख अगर इस कहानी को पढ़ ले तो स्वयं हैरत में पड़ जाये कि मेरी कहानी में मुझे ही नगण्य कर देने वाला कौन लेखक है.” यह छह- सात घंटे की ओपेन हार्ट सर्जरी है. बाद में ढेरों मशीनों, अक्सिजन मास्क, कई तरह के दर्द, जागते रहना, लंबी सांस लेने का आदेश है. रोगी एक- एक घूंट पानी के लिए तड़पता है और जब नारियल पानी मिलता है, तो लगता है मानो ब्रह्मभोज मिल गया. हृदय की शल्य चिकित्सा के साथ मृत्युभय का वह पक्ष जुड़ा है, जो व्यक्ति के अपनों के प्रति मोह को पहले ही समाप्त कर देता है. यह आई. सी. क्यू. है. सब व्यस्त हैं- मरीज कराहने में और नर्स, डॉक्टर तीमारदारी में. अनेक डॉक्टरों का जिक्र हैं– कार्डियक सर्जन डॉ. विकास अग्रवाल, सहायक डॉ. अमिता यादव, अनेस्थेटिस्ट डॉ. रचिता धवन, डॉ. गुलिस्तां, फिजिओथैरेपिस्ट, नर्स संगमा, कृष्णा, मेल नर्स, कैंटीन के लोग भी हैं. मां, पापा, पति और मित्रगण हैं. सुदेश जी, मुरादाबाद का चौंकी इंचार्ज धोरासिंह जैसे अन्य रोगी हैं. दवाइयों के साइड एफ़ेक्ट्स, एनेस्थीसिया, दर्द निवारक दवाए, मसल्स रिलेक्सेट्स आदि मिलकर अनेक परेशानियां उत्पन्न कर रहे हैं. नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट नई दिल्ली की आई. सी. क्यू. में पड़ी नायिका पारुल का संवेदनशील मन वस्तु बनने से विद्रोह कर रहा है. उसके सर्जन डॉ. विकास हैंडसम हैं, आत्मविश्वास और गर्व से भरपूर हैं. दृष्टि सपाट, सर्जरी पर पूरा फोकस, रोगी के बारे में सब कुछ कंठस्थ, सिनसियर, आर्गनाइज्ड, लंबे- ऊंचे, रोबोटिक. उन का दौड़ता हुआ-सा हृदयहीन, मकैनिकल काफिला दनदनाता हुआ आता है. उनके बोलने का लहज़ा सपाट-सा है. सर्जन और रोगी का अद्भुत रिश्ता है- वह डॉक्टर के लिए मात्र एक रोगी है और डॉक्टर, रोगी के लिए जीवन दाता, भगवान, खेवनहार है. पारुल उनमें अपनापन ढूंढती है. लेकिन डॉक्टर को मरीज का उत्तर या बात सुनने की आदत ही नहीं. मरीज सिर्फ मरीज है, उसका कोई रुतबा नहीं, वह शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप में भी अनेक चुनौतियों से नित्य जूझता है. क्या मरीज का कोई आत्मसम्मान नहीं होता? मृत्यु और जीवन के बीच झूल रही पारुल अपने डॉक्टर के गले लगना चाहती है. लेकिन डॉक्टर रोबोट-सा व्यक्तित्व लिए है. समझिए कि मरीज का भी वस्तुकरण हो चुका है. उसे वार्ड से आई. सी. यू. अथवा आई. सी. यू. से वार्ड में भेजा नहीं जाता, हैंड ओवर किया जाता है. उसे आई. सी. यू. एक सोलो ट्रिप-सा, प्रवास-सा लगता है. भले ही मानसिक तौर पर पूरा परिवार आपके साथ हो, लेकिन शारीरिक स्तर पर आप अकेले ही होते हो. ऐसे में फिजियोथेरेपिस्ट का संवेदनशील व्यवहार और पति का स्नेह तथा अपनापा पारुल के अंदर आत्मविश्वास उत्पन्न करते हैं. मृतप्राय: जीवट में संजीवनी भरते हैं. डॉ. अमिता तो हर रोगी के दर्द से तादात्म्य की क्षमता लिए है. बेटियों की स्मृति क्षमताबोध देती है. सर्जन के रूखे और अपमानजनक व्यवहार के बाद पारुल को पति बी. वी. का आना ऐसे लगता है जैसे किसी मेले में अकेले खोये हुये व्यक्ति को कोई अपना मिल गया हो, जैसे चारों ओर कोई खुशबू फैल गई हो. फ्लैश बैक, पुरानी स्मृतियां, अतीत की यात्रा पठनीयता में रोचकता भरते है. आई. सी. यू. में प्यास की तीव्रता पारुल को दशकों पूर्व की उस यात्रा पर ले जाती है, जब दिल्ली से हल्द्वानी जाते लैंड स्लाइड के कारण बस रुकी थी. वह नाशपतियां तोड़ कर लाई थी, बहुत प्यास लगी थी और बोतल में पानी देख वह प्रसन्न भी हुई थी और विस्मित भी. ऑपरेशन थिएटर में पारुल बड़ी बेटी की ड़िलीवरी के समय यानी तेईस की उम्र में सात माह के बाद बाद हुए सिजेरियन की स्मृतियों में चक्कर लगाने लगती है. जब बार-बार लंबी सांस लेने के लिए कहा जाता है तो वह अपने बचपन में पहुंच जाती है. जब वह और मनोज सांस रोक कर साँस बचाने का जुगाड़ किया करते थे. अपने शरीर की बनावट पर यह सुनने पर कि ब्रेस्ट भारी होने के कारण फेफड़े ठीक से काम नहीं कर रहे, जख्म भर नहीं रहा, वह आहत होती है, और वय: संधि काल की स्कूली स्मृतियां ताजा हो आती हैं, तब भी वक्ष के इसी भारीपन ने उसे वर्षों परेशानी में डाले रखा था. नींद में अस्पताल की सीढ़ियां पारुल को दशकों पूर्व की कॉलेज की सीढ़ियों तक ले जाती है, जब वह मेरठ के रघुनाथ कॉलेज में बी. एस. सी. की मस्त किशोर छात्रा थी. लिखती हैं- “मेहरबां हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक्त मैं गया वक्त नहीं हूं कि फिर आ भी न सकूं.” उपन्यास में कुल 15 परिच्छेद हैं और हर परिच्छेद का आरंभ एक शेर से होता है- “हजारों ख्वाइशें ऐसी कि हर ख्वाइश पे दम निकले बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले.” गहन असहनीय दर्द में भी पारुल मन ही मन गीत गाती रहती है, क्योंकि गानों में डूबा होना दर्द में डूबने से ज्यादा अच्छा है. दर्द से जूझने के लिए वह म्यूजिक थैरेपी का प्रयोग करती है. रेडियो से साहिर के गीतों की आवाज उसे बांधती है. मरीज का डॉक्टर और नर्स से रिश्ता एक विश्वास का होता है. जैसे पारुल डॉ. विकास में अपनापा ढूंढती है, वैसे ही रोगी धोरासिंह पर एक नर्स का ‘हुन्न बोलो’ जादू कर रहा है- “जादू था जो आदिकाल से किसी भी स्त्री के समक्ष पुरुष को बेचारा, निरुपाय बनाता आया है. पुरुष स्वभावत: स्त्री के किसी भी रूप के समक्ष आशा भरी निगाहों से ही देखता है. उसे लगता है उसी के पास हल है उसकी सारी समस्याओं का. भरण- पोषण की दुरूह कंटीली धूप-सी जिम्मेदारियों से व्याकुल वह थोडी नर्म छांव सदा अपने जीवन में वह स्त्रियां में ही तलाशता व पाता है. पुरुष स्वभाव अपनी भावनाओं को प्रकट न कर पाने के लिए शापित है, ऐसे में स्त्री चाहे किसी भी रिश्ते में हो , जब उसका अनकहा समझती है तो उसके समक्ष आँख मूँद आराम पाता है.” उपन्यास में परामनोविज्ञान के अनेक प्रसंग मिलते हैं. परिच्छेद तीन में सर्जरी के लिए पारुल को बेसुध किया जा चुका है. उसका दिल और फेफड़े बंद पड़े हैं. उन्हें ‘पी. सी. बी.’ तकनीक यानी मशीनों से चालू रखा हुआ है. ऐसे में एक परा मनोवैज्ञानिक शक्ति पारुल की आत्मा को अस्पताल के प्रथम तल पर बैठे परिजनों के पास ले आती है. वह पति की अंतरचेतना से सामंजस्य स्थापित कर उसे पढ़ने लगती है. परिच्छेद 6 में आया परामनोविज्ञान का प्रसंग मृत्यु भय से जुड़ा है- “अचानक मुझे ऐसा लगा कि मुझ से यह धरती छूट रही है अब मैं इस ब्रह्मांड पर वापिस नहीं आऊंगी, पता नहीं कहां चली जाऊंगी. नीची छूटती जाती धरती से दूर होते जाना देख रही थी.” परिच्छेद 12 में बेचैन पारुल हठधर्मी डॉ. विकास के आदेश से परेशान हो मां को याद करती है और तभी डॉक्टर का उसके हक में निर्णय आ जाता है और उसे लगता है मां ने ही डॉक्टर की अंतश्चेतना को प्रभावित कर यह निर्णय करवाया है. पारुल का विश्वास है कि “माँ के साथ हम टेलीपैथी से जुड़े होते हैं.” कहते हैं कि भगवान ने स्त्री को बड़ी फुरसत से बनाया है, लेकिन उसके जीवन में फुर्सत के पल लिखना ही भूल गया है. कामकाजी स्त्री को तो मशीन ही मान लो. स्त्री भले ही डॉक्टर हो, उसे घर जाकर भी, रविवार को भी काम करना होता है. डॉ. रचिता को अस्पताल का काम थकान नहीं देता, घर का काम- सफाई, कपड़े, खाना- जैसे थैंकलैस काम थका देते हैं और पति आम पतियों की तरह न बाहर से काम करवाने देते हैं, न ढंग की मशीन लेने देते हैं और न स्वयं कोई मदद करवाते हैं. नायिका की कॉलेज हॉस्टल की सबसे मेघावी सहपाठिन अनीता की भी बात करती है. पढ़ाई छूटी, सात बहनों के भाई से शादी हुई और वह हाउस वाइफ बनकर रह गई. पल्मोनलाजिस्ट, एनेस्थेटिस्ट , एंजीओग्राफी , कार्डियोपलमोनरी बाईपास, परफ्यूजनिस्ट, लंग्स का एसपिरेशन, माइट्रल वॉल्व, मिनिमली इनवेसिव सर्जरी, परफ्यूजनिस्ट, इन्सिजन, एस्टर्नम, रूमेटिक हार्ट डिजीज, माइल्ड ट्रायकस्पिड, कैल्सिफिकेशन, कैथेटर जैसे अनेकानेक मेडिकल के शब्द उपन्यास में समाहित हैं. उपन्यास में आई सूत्रात्मकता लेखिका के प्रौढ़ चिंतन का परिणाम है। जैसे- – जो बात लफ्जों के बिना कही जाती है, वो ही सबसे ज्यादा महत्व की होती है. वो इस दुनिया की सबसे खूबसूरत बात होती है. – दो तरह की मुस्कुराहटें होती हैं अमूमन. एक में तो चेहरा ही मुसकुराता है केवल, और दूसरी मुस्कुराहट वो होती है जिसमें चेहरे के साथ आँखें भी मुस्कुराती हैं. – बीमारी के साथ मर जाना बीमारी को खत्म करने का छोटा और आसान रास्ता था. – जितनी अपनी हिम्मत बढ़ाते हैं ऊपर वाला उतने ही बड़े इम्तिहान लेने लगता है. – कितना अभिमानी होता है इंसान, सामने मौत खड़ी हो तो भी उसे अपने अहं की रखवाली जरूरी लगती है. – मम्मी के कुछ विश्वास- अंधविश्वास भी हैं. जैसे नाम लेने से लोग पास और पास आ जाते हैं. मरे हुये लोग सिरहाने आ बैठते हैं तो मौत आती है. पौराणिक प्रतीक भी आए हैं, जैसे- कामधेनु के सहारे वैतरनी पार करने की जुगत. यह संस्मरणात्मक उपन्यास है. पारुल सिंह ने आसन्न अतीत के सुरक्षित पड़े अंधेरे में प्रवेश किया है. जिये हुये अतीत को पुन: जिया है. हिंदी में संस्मरणात्मक उपन्यासों की शुरुआत सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के ‘कुल्लीभाट’ से मानी गई है. रामदेव धुरंधर का ‘अपने रास्ते का मुसाफिर’ आत्म संस्मरणात्मक उपन्यास है. मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ भी आत्मकथात्मक है. मृदुला गर्ग के ‘ये नायाब औरतें’ में यादों के पेंडोरा बॉक्स से निकाले गए नायाब किस्से हैं. (समीक्षक डॉ. मधु संधु अमृतसर, पंजाब स्थित गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष रही हैं.) Tags: Hindi Literature, Hindi Writer, New booksFIRST PUBLISHED : June 15, 2024, 11:11 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
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