भारत को डरा रहा मुफ्त संस्कृति का भूत इस प्रतिस्पर्धा के हो सकते हैं गंभीर परिणाम
भारत को डरा रहा मुफ्त संस्कृति का भूत इस प्रतिस्पर्धा के हो सकते हैं गंभीर परिणाम
जैसा कि हम श्रीलंका और पाकिस्तान से सीख रहे हैं, राजकोषीय लापरवाही कहर बरपा सकती है. दोनों देशों ने अच्छे समय में भारी खर्च करने पर भरोसा किया, जैसे कि कल आने वाला ही नहीं है. और अब श्रीलंका अपने इतिहास में पहली बार कर्ज चुकाने की स्थिति में नहीं रहा, आर्थिक दिवालियापन का सामना कर रहा है. जबकि पाकिस्तान दिवालिया होने की कगार पर है. यह उनके पतन के कारणों के बारे में बात करने की जगह नहीं है. लेकिन, इसकी जड़ में कर्ज का अस्थिर स्तर प्राथमिक कारण है.
आदित्य कुवलेकर: एक भूत भारत को डरा रहा है. वोट के बदले में मुफ्त सेवाओं का भूत . दिल्ली मॉडल की नकल करते हुए, पंजाब सरकार राजस्व में गिरावट और बजटीय घाटा (जब सरकार राजस्व प्राप्ति से अधिक व्यय करती है, तो इस स्थिति को बजटीय घाटा कहते हैं. यानी कुल राजस्व और कुल व्यय का अंतर बजटीय घाटा होता है) बढ़ने के बावजूद, इस महीने की शुरुआत से सभी को प्रति माह 300 यूनिट मुफ्त बिजली वितरित कर रही है.
इलेक्शन के दौरान किए गए अपने वादे को निभाते हुए पंजाब सरकार ने दिखा दिया है कि तत्काल चुनावी लाभ के लिए इस देश के युवाओं के भविष्य से समझौता करने में उसे कोई दिक्कत नहीं है. ऐसे समय में जब भारतीय अर्थव्यवस्था साफ.सुथरी बैंकिंग प्रणाली के साथ उड़ान भरने की तैयारी कर रही है, अगर ‘वोट के बदले मुफ्त की संस्कृति’ देश के अन्य हिस्सों में फैलती है, तो इसके नतीजे गंभीर और लंबे समय तक परेशान करने वाले हो सकते हैं. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी इस संस्कृति से देश के लिए गंभीर खतरे को भांपते हुए, इसे ‘गंभीर मुद्दा’ करार दिया है.
लापरवाही के पैमाने को समझने के लिए, किसी को पंजाब की वित्तीय स्थिति से आगे देखने की जरूरत नहीं है. मुफ्त बिजली नीति से पंजाब के राजस्व पर प्रति वर्ष लगभग 1500 करोड़ रुपये का वित्तीय भार पड़ने का अनुमान है. मेरी राय में, इस वित्तीय भार को कम करके आंका जा रहा है. दिल्ली में इसी तरह की योजना पर सालाना 3,200 करोड़ रुपये का खर्च आता है. चूंकि दिल्ली की तुलना में पंजाब कहीं बड़ा राज्य है, इस कारण लागत 1500 करोड़ से कहीं अधिक होने की संभावना है. लेकिन अगर अनुमानित लागत को ही ध्यान में रखें तो यह रकम पंजाब के 2021-22 के राजस्व घाटे के अनुमान का लगभग 7-8% है. वास्तव में, पंजाब में 2021-22 में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के प्रतिशत के रूप में सबसे अधिक बकाया सार्वजनिक ऋण होने का अनुमान है.
और यह राज्य की ऑफ बैलेंस शीट उधारी को से अलग है, जो पूरी तरह से अलग सिरदर्द है. यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा कि पंजाब सरकार इस खर्च का वित्तपोषण कैसे करेगी, यदि वह और अधिक उधार नहीं लेती है या अकाउंटिंग में किसी प्रकार घालमेल नहीं करती है तो? इस अस्थिर ऋण का सरकारी कर्मचारियों को वेतन भुगतान में देरी के रूप में स्पष्ट रूप से प्रभाव पड़ा है. इस अस्थिर ऋण का सरकारी कर्मचारियों को वेतन भुगतान में देरी के रूप में स्पष्ट रूप से प्रभाव पड़ा है. पंजाब रोडवेज परिवहन निगम वेतन में देरी को लेकर कई बार हड़ताल कर चुका है, हाल ही में जून में. क्योंकि सरकार मई के महीने में संविदा कर्मचारियों को वेतन देने में असमर्थ रही थी. मई की भीषण गर्मी में संविदा कर्मचारियों को पंजाब सरकार ने अधर में लटका कर छोड़ दिया.
पंजाब आर्थिक मोर्चे पर जब तक अपनी गलतियों को नहीं ठीक करता, तब तक उसके सामने ऐसी स्थितियां आती रहेंगी. और तब तक, एक पंजाब सरकार अद्वितीय प्रचार तंत्र से लैस होकर अपनी विफलताओं के लिए कुछ बाहरी ताकतों को दोषी ठहराएगी. लेकिन इसमें एक या पांच साल लग सकते हैं. हालांकि, व्यापक बिंदु यह है कि भले ही पंजाब की आर्थिक स्थिति इतनी खराब न हो, लेकिन क्या इसके नागरिकों को . या देश के किसी अन्य हिस्से के नागरिकों को 300 यूनिट मुफ्त बिजली की आवश्यकता है.
हालांकि, व्यापक बिंदु यह है कि भले ही पंजाब की आर्थिक स्थिति इतनी खराब न हो, लेकिन क्या इसके नागरिकों को . या देश के किसी अन्य हिस्से के नागरिकों को 300 यूनिट मुफ्त बिजली की आवश्यकता है. चीजों को परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए, मुफ्त बिजली मॉडल के पीछे की प्रेरणा दिल्ली में एक औसत परिवार प्रति माह 250 270 यूनिट बिजली की खपत करता है. क्या यह जनता के पैसे का सबसे अच्छा उपयोग है? क्या इस पैसे को स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों तक लोगों की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए बेहतर तरीके से खर्च नहीं किया जा सकता था?
इसके अलावा, जो लोग यह तर्क देते हैं कि दिल्ली जैसे रेवेन्यू सरप्लस स्टेट में यह बिजली सब्सिडी हानिरहित है (जिसे जीएसटी के माध्यम से अप्रत्याशित लाभ भी मिला है), उनको अवसर लागत के बारे में सोचने की जरूरत है. दिल्ली के पास अपने पुलिस बल पर कोई पैसा खर्च नहीं करने का विलास है. अगर कोई दिल्ली पुलिस के बजट को ध्यान में रखता है, तो दिल्ली के रेवेन्यू सरप्लस रहने की संभावना नहीं है. इसलिए, राज्य सरकार का यह दावा भ्रामक है.
भारत में कुछ अन्य राज्य हैं जो अपने पुलिस बल के लिए भुगतान करते हैं और फिर भी रेवेन्यू सरप्लस हैं. और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सिर्फ इसलिए कि दिल्ली रेवेन्यू सरप्लस स्टेट है, क्या राज्य सरकार को बिना किसी दीर्घकालिक लाभ वाले खर्चों के वित्तपोषण पर राजकोष का पैसा खर्च करना चाहिए? उदाहरण के लिए डीटीसी को लेते हैं. क्या इन पैसों से उन 5,000 बसों को डीटीसी की फ्लीट में जोड़ना ज्यादा लाभकारी नहीं होगा, जिनका दिल्ली सरकार ने वादा किया था? या क्यों न इसे गरीब लोगों के लिए भोजन सुनिश्चित करने पर खर्च किया जाए, जिन्हें दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती.
जैसा कि हम श्रीलंका और पाकिस्तान से सीख रहे हैं, राजकोषीय लापरवाही कहर बरपा सकती है. दोनों देशों ने अच्छे समय में भारी खर्च करने पर भरोसा किया, जैसे कि कल आने वाला ही नहीं है. और अब श्रीलंका अपने इतिहास में पहली बार कर्ज चुकाने की स्थिति में नहीं रहा, आर्थिक दिवालियापन का सामना कर रहा है. जबकि पाकिस्तान दिवालिया होने की कगार पर है. यह उनके पतन के कारणों के बारे में बात करने की जगह नहीं है. लेकिन, इसकी जड़ में कर्ज का अस्थिर स्तर प्राथमिक कारण है.
इस तरह के आर्थिक पतन गरीबों पर भारी पड़ रहे हैं. इस तरह की स्थिति आने पर अक्सर वही सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं. उदाहरण के लिए, पेट्रोल की कीमतों में 10% की बढ़ोतरी, और इसी तरह अन्य चीजों की कीमतों में वृद्धि, एक अमीर व्यक्ति को ज्यादा परेशान नहीं करती है. लेकिन इससे एक गरीब परिवार अपने बच्चों के स्वास्थ्य या शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर अपने खर्च में कटौती करने को मजबूर हो सकता है.
हालांकि, इस मॉडल के साथ सबसे आसन्न खतरा पंजाब या दिल्ली तक सीमित नहीं है. एक भयंकर प्रतिस्पर्धी लोकतंत्र में, हर साल किसी न किसी राज्य में चुनाव होने के साथ, अन्य राजनीतिक दल भी चुनावी सफलता के लिए इस मॉडल का पालन करने के लिए प्रेरित हो सकते हैं. यह देखना दिलचस्प होगा कि कोई राजनीतिक दल चुनावी प्रलोभन का विरोध करे. क्योंकि अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए, पार्टियां प्रचार के दौरान किए गए अपने गैर-जिम्मेदाराना वादों को भी पूरा करने की दौड़ में शामिल हैं.
राजनीतिक दलों के बीच ’मुफ्त की संस्कृति’ की प्रतिस्पर्धा का परिणाम अनुसंधान एवं विकास व्यय, स्वास्थ्य व शिक्षा व्यय और रक्षा व्यय में कमी के रूप में देखने को मिलेगा. राजनीतिक दलों के बीच ‘मुफ्त की संस्कृति’ की प्रतिस्पर्धा का परिणाम अनुसंधान एवं विकास व्यय, स्वास्थ्य व शिक्षा व्यय और रक्षा व्यय में कमी के रूप में देखने को मिलेगा. हम दक्षिण कोरिया के रास्ते पर चलकर भविष्य में एक विकसित अर्थव्यवस्था बनेंगे या हमेशा एक ‘विकासशील राष्ट्र’ बने रहेंगे, यह हमारे द्वारा अभी चुने गए विकल्पों से निर्धारित होगा. लंबे समय के लिए हासिल सफलता, हमेशा अल्पकालिक दर्द के साथ आती है. उम्मीद है, भारत के नागरिकों के पास इस अल्पकालिक दर्द को सहन करने की क्षमता है.
(आदित्य कुवलेकर यूनाइटेड किंगडम के एसेक्स विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के व्याख्याता हैं. इस लेख में व्यक्त विचार उनके अपने हैं और इस प्रकाशन के रुख का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं)
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Tags: Aam aadmi party, Free electricity, PunjabFIRST PUBLISHED : August 05, 2022, 12:01 IST