कल ही बाज़ार देखी और उसका गीत "करोगे याद तो हर बात याद आएगी" साथ गुनगुनाया था. इतने में न्यूज़ फ्लैश हुई कि गायक भूपेंद्र सिंह का देहांत हो गया है. रोंगटे खड़े हो गए. ऐसा कैसे हुआ कि आज ही ये फिल्म देखी, आज ही ये गाना सुना और आज ही ये खबर आई.
अब जब सोचती हूं तो सचमुच लगता है कि ये मन यूं ही “बावरा” नहीं है. इसके हटेले लक्षण पुराने हैं. बचपन से ही. जब स्कूल की सहेलियों की धड़कन जॉर्ज माइकल को देख कर घटती बढ़ती थी मुझे माइकल जैक्सन पसंद था. जब हर दोस्त स्टेफी ग्राफ का भक्त था, मुझे गेबरियाला सबातीनी अच्छी लगती थी. सब क्रिकेट देखते थे, मैं फुटबॉल देखती थी. मैंने “हैंड ऑफ़ गॉड” को मैराडोना की मदद करते बचपन में टीवी पर लाइव देखा है. इटालियन खिलाड़ी दोनादोनी की जुल्फ़ों में मेरा बाल मन कैद था. अकेले दोनादोनी के कारण मैंने अपना अर्जेंटीना प्रेम त्याग कर, इटली की टीम का पाला पकड़ लिया था.
अब जब खेल और संगीत की अपनी पसंद सबसे निराली थी तो फिल्में कैसे पीछे छूट जाती. जब सब लड़कियां श्रीदेवी, माधुरी, जूही से अदाएं सीख रही थीं, मुझे दूरदर्शन की लेट नाइट फिल्मों ने स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी, दीप्ति नवल, सुप्रिया पाठक का फैन बना दिया था. और मेरी इस लिस्ट में स्मिता पाटिल, शबाना से ऊपर थीं.
बचपन की देर रात वाली फिल्में
अस्सी के दशक में दूरदर्शन पर एक गजब सूचना एवम प्रसारण क्रांति हुई थी. सप्ताह में एक दिन “पॉप टाइम” शुरू हुआ था. साथ ही शनिवार को रात ग्यारह बजे देश विदेश की क्लासिक फिल्मों का प्रदर्शन शुरू हुआ था.
क्या है ना बच्चों को जिस काम को करने को मना किया जाए उन्हें उसी काम को करने में सबसे ज्यादा मज़ा आता है. सबने कह रखा था कि ये लेट नाइट फिल्में, बच्चों के लिए नहीं होती हैं. पर इस चेतावनी का बाल मन पर कोई असर न हुआ. इन्हें देखने को मन कर गया तो कर गया. नतीजा ये हुआ कि चौदह पंद्रह साल की उम्र में ही असली दुनिया और विराट दुनिया, दोनों से रू-ब-रू हो गए. वो लेट नाइट फिल्में एडल्ट फिल्में नहीं थीं. संजीदा, क्लासिक फिल्में थीं. कुछ समझ आती, कुछ बिलकुल भी नहीं. उनमें सत्यजीत रे की चारूलता, जलसा घर, गूपी गाइन बागा बाइन, अपूर संसार थीं. उनमें श्याम बेनेगल की निशांत, अंकुर, मंडी, मंथन भी थीं. उनमें रित्विक घाटक की मेघा ढाके तारा थी (जो उस उम्र में समझ नहीं आई थी). मृणाल सेन की फिल्में थीं. अपर्णा सेन की फिल्में थीं. रशियन, चाइनीज़ फिल्में भी थीं. ये सब निराली फिल्में थीं. इनमें ग्लैमर और लाउड डायलॉग नहीं थे. कशिश पूरी थी.
ये ऐसा सिनेमा था जिसमें आम लोगों की सच्चाई, उनकी जद्दोजहद, उनका दुख, उनकी पीड़ा, उनके मसले, हमें देखने को मिलते थे. इस सिनेमा में साहित्य भी होता था. ये साहित्यिक कहानियों वाला सिनेमा था. इसी सिनेमा को हम लोग पैरालल यानि समानांतर सिनेमा के नाम से जानते थे.
समानांतर का जादू
जिस ज़माने में भारतीय सिनेमा के महानायक “रोते हुए आते हैं सब, हंसता हुआ जो जाएगा” गा रहे थे तो उसी समय उनके ये पैरालल वाले साथी, “मेरो गांव काट्ठा पाड़े, जहां दूध की नदिया बाहे” गाते हुए कह रहे थे…”कभी आना माहरे गांव, ओह परदेसिया”.
पैरालल ने अपनी ही कहानियां, अपनी ही आवाजें चुनीं. अपने ही संगीत निर्देशक अपने ही सिनेमेटोग्राफर चुने. उनके निर्माता निर्देशक अलग थे, उनके सितारे अलग थे. वनराज भाटिया का संगीत, प्रीति सागर की आवाज़. विजय तेंदुलकर, सत्यदेव दुबे, गिरीश कर्नाड का स्क्रीनप्ले/प्लेराइट. गोविंद निहलानी, श्याम बेनेगल की डायरेक्शन इस सिनेमा की पहचान थी.और सितारे, वो भी अनेक थे.
गिरीश कर्नाड, अमरीश पुरी, नसीरुद्दीन शाह, अनंत नाग, मोहन आगाशे, कुलभूषण खरबंदा, स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी, अमोल पालेकर, सविता बजाज, फारूख शेख, पंकज कपूर.
मन दोबारा समानांतर
हाल ही में जाने क्यों इन फिल्मों की याद आ गई और पिछले चार दिन से लगातार, बैक टू बैक, यही फिल्में देख रही हूं. अचानक मन में आ गया कि देखूं तो जिन फिल्मों को शुक्रवार और शनिवार की रात ग्यारह बजे दूरदर्शन पर चोरी चोरी बाल मन से देखा करती थी, आज परिपक्वता आने पर उन्हें कैसे समझती हूं. सच बताऊं, तो आंखें खुल गईं. और अपने को रोक ही नहीं पाई. शुरुआत ‘अंकुर’ से की और फिर, ‘निशांत’, ‘भूमिका’, ‘मंडी’, ‘बाज़ार’ सब देख डालीं. अब “सूत्रधार” पर हूं. अभी ‘मिर्च मसाला’ देखनी बाकी है. आज अगर अपनी इस परपक्व उम्र में इन फिल्मों को परिभाषित करना पड़े तो कहूंगी कि समानांतर दरअसल “इंटेलिजेंट सिनेमा” था.
जिस अमरीश पुरी को मुख्यधारा ने मोगाम्बो और डीडीएलजे वाले बाबूजी बनाया उनकी ‘निशांत’ में गज़ब की प्रेजेंस देख आंखे खुली रह गईं. जिन गिरीश कर्नाड को आज लोग एक था टाइगर से याद करते हैं, उनकी ‘निशांत’, ‘स्वामी’, ‘सूत्रधार’ में शानदार अदाकारी देख लगता है कि इन सबके बारे में आज के बच्चों को जानना चाहिए. भूमिका में राजन के रूप में अनंत नाग को देख एक बार फिर लगा, “हाउ हैंडसम”!
आज वक्त बदल गया है. बस “पैरालल सिनेमा” का नाम भर रह गया है जबकि सारे नए नए प्रयोग मैन स्ट्रीम सिनेमा में ही हो रहे हैं. अब मुख्यधारा के सिनेमा में ही हर तरह की थीम, कंटेंट और ट्रीटमेंट के लिए जगह मौजूद है. यहां हर विषय, हर आवाज़ के लिए मौका है. हां, अब उसे हम पैरालेल नहीं कहते उन्हें “ऑफ बीट” फिल्मों का नाम दे देते हैं. अच्छी बात ये है कि इन ऑफ़ बीट फिल्मों की पहुंच समानांतर फिल्मों से ज़्यादा है और ये फिल्में, समानांतर फिल्मों की तरह ही प्रभावी हैं. आज के कलाकार भी हर तरह के नए प्रयोग वाली फिल्में करने में आगे रहते हैं.
इत्तेफॉक देखिए
कल ही बाज़ार देखी और उसका गीत “करोगे याद तो हर बात याद आएगी” साथ गुनगुनाया था.
गली के मोड़ पे, सूना सा कोई दरवाज़ा
तरसती आंखों से रस्ता किसी का देखेगा
निगाह दूर तलक जा के लौट आएगी.
करोगे याद तो…
इतने में न्यूज़ फ्लैश हुई कि गायक भूपेंद्र सिंह का देहांत हो गया है. रोंगटे खड़े हो गए. ऐसा कैसे हुआ कि आज ही ये फिल्म देखी, आज ही ये गाना सुना और आज ही ये खबर आई. साथ ही एक और हैरान कर देने वाली बात हुई. ‘बाजार’, ‘निशांत’, ‘मंडी’ देख तब के और अब के नसीरुद्दीन शाह के बारे में सोच ही रही थी कि उधर एफएम पर उनके जन्मदिन की खबर चल गई. मालूम चला नसीरुद्दीन शाह का बीस जुलाई को जन्मदिन था.
चलते चलते
कुल मिला के समानांतर से कालांतर का ये सफर मेरे लिए काफी रोचक रहा. परिपक्व उम्र में देखने पर भी इन समानांतर फिल्मों ने बावरे मन को निराश नहीं किया. बल्कि बैक टू बैक इन लीक से हटी हुई फिल्मों को देख लगा, समानांतर सिनेमा हो या समानांतर सोच, समाज में दोनों का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान होता है.
धन्यवाद
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FIRST PUBLISHED : July 23, 2022, 19:11 IST