13 साल में भी सिस्टम नहीं बादल पाईं ममता! नाखून कटा बनना चाहती हैं शहीद

Kolkata Rape Muder Case: नौ अगस्त को आरजी कर अस्पताल के एक सेमिनार हॉल में महिला डॉक्टर का शव मिला था, जिस पर गंभीर चोटों के निशान थे. इसके अगले दिन कोलकाता पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया था. कलकत्ता हाईकोर्ट ने 13 अगस्त को मामले की जांच कोलकाता पुलिस से सीबीआई को सौंपने का आदेश दिया था. केंद्रीय जांच एजेंसी ने 14 अगस्त से अपनी जांच शुरू की थी.

13 साल में भी सिस्टम नहीं बादल पाईं ममता! नाखून कटा बनना चाहती हैं शहीद
एक डॉक्टर के साथ हुई दरिंदगी पर नाराजगी झेल रहीं ममता बनर्जी ने नया दांव चला है। इस्तीफे का दांव। पर इसे गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है, क्योंकि खुद वह ही इसे लेकर गंभीर नहीं दिखाई देतीं। अगर ऐसा होता तो वह कहतीं कि मैं इस्तीफा दे रही हूँ। पर, उन्होंने कहा, ‘मैं जनता की खातिर इस्तीफा भी दे सकती हूँ।’ जनता इंसाफ मांग रही, सीएम इस्तीफा देने की बात कर रहीं! वैसे इस्तीफे में ममता बनर्जी का यकीन कम ही लगता है। तभी तो नौ अगस्त की घटना पर आक्रोश भड़कने के बाद जब आरजी कर मेडिकल कॉलेज के प्रिन्सिपल ने इस्तीफा दिया तो स्याही सूखने से पहले ममता ने उन्हें दूसरे कॉलेज में तैनाती दे दी थी। यह बात अलग है कि जब जवाहर सरकार ने तृणमूल कांग्रेस से नाता तोड़ते हुए इस्तीफा दिया तो ममता का रंग बदला हुआ था। वैसे ममता का बदला रंग लोगों ने कोई पहली बार नहीं देखा। ममता ने कब-कब दिखाए कैसे-कैसे रंग कोलकाता (पश्चिम बंगाल) के आरजी कर अस्पताल में एक जूनियर डॉक्टर के साथ हुई हैवानियत को 36 दिन बीत चुके हैं। सभी को राज्य की मुखिया से इंसाफ की उम्मीद है, लेकिन ममता बनर्जी हैं कि लगातार रंग बदलती दिखाई दी रहीं हैं। एक महीने के भीतर ही वह कम से कम तीन बार रंग बदल चुकी हैं। ‘शेरनी’ कहलाने वाली ममता गिरगिट की तरह बर्ताव कर रही हैं। ममता ने जो ताजा रंग बदला है, वह एक मुख्यमंत्री की नाकामयाबी से गुस्साई जनता की हमदर्दी बटोरने के पैंतरे से अधिक कुछ नहीं है। घटना के पाँच हफ्ते बाद वह लोगों से माफी मांगते हुए पद छोड़ने तक के लिए तैयार होने का संदेश दे रही हैं। इस पैंतरे की जरूरत और असलियत पर बाद में बात करेंगे, पहले आपको याद दिला दें कि बीते एक महीने में ममता ने कौन-कौन से रंग दिखाए। घटना के तुरंत बाद ममता ‘साइलेंस मोड’ में दिखीं, फिर अचानक आंदोलन की मुद्रा में आते हुए सड़क पर उतर गईं। इसके बाद उन्होंने खुद को सक्रिय दिखाने की कोशिश की और अब लोगों का हमदर्द होने का दंभ भर रही हैं। जबकि उनके ही सांसद रहे जवाहर सरकार की मानें तो उन्होंने तृणमूल से नाता ही इसलिए तोड़ा क्योंकि ममता इस मसले पर उनकी भी नहीं सुन रही थीं और लगातार गलत कदम उठाए जा रही हैं। ममता का ‘साइलेंस मोड’ साइलेंस मोड में ममता का हाल यह था कि घटना पर बवाल के बाद जब कॉलेज के प्रिन्सिपल संदीप घोष ने इस्तीफा दिया तो कुछ ही घंटों में ममता ने उन्हें दूसरे कॉलेज का प्रिन्सिपल बना दिया। आरोपियों को पकड़ने के लिए पुलिस को पर्याप्त वक़्त दिया। ‘एक्टिव मोड’ में ये एक्शन! ममता ने जब खुद को सक्रिय दिखाया तो बलात्कार संबंधी कानून में बदलाव की मांग करते हुए केंद्र को एक चिट्ठी लिखी और आनन-फानन में बलात्कार पर एक कानून विधानसभा से पारित करवा दिया। उसका नाम रखा ‘अपराजिता’! यह कानून राष्ट्रपति भवन में मंजूरी का इंतजार कर रहा है। बता दें कि 2019 में आंध्र प्रदेश ने ‘दिशा’ और 2021 में महाराष्ट्र सरकार ने ‘शक्ति’ नाम से ऐसे ही विधेयक पारित कराए थे। इन्हें भी आज तक राष्ट्रपति कि मंजूरी का इंतजार ही है। इन राज्यों ने भी ऐसा तब किया जब इनके यहाँ दरिंदगी की घटना पर लोग उबल पड़े थे। जबकि, हमेशा से नया कानून बनाने से ज्यादा जरूरत मौजूदा कानून पर सही से अमल करते हुए गुनहगारों को सजा दिलाने की रही है। 13 साल में भी सिस्टम नहीं बादल पाईं सवाल है कि क्या ममता बनर्जी भी पीड़ित को इंसाफ दिलाने के लिए कुछ ठोस करने के बजाय दांव ही चलती रहेंगी? जिस जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए ममता ने ‘अपराजिता’ पारित कराया, उसी का हवाला देकर अब कुर्सी छोड़ने का दांव चल रही हैं। आखिर उन्हें कुर्सी संभाले 12 साल से भी ज्यादा हो गए हैं। ममता पहली बार मई 2011 में मुख्यमंत्री बनी थीं। 2012 में राष्ट्रीय महिला आयोग ने राज्य का दौरा करने के बाद जारी अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि बलात्कार के मामलों में पश्चिम बंगाल देश में दूसरे नंबर पर है। 7 से 72 साल तक की महिलाएँ बलात्कार कि शिकार हो रही हैं। आयोग ने तब भी राज्य सरकार पर यह कहते हुए अंगुली उठाई थी कि पार्क स्ट्रीट और बांकुड़ा (जहां मेडिकल कॉलेज में एक ऐसी लड़की से दरिंदगी हुई थी जो बोल व सुन नहीं सकती थी) मे हुए रेप की जांच पूरी होने से पहले ही कोलकाता की डीसीपी और बांकुड़ा के एसपी का तबादला कर दिया गया था। तब भी एफ़आईआर में देरी का मामला उठा था। ताजा केस में भी वही हुआ। एफ़आईआर में देरी, आरोपियों को पकड़ने में देरी, रेप-मर्डर को आत्महत्या बताने की कोशिश जैसी कई अनियमितताओं के लिए राज्य सरकार कठघरे में खड़ी की जा रही है। आज भले ही बलात्कार के दर्ज मामलों के लिहाज से पश्चिम बंगाल का नाम देश के टॉप पाँच राज्यों से भी बाहर हो गया हो, पर ऐसे मामलों में कार्रवाई को लेकर राज्य सरकार का रवैया वही दिखाई दे रहा है। 13 साल बाद भी अगर रेप, मर्डर जैसे अपराधों से निपटने की व्यवस्था दुरुस्त नहीं की जा सकी है तो ममता के मन में इस्तीफे का ख्याल इतनी देर से क्यों आ रहा है? इस्तीफ़ों की राजनीति अब थोड़ी बात इस्तीफ़ों की राजनीति की भी कर ली जाए। स्वेच्छा से दिए जाने वाले राजनीतिक इस्तीफे या तो विरोधियों की आलोचना से बचने का हथियार होते हैं या फिर उच्च स्तर की नैतिकता का परिणाम। वास्तव में नैतिकता के आधार पर नेताओं के इस्तीफे विरले ही देखने को मिलते हैं। इस मामले में लाल बहादुर शास्त्री का नाम स्मृति में सबसे पहले कौंधता है, जिन्होंने 1956 में रेल हादसे की ज़िम्मेदारी लेते हुए रेल मंत्री का पद छोड़ दिया था। कुछ और भी उदाहरण हैं। पर, ज्यादा नहीं। ज्यादा उदाहरण दांव खेले जाने के ही हैं। हाल का चर्चित और एक बड़ा उदाहरण शरद पवार का है, जिन्होंने पार्टी की बैठक में अध्यक्ष पद से इस्तीफे का ऐलान कर दिया था। उस समय तो सब उन्हें मनाने लगे और वह मान गए, लेकिन बाद में उन्हीं लोगों ने पार्टी तोड़ दी। ममता का हथियार या कोई दूर की कौड़ी? ममता बनर्जी इस्तीफे का दांव खेल कर ममता क्या हासिल करना चाहती हैं? लोगों की सुहानुभूति? क्या उन्हें लगता है कि जनता इतनी भोली है? या फिर ममता का इस्तीफे का दांव अपनी पार्टी के भीतर ही नेताओं की नाराजगी भड़कने के डर से चला गया है? पार्टी के कई नेता ऐसे हैं जो मानते हैं कि ममता ने सही समय पर सही फैसला लिया होता तो स्थिति आज जितनी बिगड़ी है, नहीं बिगड़ती। कहा जा रहा है कि डॉक्टरों की हड़ताल के चलते करीब ढाई दर्जन मरीजों की जान चली गई है। यह ममता और तृणमूल के नेताओं के लिए दोहरी परेशानी खड़ी कर रहा है। एक दूर की कौड़ी यह भी हो सकती है कि अगर स्थिति ने मजबूर कर ही दिया तो इस्तीफा देकर भतीजे अभिषेक को ‘डमी सीएम’ बनाया जा सकता है। इस तरह ममता नाखून कटा कर शहीद बन सकती हैं। पर, बात अभी वहाँ तक नहीं पहुंची लगती है। ममता के इस्तीफे के दांव को अपनी आलोचना के खिलाफ चलाए गए हथियार के रूप में ही देखा जाना चाहिए। लेकिन जनता को चाहिए कि उनका दांव कामयाब न होने दे। उनसे इस्तीफा नहीं, इंसाफ की मांग करनी चाहिए। और, नहीं मिलने पर चुनाव में जनता उनके साथ इंसाफ करे। FIRST PUBLISHED : September 13, 2024, 16:52 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed