क्या शिंदे गुट को मिल जाएगी असली शिवसेना की मान्यता चुनाव चिन्ह भी होगा उसका
क्या शिंदे गुट को मिल जाएगी असली शिवसेना की मान्यता चुनाव चिन्ह भी होगा उसका
लोकसभा में शिवसेना के 19 सांसदों में 12 सांसदों के एकनाथ शिंदे के प्रति विश्वास जाहिर करते हुए नया गुट बना लेने और उसे सदन में स्पीकर द्वारा मान्यता दे देने के बाद ये चर्चा फिर जोर पकड़ रही है कि असली शिवसेना के तौर पर चुनाव आयोग किसे मान्यता देगा. ये मामला चुनाव आयोग में पहुंच चुका है लेकिन शायद ये इतना आसान नहीं है, जितना नजर आता है.
जिस तरह शिव सेना के एकनाथ शिंदे गुट ने अलग होकर महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी से गठजोड़ करके सरकार बना ली. उसके बाद से ये चर्चाएं लगने लगीं थीं कि क्या शिव सेना के असली नाम और चुनाव चिन्ह पर उनका कब्जा हो जाएगा लेकिन तब ना लोकसभा के पार्टी सांसद उनके साथ गए थे और ना ही राज्य के पार्टी संगठन के पदाधिकारियों ने पाला बदला था लेकिन अब हालात बदलने के साथ ही ऐसा लगने लगा है कि शिव सेना बनने के बाद से ठाकरे परिवार के हाथों से इसका नाम और प्रतीक चिन्ह खिसक सकता है.
शिंदे गुट ने खुद के असली शिवसेना होने का दावा करते हुए चुनाव आयोग की ओऱ रुख किया है. इस बीच पार्टी के लोकसभा में मौजूद 19 सांसदों में 12 ने शिंदे गुट की ओर कूच कर दिया है. लोकसभा में स्पीकर ने उन्हें अलग गुट की मान्यता भी दे दी है. उनका नया पार्टी व्हिप चीफ भी नियुक्त होने वाला है. मतलब ये है कि ठाकरे परिवार के हाथों से शिवसेना की कमान खिसक सकती है क्योंकि पार्टी का नाम और चिन्ह शिंदे गुट को मिल सकता है. इस पर अब उनका दावा मजबूत लगता है.
आगे हम जानेंगे कि अगर कोई पार्टी टूटती है तो कैसे और किस तरह किस गुट को असली मानकर उसे मान्यता दी जाती है और पार्टी के सिंबल से लेकर पार्टी कार्यालय के एसेट्स पर भी उसका कब्जा हो सकता है. भारतीय राजनीति में ऐसा कई बार हुआ है. शिव सेना का मामला अब चुनाव आयोग में पहुंच गया, जिसे इसका फैसला करना है.
बंटवारे से पहले शिवसेना के पास 55 विधायक थे. जब एकनाथ शिंदे की अगुवाई में पार्टी टूटी तो एक एक करके उनके गुट में विधायक बढ़ते चले गए. अब उनके पास 55 में 40 विधायक हैं. लोकसभा में पार्टी के कुल 19 सांसद थे, उसमें से 12 अब शिंदे गुट की ओर रुख कर चुके हैं. राज्यसभा में शिवसेना के 03 सांसद हैं और फिलहाल ये तीनों सांसद उद्धव ठाकरे के साथ हैं. शिवसेना में एकनाथ शिंदे की स्थिति और मजबूत हो चुकी है. अगर उनके पास शिवसेना के 55 में 40 विधायक हैं तो लोकसभा में भी सांसदों की संख्या 12 हो चुकी है. ANI
अब अगर बात महाराष्ट्र के शिवसेना के सांगठनिक ढांचे की करें तो आमतौर पर ये ढांचा और इसके पदाधिकारी अब तक उद्धव ठाकरे के साथ हैं. उसमें पालाबदलने की खबरें नहीं आई हैं. महाराष्ट्र में गांव गांव तक शिवसेना का मजबूत ढांचा है.
सवाल – क्या होती है पार्टी टूटने के सूरत में स्थिति?
– ये जगजाहिर है कि शिवसेना दो हिस्सों में टूट चुकी है, दोनों गुट खुद के असली होने का दावा कर रहे हैं. ऐसे में जानते हैं कि इसे लेकर चुनाव आयोग का क्या नियम है. उसके नियमों के अनुसार शिवसेना की असली कमान किस गुट को मिल सकती है, जिसे चुनाव आयोग असली होने की मान्यता देगा, उसी का कब्जा पार्टी के चुनाव चिन्ह, ध्वज और प्रतीक पर हो जाएगा.
सवाल – इस मामले में चुनाव आयोग किस नियम का पालन करता है?
– चुनाव आयोग इस बारे में चुनाव चिन्ह (आरक्षण और आवंटन) आदेश 1968 पर चलता है. जो सियासी पार्टियों को मान्यता देने और सिंबल का काम करता है. इस आदेश का पैराग्राफ 15 साफ तौर पर पार्टी टूटने की सूरत में ये व्याख्या करता है तब पार्टी का नाम और सिंबल किसे दिया जाए. इसे लेकर कुछ शर्तें हैं. जिन्हें लेकर संतुष्ट होने के बाद ही चुनाव आयोग कोई फैसला लेता है..
सवाल – चुनाव आयोग फैसला लेने से पहले क्या क्या देखता है?
बगैर पर्याप्त सुनवाई और दस्तावेजों और प्रमाणों चुनाव आयोग कोई फैसला नहीं लेगा. वो पार्टी टूटने की सूरत में दोनों पक्षों की बातों को सुनेगा और फिर संतुष्ट होने पर ही कोई फैसला देगा. साथ ही वो इस बारे में भी सुनिश्चित होता है कि असल में किस गुट के पास सांसदों, विधायकों और पदाधिकारियों का ज्यादा साथ है. फिलहाल शिवसेना पर उसी गुट का कब्जा होगा, जिसे चुनाव आयोग असली पार्टी के तौर पर मान्यता देगा, लेकिन इसमें कई पेंच हैं. केवल विधायक और सांसदों के ही ज्यादा होने से मामला नहीं बनता बल्कि इसका अहम पहलू ये भी होता है कि पार्टी के ज्यादातर पदाधिकारी किस ओर हैं. फोटो सोशल मीडिया)
सवाल – चुनाव आयोग ने इस नियम से कब पहली बार फैसला किया था?
– इसकी नौबत तब आई जबकि इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री होते हुए कांग्रेस के लोगों से अपील की कि वो राष्ट्रपति के चुनाव में अंतरात्मा की आवाज पर वोट दें. तब कांग्रेस सिंडिकेट ने अपना आधिकारिक प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी को बना रखा था तो वीवी गिरी को इंदिरा गांधी का समर्थित उम्मीदवार माना जा रहा था. वह निर्दलीय थे.
कांग्रेस के अध्यक्ष निंजलिगप्पा ने पार्टी प्रत्याशी को वोट देने के लिए व्हिप जारी किया लेकिन बड़े पैमाने पर कांग्रेस के लोगों ने वीवी गिरी को वोट दिया. वो जीत गए. तब नवंबर 1969 को इंदिरा गांधी को कांग्रेस सिंडिकेट ने पार्टी ने निकाल दिया. इसके बाद इंदिरा ने अपनी अलग पार्टी बनाकर सरकार को बचा लिया. वह खुद प्रधानमंत्री बनी रहीं.
इसके बाद पार्टी के चुनाव चिन्ह को लेकर मामला चुनाव आय़ोग में पहुंचा. तब आयोग ने कांग्रेस सिंडिकेट को ही असली कांग्रेस माना. उनके पास कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बैलों का जोड़ा बने रहने दिया गया तो इंदिरा की कांग्रेस आर को गाय और बछड़ा का चुनाव चिन्ह मिला.
सवाल – चुनाव आय़ोग ऐसे मामलों में क्या देखता है?
हालांकि इस मामले में चुनाव आयोग ने दोनों ही गुटों के सांसद और विधायकों की गिनती की. हाल के मामलों में चुनाव आयोग तब पार्टी के पदाधिकारियों औऱ चुने हुए प्रतिनिधियों दोनों की बात सुनकर फैसला करता रहा है और ये देखता है कि पार्टी टूटने की सूरत में पार्टी के कितने पदाधिकारी किस गुट के साथ हैं. उसके बाद वो चुने हुए सांसदों औऱ विधायकों की गिनती करता है. चुनाव आयोग के सामने कई बार इस तरह के मामले आ चुके हैं लेकिन वो कोई भी फैसला लेने के लिए पार्टी में पदाधिकारियों, सांसदों और विधायकों सबके साथ किसी एक गुट की ताकत देखता है. ( सांकेतिक फोटो)
सवाल – शिव सेना के मामले में क्या है?
शिव सेना की ताजा टूट में फिलहाल पार्टी के अमूमन सभी पदाधिकारी उद्धव ठाकरे के गुट के साथ हैं. लेकिन अगर सांसदों औऱ विधायकों को जोड़ लें तो शिंदे गुट का पलड़ा ज्यादा भारी बैठता है. चूंकि महाराष्ट्र में शिवसेना के अधिकतर जिला इकाइयों के पदाधिकारी अब भी उद्धव ठाकरे के साथ हैं, लिहाजा चुनाव आयोग के लिए ये फैसला करना आसाना नहीं होगा.
इंदिरा गांधी ने जब पार्टी तोड़ी थी तब कांग्रेस सिंडिकेट को असली कांग्रेस माना गया था क्योंकि तब कांग्रेस पार्टी के ज्यादातर पदाधिकारी सिंडिकेट के साथ थे. फिर सांसदों औऱ विधायकों को जोड़ने पर भी उनकी संख्या पर्याप्त थी.
सवाल – तब चुनाव आयोग दूसरे गुट को क्या कहता है?
– तब आयोग उन्हें दूसरी पार्टी के तौर पर मान्यता दे देता है और उनसे नया नाम और नया सिंबल लेने को कहता है. हालांकि चुनाव आयोग अपने विवेक से दोनों ही गुटों को नया नाम बनाने और नया सिंबल लेने को कह सकता है और पुराने नाम और चुनाव चिन्ह को फ्रीज भी कर सकता है.
सवाल – अगर चुनाव आयोग ने शिंदे गुट का असली शिवसेना माना तो क्या होगा?
– तब शिंदे गुट की मान्यता असली शिवसेना के तौर पर होगी. वो चुनावों में शिवसेना का नाम, झंडा, प्रतीक और चुनाव चिन्ह का इस्तेमाल कर सकते हैं. मतलब उद्धव ठाकरे को ऐसी स्थिति में नई पार्टी बनानी होगी और उसका सिंबल और झंडा भी अलग रखना होगा.
सवाल – अगर चुनाव आयोग ने शिंदे गुट को असली की मान्यता दी तो क्या पार्टी की संपत्ति पर भी उनका कब्जा होगा?
– हां, ऐसा हो सकता है, असली शिवसेना की मान्यता मिलने के बाद शिंदे गुट उन सभी जगहों पर पार्टी के एसेट्स का दावा कर सकता है, जहां भी उसकी संपत्तियां, भवन और बैंक खाते होंगे. हालांकि इसे लेकर फिर महाराष्ट्र में अराजकता और हिंसा की भी स्थिति बन सकती है. उद्धव ठाकरे केवल एक मामले में अब भी राहत की सांस ले सकते हैं कि पार्टी के विधायकों और सांसदों के मामले में उनकी स्थिति कमजोर होने के बावजूद पार्टी का संगठन अब भी उनसे जुड़ा हुआ है.
सवाल – उद्धव ठाकरे के साथ सबसे बेहतर स्थिति क्या है?
– उद्धव ठाकरे के साथ सबसे बेहतर स्थिति ये है कि महाराष्ट्र में ही असल में शिवसेना का पूरा ढांचा और परिसंपत्तियां हैं, जहां किसी भी जिले का कोई पदाधिकारी अब तक शिंदे गुट के साथ नहीं गए हैं. लिहाजा अगर जिला इकाइयों के अध्यक्ष और अन्य पदाधिकारी अगर उद्धव के साथ हैं तो चुनाव आयोग के लिए ये फैसला करना आसान नहीं होगा. लिहाजा उस लिहाज से स्थिति बराबर की है.
सवाल – ऐसे में सदन में दोनों गुटों की स्थिति क्या होगी?
– बिल्कुल उसी तरह होगी, जिस तरह अभी होगी, शिंदे गुट को विधानसभा और लोकसभा में अलग गुट के तौर पर मान्यता मिली रहेगी. उनके नेता को भी स्पीकर मान्यता देगी. चुनाव आयोग का फैसला आने के बाद एक गुट को नई पार्टी का नाम लेना होगा और फिर वो उसी के तौर पर जाना जाएगा.
सवाल – तमिलनाडु में जब ऐसा हुआ तब आयोग ने क्या किया?
1986 में तमिलनाडु में एमजी रामचंद्रन के निधन के बाद भी एआईएडीएमके के दो गुट बन गए. अन्नाद्रमुक यानि एआईएडीएमके पर जयललिता ने भी दावा किया और एमजी रामचंद्रन की विधवा जानकी रामचंद्रन ने भी.
जानकी रामचंद्रन 24 दिनों के लिए तमिलनाडु की मुख्यमंत्री भी बनीं. मगर जयललिता ने संगठन के ज़्यादातर विधायकों और सांसदों का समर्थन ही हासिल नहीं किया बल्कि पार्टी के कई पदाधिकारी भी उनकी ओर चले गए. नतीजतन पार्टी का आधिकारिक चुनाव चिह्न जयललिता को मिला.
सवाल – लोकजन शक्ति पार्टी के विवाद में क्यों अलग फैसला हुआ?
पिछले साल अक्टूबर में तब भारतीय चुनाव आयोग ने चाचा पारस पासवान और भतीजे चिराग पासवान के बीच पार्टी और पार्टी सिंबल पर दावे की लड़ाई के बीच पार्टी के नाम और चुनाव चिह्न दोनों को फ्रीज कर दिया. नतीजतन अब लोक जनशक्ति पार्टी और चुनाव चिह्न पर इन दोनों का कोई अधिकार नहीं रह गया. दोनों को अपनी नई पार्टी बनानी पड़ी. नया चिह्न लेना पड़ा.
सवाल – अखिलेश को कैसे समाजवादी पार्टी पर नियंत्रण और चिन्ह मिल गया?
वर्ष 2017 में समाजवादी पार्टी पर कब्जे के लिए भी टकराव हुआ. उसमें लड़ाई पिता और बेटे के बीच थी. जनवरी 2017 में लखनऊ में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाकर अखिलेश ने सुनिश्चित कर लिया कि पार्टी उन्हें अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने. इसके बाद पार्टी में भूचाल आ गया.
समाजवादी पार्टी का गठन करने वाले मुलायम सिंह यादव और उनके भाई शिवगोपाल यादव ने इसका विरोध किया. दो गुट बन गए. दोनों गुट भारतीय चुनाव आयोग के पास पहुंचे. दोनों ने पार्टी और पार्टी सिंबल पर अधिकार जताया.
इसमें तकनीकी पेच ये था कि मुलायम ने ये नहीं कहा था कि पार्टी बंट रही है. चुनाव चिह्न उन्हें दे दिया जाए. फिर अखिलेश ने चुनाव आयोग के सामने तमाम ऐसे दस्तावेज पेश किए, जिससे साबित हो गया कि लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा में चुने हुए ज्यादा प्रतिनिधि उनके साथ हैं. और पार्टी के ज्यादा पदाधिरियों का समर्थन भी उन्हें हासिल है. ऐसे में चुनाव आयोग ने अखिलेश के दावे को मानते हुए उन्हें ना केवल समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष माना बल्कि पार्टी के चुनाव चिह्न साइकिल को भी उनके पास रहने दिया.
ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें up24x7news.com हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट up24x7news.com हिंदी |
Tags: Eknath Shinde, Shiv sena, Shivsena, Uddhav thackerayFIRST PUBLISHED : July 20, 2022, 11:28 IST