आज ही के दिन बहादुर शाह पर मुकदमे की हुई थी शुरुआत बगावत का था आरोप

Last Mughal Emperor Bahadur Shah Zafar: अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाने की भारी कीमत चुकानी पड़ी. साल 1859 का वह सात जनवरी का ही दिन था, जब बहादुर शाह जफर द्वितीय के खिलाफ अंग्रेजी हुकूमत ने मुकदमे की शुरुआत की थी. उन्हें बंदी बना कर रंगून ले जाया गया, जहां 1862 में उनकी मौत हो गई

आज ही के दिन बहादुर शाह पर मुकदमे की हुई थी शुरुआत बगावत का था आरोप
Last Mughal Emperor Bahadur Shah Zafar: साल 1859 का वह सात जनवरी का ही दिन था, जब अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय के खिलाफ अंग्रेजी हुकूमत ने मुकदमे की शुरुआत की थी. उन पर इलजाम था कि उन्होंने 1857 की क्रांति में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उठी बगावत की चिंगारी को हवा दी. बहादुर शाह जफर को भारत के इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाने की भारी कीमत चुकानी पड़ी. उन्हें बंदी बना कर रंगून ले जाया गया, जहां 1862 में उनकी मौत हो गई. उन्हें अपने प्यारे वतन में दो गज जमीन भी न मिल सकी.  बहादुर शाह जफर का जन्म 24 अक्टूबर 1775 को हुआ था. जन्म के समय उनका नाम मिर्जा अबू जफर सिराजउद्दीन मुहम्मद था. वह अपने पिता अकबर द्वितीय के दूसरे पुत्र और दिल्ली की गद्दी के उत्तराधिकारी थे. वह भारत के अंतिम मुगल सम्राट थे. बहादुर शाह जफर एक प्रसिद्ध उर्दू के शायर या कवि थे. उन्होंने उर्दू में कई  गजलें लिखी थीं. हालांकि 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान उनकी कुछ रचनाएं खो गईं या नष्ट हो गईं. लेकिन उनका एक बड़ा संग्रह बच गया, जिसे कुल्लियात-ए-ज़फर में संकलित किया गया. उनके दरबार में मिर्ज़ा ग़ालिब , दाग़ देहलवी , मोमिन खान मोमिन और मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक सहित कई प्रसिद्ध उर्दू विद्वान, कवि और लेखक रहते थे. मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक शायरी में बहादुर शाह जफर के गुरु भी थे. ये भी पढ़ें- वो बौद्ध देश जहां के राजाओं को कहा जाता है राम, रामायण है राष्ट्रीय ग्रंथ, गरुण प्रतीक चिह्न जफर 1837 में बने मुगल बादशाह वह अपने पिता के 1837 में निधन के बाद मुगल बादशाह बने. हालांकि वह केवल नाम के बादशाह थे. क्योंकि मुगल साम्राज्य केवल नाम का था और उनका अधिकार क्षेत्र पुरानी दिल्ली यानी शाहजहांबाद की चौहद्दी तक ही सीमित था. उनके बादशाह बनने का मामला भी अलग ही है. दरअसल बहादुर शाह ज़फ़र के पिता अकबर द्वितीय को अंग्रेजों ने बंदी बना लिया था. वह अपने पिता के उत्तराधिकारी के रूप में पसंदीदा विकल्प नहीं थे. अकबर शाह की एक बेगम ने उन पर अपने बेटे मिर्ज़ा जहांगीर को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने का दबाव डाला. हालांकि, ईस्ट इंडिया कंपनी ने लाल किले में उनके निवास पर हमला करने के बाद जहांगीर को निर्वासित कर दिया . जिससे बहादुर शाह जफर के लिए सिंहासन संभालने का रास्ता साफ हो गया. ये भी पढ़ें- अब नहीं रहे दुश्मन, अमेरिकी सैनिक कर रहे वियतनामी लोगों को अवशेष खोजने में मदद, भावुक कर देगी पूरी कहानी मराठों ने छिन्न-भिन्न कर दिया था मुगल साम्राज्य बहादुर शाह जफर ने एक ऐसे मुगल साम्राज्य पर शासन किया जो 19वीं सदी की शुरुआत में सिर्फ दिल्ली शहर और पालम तक के आसपास के इलाके तक सिमट कर रह गया था. मराठों ने 18वीं सदी में दक्कन में मुगल साम्राज्य को समाप्त कर दिया था. वे इलाके जो पहले मुगल शासन के अधीन थे, या तो मराठों द्वारा हथिया लिए गए थे या उन्होंने खुद को आजाद घोषित कर दिया था. इस तरह पूरा मुगल साम्राज्य छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया था. मराठों ने मराठा सेनापति महादजी शिंदे के संरक्षण में 1772 में शाह आलम द्वितीय को गद्दी पर बिठाया और दिल्ली में मुगल साम्राज्य पर अपना आधिपत्य बनाए रखा. ये भी पढ़ें- थाई पीएम शिनावात्रा के पास 3 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की संपत्ति, जयललिता भी नहीं थीं कम ईस्ट इंडिया देती थी जफर को पेंशन उन्नीसवीं सदी के मध्य में ईस्ट इंडिया कंपनी भारत की प्रमुख राजनीतिक और सैन्य शक्ति बन गई. ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियंत्रित क्षेत्र के बाहर, सैकड़ों राज्यों और रियासतों ने अपनी भूमि को विभाजित कर दिया. मुगल सम्राट का कंपनी द्वारा सम्मान किया जाता था. मुगल सम्राट ने कंपनी को दिल्ली से टैक्स वसूल करने और एक सैन्य टुकड़ी बनाए रखने की इजाजत दी थी. बदले में ईस्ट इंडिया कंपनी उन्हें पेंशन प्रदान करती थी. बहादुर शाह जफ को कभी भी राजकाज में कोई दिलचस्पी नहीं थी. 1857 के भारतीय सैनिकों के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने उन्हें दिल्ली से निर्वासित कर दिया. ये भी पढ़ें- Explainer: इन देशों में आज भी होता है मुस्लिम महिलाओं का खतना, जानिए कितनी खौफनाक है ये प्रथा 1857 में विद्रोहियों ने जफर को चुना अपना लीडर जैसे ही 1857 की क्रांति की शुरुआत हुई और विद्रोह फैला, सिपाही रेजिमेंट 12 मई को दिल्ली के मुगल दरबार तक पहुंच गई.जब सिपाही पहली बार बहादुर शाह जफर के दरबार में पहुंचे, तो उन्होंने उनसे पूछा कि वे उनके पास क्यों आए हैं, क्योंकि उनके पास उनका भरण-पोषण करने का कोई साधन नहीं था. विद्रोहियों ने जब उन्हें बताया गया कि वे उनके बिना ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ नहीं जीत पाएंगे, तो वे अगुआई करने के लिए तैयार हो गए. 16 मई को सिपाहियों और महल के सेवकों ने 52 यूरोपीय लोगों को मार डाला. ये सभी या तो महल के कैदी थे और उन्हें शहर में छिपे हुए पाया गया था. सम्राट ने अपने सबसे बड़े बेटे, मिर्ज़ा मुगल को अपनी सेना के कमांडर इन चीफ के रूप में नामित किया. मिर्ज़ा मुगल के पास बहुत कम सैन्य अनुभव था और उन्हें सिपाहियों ने अस्वीकार कर दिया था.  ये भी पढ़ें- Explainer: क्या सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम रोक सकता है भाई-भतीजावाद, रिश्तेदारों का हाई कोर्ट जज बनने का मामला अंग्रेजों ने मुगल बादशाह को बनाया बंदी सिपाहियों के पास कोई कमांडर नहीं था. क्योंकि हर रेजिमेंट अपने अधिकारियों के अलावा किसी और के आदेश को स्वीकार करने से इनकार कर देती थी. नतीजा यह हुआ कि मिर्ज़ा मुगल की सेना शहर से आगे नहीं बढ़ सकी. ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने दिल्ली की घेराबंदी कर ली. जब अंग्रेजों की जीत निश्चित हो गई तो जफर ने हुमायूं के मकबरे में शरण ली , जो उस समय दिल्ली के बाहरी इलाके में था. मेजर विलियम हडसन के नेतृत्व में कंपनी की सेना ने मकबरे को घेर लिया और 20 सितंबर 1857 को जफर को कैद कर लिया गया. अगले दिन, हडसन ने जफर के बेटों मिर्ज़ा मुगल और मिर्ज़ा ख़िज्र सुल्तान और पोते मिर्ज़ा अबू बख्त को दिल्ली गेट के पास खूनी दरवाजे पर गोली मार दी और दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया.  ये भी पढ़ें- Explainer: हवाई जहाज में कैसे काम करता है वाई-फाई, क्यों भारत के विमानों में ये ना के बराबर लाल किले में 21 दिन तक चला मुकदमा बहादुर शाह जफर पर मुकदमा चला. 21 दिनों तक चले मुकदमें में 19 सुनवाई हुई और 21 गवाह पेश किए गए. फारसी और उर्दू में सौ से अधिक दस्तावेज, उनके अंग्रेजी अनुवाद के साथ अदालत में पेश किए गए. सबसे पहले यह सुझाव दिया गया था कि यह मुकदमा कलकत्ता में चलाया जाए जो ईस्ट इंडिया कंपनी का मुख्यालय था. लेकिन बाद में मुकदमें के लिए दिल्ली में लाल किला को चुना गया. यह लाल किले में चलाया जाने वाला पहला मामला था. जफ़र पर चार मामलों में मुकदमा चलाया गया और आरोप लगाए गए. मुकदमे के 20वें दिन बहादुर शाह जफर ने अपना बचाव किया. लेकिन जफर को दोषी पाया गया. ये भी पढ़ें- कौन सा भोजन सबसे तेजी से पचता है, नॉनवेज को पचने में लगती है कितनी देर? यांगून में हुई बहादुर शाह जफर की मौत हडसन ने जफर के आत्मसमर्पण करते समय उन्हें जान बख्शने की गारंटी दी थी. इसीलिए जफर को मौत की सजा नहीं दी गई बल्कि रंगून (बर्मा) में निर्वासित कर दिया गया. उनकी पत्नी जीनत महल और परिवार के कुछ सदस्य उनके साथ थे. अक्टूबर 1862 में जफर की तबीयत बिगड़ गई. जफर की मृत्यु 7 नवंबर 1862 को हुई. उनके दफ़न के लिए जफर के बाड़े के पीछे एक स्थान चुना गया. जफर को रंगून (अब यांगून) में श्वेडागोन पैगोडा रोड के साथ चौराहे के पास शाम 4 बजे दफनाया गया. 16 फरवरी 1991 को उनकी कब्र की बरामदगी के बाद वहां बहादुर शाह जफर दरगाह का निर्माण किया गया था.  Tags: British Raj, Delhi, Lal Qila, Mughal EmperorFIRST PUBLISHED : January 7, 2025, 13:17 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
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