वो भारतीय जीनियस जो एक-दो बार नहीं बल्कि 6 बार नोबेल अवॉर्ड पाते-पाते रह गए

Dr Upendranath Brahmachari: एपीजे अब्दुल कलाम और चंद्रशेखर वेंकट रमन के नाम तो आपने जरूर सुने होंगे, लेकिन देश में असाधारण प्रतिभाओं की कड़ी में एक साइंटिस्ट ऐसे भी थे जिनका नाम कम ही लोगों ने सुना होगा. डॉ. उपेंद्रनाथ ब्रह्मचारी को एक बार नहीं बल्कि छह बार नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया, लेकिन हर बार मायूसी उनके हाथ लगी.

वो भारतीय जीनियस जो एक-दो बार नहीं बल्कि 6 बार नोबेल अवॉर्ड पाते-पाते रह गए
भारत के पास असाधारण प्रतिभाओं का एक समृद्ध इतिहास है. इन जीनियस में वो वैज्ञानिक या साइंटिस्ट भी शामिल हैं, जिन्होंने दुनिया पर अपनी एक अमिट छाप छोड़ी है. भारत के राष्ट्रपति पद की शोभा बढ़ा चुके एपीजे अब्दुल कलाम और नोबेल पुरस्कार विजेता चंद्रशेखर वेंकट रमन के नाम तो आपने जरूर सुने होंगे, लेकिन इतिहास में एक साइंटिस्ट ऐसे भी थे, जिनका नाम संभवत: काफी लोगों ने नहीं सुना होगा, लेकिन उनकी अभूतपूर्व खोज ने धरती पर लाखों लोगों की जान बचाने में अहम किरदार अदा किया था. यह साइंटिस्ट थे डॉ. उपेंद्रनाथ ब्रह्मचारी.   डॉ. ब्रह्मचारी ने की थी अहम खोज डॉ. उपेंद्रनाथ ब्रह्मचारी एक स्थापित साइंटिस्ट थे. उस समय उनके काम की धूम इस कदर थी कि उनके नाम पर एक बार नहीं, बल्कि छह बार प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार देने पर विचार किया गया. एक बार 1929 में मशहूर सिगमंड फ्रायड के साथ और 1942 में उन्हें पांच-पांच नॉमिनेशन मिले. उनके द्वारा की गई अभूतपूर्व खोजों के बावजूद वह कभी भी इस प्रतिष्ठित पुरस्कार को हासिल नहीं कर सके. हालांकि यह संदेह जताया जाता है कि एक प्रतिष्ठित मंच पर उनकी अनदेखी का कारण शायद उनका वैज्ञानिकों के इलीट ग्रुप में शामिल न रहना रहा होगा. डॉ. ब्रह्मचारी कभी भी रॉयल सोसाइटी और अमेरिकन एकेडमी ऑफ ऑर्ट्स एंड साइंसेज जैसे नामी गिरामी संस्थाओं के सदस्य नहीं रहे.  ये भी पढ़ें- 2023 में विदेश से भारत आए रिकॉर्ड 120 अरब डॉलर, जानें पाकिस्तान का क्या हाल?  1929 में हुआ पहली बार नॉमिनेशन भारत की ओर से पहली बार साल 1929 में दो साइंटिस्टों का नाम नोबेल के लिए भेजा गया. उनमें फिजिक्स के लिए डॉ. चंद्रशेखर वेंकट रमन का नाम था और दूसरा मेडिसिन के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान देने के लिए डॉ. उपेंद्रनाथ ब्रह्मचारी का. हालांकि उस साल दोनों को मायूस होना पड़ा था. लेकिन अगले साल 1930 में डॉ. चंद्रशेखर वेंकट रमन का नाम फिर से प्रस्तावित किया गया और वह फिजिक्स का नोबेल अवॉर्ड जीतने में सफल रहे. 1942 में फिर था नॉमिनेशन, लेकिन इस बार हुए रद्द साल 1942 में डॉ. उपेंद्रनाथ ब्रह्मचारी नाम पांच अलग-अलग शख्सियतों द्वारा फिर से नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया. लेकिन उस साल द्वितीय विश्व युद्ध की वजह से दुनिया भर में अशांति फैली हुई थी. जिसकी वजह से नोबेल पुरस्कार के लिए विजेताओं के चयन की प्रक्रिया पूरी नहीं की जा सकी. उस साल नोबेल कमेटी ने किसी भी क्षेत्र के लिए किसी को भी सम्मानित नहीं किया. इस वजह से नोबेल पुरस्कार पाने के हकदार डॉ. उपेंद्रनाथ ब्रह्मचारी एक बार फिर इसे हासिल करने से दूर रह गए. अगर डॉ. ब्रह्मचारी को नोबेल पुरस्कार मिल गया होता तो वे यह उपलब्धि हासिल करने वाले दूसरे भारतीय होते जिसे साइंस के क्षेत्र में यह सम्मान मिला होता. ये भी पढ़ें- वो प्रधानमंत्री जो सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बने, कश्मीर विलय में भी थी भूमिका एमडी और पीएचडी की डिग्री हासिल की अपने जमाने में डॉ. उपेंद्रनाथ ब्रह्मचारी बंगाल के एक प्रमुख डॉक्टर और साइंटिस्ट थे. उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज और कलकत्ता यूनिवर्सिटी जैसे नामी संस्थानों में पढ़ाई की थी. मैथ्स और केमिस्ट्री में पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने मेडिसिन और सर्जरी की पढ़ाई के लिए अपना रास्ता बदल लिया. उन्होंने 1902 में एमडी की डिग्री हासिल की और 1904 में पीएचडी पूरी की. बाद में उन्होंने ढाका मेडिकल कॉलेज और फिर कलकत्ता में कैंपबेल मेडिकल कॉलेज में काम किया.  खोजा कालाजार का इलाज डॉ. ब्रह्मचारी ने अपने कार्यकाल के दौरान कालाजार या काला बुखार नामक घातक बीमारी का इलाज खोजने का चुनौती उठाई. कालाजार एक घातक परजीवी महामारी थी, जिसने कई देशों में लाखों लोगों की जान ले ली थी. यह बीमारी पीड़ित व्यक्ति की स्किन को काला कर देता है और लिवर और स्पिलिन जैसे महत्वपूर्ण अंगों पर भयानक हमला करता है. इलाज के अभाव में कई बार इसकी वजह से मौत भी हो जाती है. डॉ. ब्रह्मचारी ने अपने जीवन के 20 साल बिना साइड इफेक्ट वाला सस्ता इलाज खोजने में समर्पित कर दिए. 1920 के दशक में बिना बिजली और खराब पानी की सप्लाई वाले कमरे में काम करने के बावजूद उन्होंने यूरिया स्टिबामाइन की खोज की. ये भी पढ़ें- UP-MP ने किया ये अच्छा काम, 4 ऐसे राज्य जहां जनता के पैसे से भरा जाता है मंत्रियों का इनकम टैक्स  लाखों मरीजों के लिए बने मसीहा कालाजार उस समय एक जानलेवा बीमारी थी, जिससे पीड़ित लोगों में मृत्यदर 95-98 प्रतिशत थी. डॉ. ब्रह्मचारी द्वारा यूरिया स्टिबामाइन की खोज करने के बाद इस बीमारी से होने वाली मृत्यदर साल 1925 तक 95 प्रतिशत से घटकर 10 प्रतिशत रह गई थी. उसके बाद हालात और बेहतर होते चले गए. साल 1936 में मृत्यदर महज सात प्रतिशत ही रह गई. डॉ. ब्रह्मचारी की वजह से हजारों-लाखों लोग की जान बची थी और वे मरीजों के लिए मसीहा बन गए थे. मेडिसिन के क्षेत्र में उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता. Tags: Medical, Nobel Prize, Science newsFIRST PUBLISHED : June 28, 2024, 14:31 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
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