दास्तान-गो : वाईएस राजशेखर रेड्डी यानी ‘आंध्र का मसीहा’ और ‘पुली-वेंदुला का पुली’
दास्तान-गो : वाईएस राजशेखर रेड्डी यानी ‘आंध्र का मसीहा’ और ‘पुली-वेंदुला का पुली’
Daastaan-Go ; YS Rajshekhar Reddy Birth Anniversary : बताते हैं, 5,000 के क़रीब जवानों ने जंगल का चप्पा छाना. इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुरंसधान संगठन) के उपग्रहों से मदद ली गई. यही कोई 24 घंटे के बाद आख़िर रुद्रकोंडा की पहाड़ी पर हेलीकॉप्टर के परखच्चे मिले. उसमें सवार राजशेखर रेड्डी सहित पांचों लोगों के ज़िस्म बुरी तरह झुलस चुके थे. टुकड़े-टुकड़े हो गए थे.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, तनाज़ि’आत (मतभेद, विवाद) अपनी जगह हैं. बावज़ूद इसके, उस शख़्स ने अपनी शख़्सियत को जिस तरह की सूरत दी, उसे कोई भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता. वाईएस राजशेखर रेड्डी नाम हुआ उनका. येदुगुड़ी संदिंती राजशेखर रेड्डी, पूरा नाम. आंध्र प्रदेश के कड़प्पा जिले में एक क़स्बा हुआ करता है पुली-वेंदुला. बताते हैं, किसी ज़माने में इस क़स्बे के आस-पास के जंगलों में बड़ी तादाद में बाघ घूमा करते थे. झुंड के झुंड. लिहाज़ा, इस इलाके को पहले ‘पुली-मंडला’ कहा गया. ‘पुली’ यानी बाघ और ‘मंडल’ मतलब झुंड या समूह. आगे चलकर ‘पुली-मंडला’ से हो गया ‘पुली-वेंदुला’. थोड़ा और वक़्त बीता तो क़स्बे का नाम तो यही रहा. लेकिन असल ‘पुली’ ग़ायब हो गए. कहते हैं, इस इलाके में दूर-दूर तक अब कोई बाघ नज़र नहीं आता. हालांकि एक वक़्त वह आया, जब इसी क़स्बे से किसी आंधी की तरह उठकर वाईएस राजशेखर रेड्डी आंध्रप्रदेश के ‘सियासी राजा’ हुए. मुख्यमंत्री हुए और तब उन्हें उनके चाहने वालों ने नया नाम दिया, ‘पुली-वेंदुला का पुली’.
आज की ही तारीख़ थी यानी आठ जुलाई, जब हिन्दुस्तान की आज़ादी के महज़ दो बरस बाद 1949 में वाईएस राजशेखर रेड्डी पैदा हुए. वाईएस राजा रेड्डी और जयम्मा रेड्डी के घर. मां-बाप ने इन्हें पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाने का मंसूबा बांधा और ये बने भी. गुलबर्गा, कर्नाटक के महादेवप्पा रामपुरे मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की डिग्री ली. डॉक्टर की हैसियत से जम्मलमडुगु के एक अस्पताल में काम भी किया. लेकिन यहीं से आगे फिर सियासत में उतरने का मन हो गया. कॉलेज में पढ़ाई के दौरान सियासत का स्वाद लिया था थोड़ा. स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष रह चुके थे. लिहाज़ा, जब पूरी तरह सियायत में उतरने का इरादा किया तो जगह बनाने के लिए ज़्यादा मशक़्क़त नहीं करनी पड़ी. साल 1975 में, उम्र अभी 26 बरस की ही थी कि कड़प्पा जिला युवक कांग्रेस के अध्यक्ष बना दिए गए. इसके महज़ तीन साल बाद यानी 1978 में विधानसभा चुनाव का टिकट भी मिल गया. पहली ही बार में बड़ी जीत हासिल हुई. ये ऐसी शुरुआत साबित हुई कि आगे चुनाव चाहे विधानसभा के हुए हों या संसद के, वाईएस राजशेखर रेड्डी को हार का मुंह नहीं देखना पड़ा.
इतना ही नहीं, उम्र का 31वां साल था इनका कि इन्हें बड़े ओहदे मिलने शुरू हो गए. साल 1980 में सूबे की सरकार में मंत्री बना दिए गए. ग्रामीण विकास विभाग का ज़िम्मा मिला. इसके बाद आबकारी और शिक्षा जैसे महकमे भी संभाले. इन महकमों में किए काम का ही असर था कि साल 1983 में जब फिल्म-अदाकार से सियासत में आए नंदमूरि तारक रामाराव का करिश्मा पूरे आंध्र के सिर चढ़ा था, तब भी राजशेखर रेड्डी का जादू उनके इलाके में कायम था. इस साल पूरे आंध्र ने एनटी रामाराव की पार्टी को जिताकर उन्हें वज़ीर-ए-आला (मुख्यमंत्री) बनाया था. लेकिन पुली-वेंदुला के लोगों ने राजशेखर रेड्डी को चुना. इसका तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर ऐसा असर पड़ा कि उन्होंने राजशेखर रेड्डी को आंध्र प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया. हालांकि इन्होंने दो बरस बाद ही यह ओहदा छोड़ दिया. दरअस्ल, हुआ यूं कि साल 1984 में इंदिरा गांधी के इंतिक़ाल के बाद पूरे मुल्क में सियासी उथल-पुथल का दौर आया. उसमें एनटी रामाराव की सरकार भी जाती रही.
लिहाज़ा, आंध्र प्रदेश में दोबारा चुनाव की नौबत आन पड़ी. ये साल 1985 का था. कांग्रेस की कमान राजशेखर रेड्डी के हाथ में थी. लेकिन बड़ी जीत एनटी रामाराव और उनकी पार्टी के ख़ाते में गई. वे फिर मुख्यमंत्री बने. राजशेखर रेड्डी ने कांग्रेस की इस हार का ज़िम्मा अपने ऊपर लेते हुए कांग्रेस के सूबाई चीफ़ का ओहदा छोड़ दिया. हालांकि कुछ वक़्त बाद तब के वज़ीर-ए-आज़म (प्रधानमंत्री) राजीव गांधी इन्हें वापस ले आए. इसके बाद इन्हें 1989 में कड़प्पा से लोकसभा का चुनाव भी लड़वाया गया. राजशेखर ने उसमें भी जीत हासिल की. फिर 1999 तक जल्दी-जल्दी हुए तीन और लोकसभा चुनावों में भी वे जीतते रहे. हालांकि 1999 में ही इनका सूबे की सियासत में फिर लौटना हुआ. अबकी बार जब विधानसभा का चुनाव जीतकर पहुंचे तो विपक्ष के नेता की हैसियत से 2004 तक मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू का सामना करते नज़र आए. अलबत्ता, यही वह दौर था जो आंध्र की सियासत और राजशेखर रेड्डी की ज़िंदगी में मील का पत्थर साबित हुआ आगे.
साल 2003 का था. राजशेखर रेड्डी बड़ा मंसूबा बांध चुके थे अब तक. आंध्र प्रदेश के बड़े इलाके को पांव-पांव से नाप देने का. अपनी इस मुहिम को ‘प्रजा प्रस्थानम’ नाम दिया था उन्होंने. इसी मंसूबे के मुताबिक, अप्रैल महीने की नौ तारीख़ से वे पैदल ही निकल पड़े मुहिम पर. गांव-गांव, क़स्बे-क़स्बे, शहर-शहर लोगों से मिले. उनकी दिक़्क़तों को जाना. उन दिक़्क़तों को दूर करने का लोगों को भरोसा दिया. यही कोई 68 दिनों तक यह सिलसिला चला और 15 जून को 1,475 किलोमीटर के पैदल-सफ़र के बाद आकर ठहरा. इस मुहिम का नतीज़ा? राजशेखर रेड्डी की अगुवाई में कांग्रेस ने 2004 के लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में, दूसरी पार्टियों को सिर उठाने का मौका न दिया. सूबे की 294 में से 185 विधानसभा सीटें कांग्रेस ने जीतीं. यही नहीं, उसने 42 में 29 लोकसभा सीटें भी जीतीं. ज़ाहिर तौर पर इसके बाद राजशेखर रेड्डी के सामने कोई चुनौती नहीं थी. लिहाज़ा, आंध्र प्रदेश के वज़ीर-ए-आला का ताज़ भी उनके ही सिर पर सजा इसके बाद.
आंध्र प्रदेश का 14वां मुख्यमंत्री बनने के बाद राजशेखर रेड्डी ने इस तरह के काम किए कि उन्हें ‘मसीहा’ की तरह दर्ज़ा देने लगे लोग. मसलन- किसानों को मुफ़्त बिजली, आम आदमी की सेहत के लिए बीमा, मुफ़्त एंबुलेंस सर्विस, लोगों के लिए सस्ते घर, उनके कारोबार के लिए सस्ता कर्ज़, बेहद ही कम दाम पर अनाज और ऐसा ही काफ़ी-कुछ. इसका नतीज़ा ये हुआ कि 2009 में जब फिर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव हुए तो आंध्र की सियासत में किसी भी पार्टी के पास राजशेखर रेड्डी का कोई तोड़ नहीं था. कांग्रेस को इस बार उन्होंने लोकसभा की 42 में 33 सीटें दिलाईं. यानी 2004 से ज़्यादा और केंद्र में अपनी इस पार्टी की सरकार फिर बनवाने में सबसे अहम किरदार अदा किया. यही नहीं, लगातार दूसरी बार 156 सीटें जीतकर सूबे में भी अपनी सरकार फिर बनाई. मगर वे दूसरी बार, अपनी शान-ओ-शख़्सियत के मुताबिक कुछ और काम कर पाते कि उसके पहले ही हादसा हो गया. साल 2009 के ही सितंबर महीने की दो तारीख़ थी वह.
बुध का दिन. सुबह सात बजे के क़रीब राजशेखर रेड्डी चार और लोगों के साथ हेलीकॉप्टर से चित्तूर के लिए निकले थे. कि तभी एक-सवा घंटे बाद उनका हेलीकॉप्टर ख़राब मौसम की वजह से कुर्नूल के जंगलों में कहीं भटक गया. ख़बर मिलते ही चारों तरफ़ अफ़रा-तफ़री मच गई. आनन-फा़नन में लापता हेलीकॉप्टर की तलाश शुरू कर दी गई. बताते हैं, 5,000 के क़रीब जवानों ने जंगल का चप्पा छाना. इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुरंसधान संगठन) के उपग्रहों से मदद ली गई. यही कोई 24 घंटे के बाद आख़िर रुद्रकोंडा की पहाड़ी पर हेलीकॉप्टर के परखच्चे मिले. उसमें सवार राजशेखर रेड्डी सहित पांचों लोगों के ज़िस्म बुरी तरह झुलस चुके थे. टुकड़े-टुकड़े हो गए थे. बड़ी मशक़्कत के बाद उन सभी को वहां से नीचे लाया जा सका और उनका अंतिम संस्कार किया गया. कहते हैं, अपने ‘मसीहा’ की मौत का आंध्र के लोगों को ऐसा सदमा लगा कि 100 से ज़्यादा लोगों की दिल का दौरा पड़ जाने या ख़ुदकुशी कर लेने से मौत हो गई. हालांकि, मौत के आंकड़ों और उनकी वज़हों की पुख़्तगी न हुई कभी. पर ये सच रहा कि रेड्डी के हादसे के बाद बड़ी तादाद में मौतें हुई थीं.
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(नोट : इस दास्तान के लिए अहम संदर्भ और प्रसंग वाईएसआर राजशेखर रेड्डी की पत्नी वाईएस विजयलक्ष्मी की किताब ‘नालो…नाथो…वाईएसआर’ (मुझमें…मेरे साथे…वाईएसआर) से भी लिए गए हैं.)
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Tags: Birth anniversary, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : July 08, 2022, 17:23 IST