दास्तान-गो : हिन्दुस्तान में एक तानसेन तराने के भी हुए उस्ताद अमीर खां
दास्तान-गो : हिन्दुस्तान में एक तानसेन तराने के भी हुए उस्ताद अमीर खां
Daastaan-Go : Ustad Amir Khan Birth Anniversary : हमारे यहां जिसे खंड-मेरु कहते हैं, उसकी 5,040 तानें हैं. यह सा, रे, ग, म से शुरू होती हैं, जो पहली तान होती है. और नि, ध, प, म, ग, रे, सा, ये 5,040वीं तान होती है. ये तानें मैंने बचपन में ही याद कर ली थीं’. मैं बताऊं आपको कि खंड-मेरु की इन सभी तानों में कोई रिपीटेशन नहीं होता. मैंने उन्हें दिल से याद किया था. उनसे मुझे बहुत मदद मिली. कि मैं किसी तरफ़ भी चला जाऊं. कि कितने भी वक़्त का अंतर देकर मैं सुर लगाऊं, मुझे तक़लीफ़ नहीं होती.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, हिन्दुस्तान में तानसेन एक ही हुए. ऐसा सब कहते हैं. क्योंकि सब ऐसा ही जानते हैं. हालांकि उनके इस जानने और कहने का मतलब सिर्फ़ यही मानना चाहिए कि उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मुख़्तलिफ़ पहलुओं, लोगों के बारे में ठीक तरह जाना नहीं है. पढ़ा नहीं है. समझा नहीं है. वरना, पता चलता कि हिन्दुस्तान में ऐसे बहुत से गुरु, उस्ताद हो चुके हैं जो अपने काम से मूसीक़ी को नए मायने दे गए हैं. बल्कि उसके किसी एक पहलू पर ही इतना काम करने के बाद दुनिया से विदा हुए हैं कि उसके मायने ही बदल गए. वह पहलू ख़ास अब उनके ही नाम से पहचाना जाने लगा है. मिसाल के तौर पर उस्ताद अमीर खां. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में इंदौर घराने की नींव डालने वाले अमीर खां साहब, जिन्हें ‘तराने का तानसेन’ कह दें, तो ग़लत न होगा. क्योंकि लोग आज तक तराने पर किए उनके काम के लिए उन्हें याद किया करते हैं.
जनाब, अमीर खां साहब के बारे में आगे दास्तान कहने से पहले एक बात जान ली जाए कि शास्त्रीय संगीत में साफ, समझने लायक बोलों के साथ जो गीत या कविता गाई जाती है, उसे ‘बंदिश’ कहते हैं. ‘बंदिश’, यानी वह कविता या गीत, जिसे राग के नियम-क़ायदों के बंद-दायरे में रहकर गाया जाता है. इसके अलावा एक और तरह की ‘बंदिश’, जिसमें ‘तोदानी’, ‘नादिरदानी’, ‘तोम’, ‘याला लाला’ जैसे कई बोल हुआ करते हैं. उसे ‘तराना’ कहा जाता है. कहते हैं कि अरब, फ़ारस से हिन्दुस्तान आई ‘ख़्याल गायकी’ के साथ-साथ ‘तराना’ भी आया. हिन्दुस्तान में पहले से ‘ध्रुपद गायकी’ हुआ करती थी. उसके अभिन्न हिस्सों में ‘नोम-तोम गायकी’ होती है. ‘तराना-गायकी’ का उससे काफ़ी मेल हुआ. लिहाज़ा हिन्दुस्तान में इन दोनों को मिलाकर उस्तादों, गुरुओं ने तरह-तरह के तज़ुर्बे किए और ‘ख़्याल’ व ‘तराना’ अपनी आसानियत के कारण तेजी से मशहूर हो गया.
हालांकि, इसी बीच एक दौर ऐसा भी आया, जब विष्णु नारायण भातखंडे जी जैसे संगीत-शास्त्रियों ने ‘तराना’ को ‘अर्थहीन’ बताया. उन्होंने संगीत की अपनी किताबों में ‘तराना’ को शामिल करना उचित नहीं समझा. कारण वही कि इसके बोल आसानी से सभी सुनने वालों के समझ नहीं आते. ज़नाब, इस दौर के कुछ बाद ही तस्वीर में आए उस्ताद अमीर खां, जिन्होंने ख़ास तौर पर तराने को नए मायने देने का काम किया. रेडियो को दिए अपने एक इंटरव्यू में अमीर खां साहब ख़ुद इस मसले पर तफ़्सील से बताते हैं, ‘तराना की ख़ोज मैंने ऐसे की कि दिल्ली में एक मेरे दोस्त थे, बिस्मिल सईदी. वे बड़े अच्छे शा’इर थे. शा’इरी से मेरा भी शौक़ था. उन्होंने मुझे अमीर ख़ुसरो की एक रुबाई सुनाई. उसमें कुछ बोल थे- दरा, दरा, दरा तो दरतन, दरतन. मैंने उनसे इसके मतलब पूछे तो उन्होंने बताया कि इसके मायने हैं- अंदर आओ, अंदर आओ, तन के अंदर आओ’.
‘वहां से मुझे ख़्याल आया कि इस तरह के बोल तो संगीत में भी इस्तेमाल किए जा सकते हैं. तो ये तराने के इब्तिदाई बोल हुए. फिर मैंने उस तरफ़ काम शुरू किया. किताबें देखीं. संगीत की जितनी किताबें हैं. भातखंडे साहब की या किसी की भी, उसमें तराने को अर्थहीन लिख दिया है उन्होंने. वे शायद उस ज़बान से वाक़िफ़ नहीं थे, इसलिए हो सकता है. तब भी उन्हें लिखना नहीं चाहिए था, वो लिखा ख़ैर. तो मैंने उसकी ख़ोज की कि तराने में आने वाले लफ़्ज़ ‘तोदानी’ को क्या कहते हैं, ‘नादिरदानी’ किसे कहते हैं. ‘तोम’ क्या चीज़ है, ‘याला लाला’ क्या है. तो उस सबके मायने पता चले. जैसे ‘तोदानी’ मतलब ‘तू जानता है’. ‘नादिरदानी’ यानी ‘तू अनोखा है, मोहब्बत को जानने वाला है’. ‘ओदानी’, माने ‘वह जानता है’. ‘याला लाला’ जो है, वह ‘या अल्लाह’ अथवा ‘या अली’ का संक्षिप्त रूप है. तब मुझे लगा कि यह ‘तराना’ तो एक क़िस्म का मंत्र-जाप है’.
‘जैसे हर जाप में बार-बार दोहराव होता है. वैसे ही, इसमें ख़ुदा के लिए बार-बार उससे जुड़ी तमाम चीज़ों का दोहराव ही है. फिर मैंने पुराने गवैयों के तरानों पर भी ग़ौर किया. पता चला कि उन लोगों ने कुछ तबले के बोल भी मिला दिए हैं. ख़ास तौर पर अंतरे में. इससे वे और ख़ूबसूरत हो गए हैं. हालांकि, तरानों के बोल का मसला अब भी बना हुआ था. लिहाज़ा, मैंने अमीर ख़ुसरो जैसे शाइ’रों के जो रुबाई वग़ैरा थे, उसी क़िस्म के तराने बनाने को तरज़ीह दी. उन्हें लोगों के सामने उनके मायनों के साथ पेश किया, तो उन्हें बहुत पसंद किया गया. हिन्दुस्तान, पाकिस्तान, दोनों में वे मशहूर हुए. ख़ूब तारीफ़ें मिलीं. इस तरह ये सिलसिला बना’. अलबत्ता जनाब, उस्ताद अमीर खां की मशहूरियत सिर्फ़ तरानों तक नहीं ठहरी है. यहां बताएं आपको कि संगीत में ‘ख़्याल-गायकी’ मूल रूप से दो तरह की होती है. एक को ‘बड़ा ख़्याल’ कहते हैं. दूसरे को ‘छोटा-ख़्याल’.
जैसा कि नाम से ज़ाहिर है, ‘बड़ा ख़्याल’ यानी वह जिसका विस्तार ज़्यादा होता है. उसे कम लय में गाया जाता है, जिसको ‘विलंबित-लय’ कहते हैं. इस लय में गायकी आसान नहीं होती. इसे अगर ठीक तरह से न गाया जाए, तो आम सुनने वालों का मन उचाट करने लगती है. मुमकिन है, इसी वज़ह से धीरे-धीरे ‘विलंबित-लय की ख़्याल-गायकी’ अधिकांश गवैये पीछे छोड़ते चले गए. सीधे मध्य (मध्यम) और द्रुत (तेज) लय को पकड़ने लगे. लेकिन ज़नाब, उस्ताद अमीर खां ने इस ‘विलंबित लय की गायकी’ में भी अपना एक अलग वितान (विस्तार) रच दिया. वह भी ऐसा कि आम सुनने वाले भी उनकी इस गायकी को सुनने के लिए घंटों-घंटों उनके सामने बैठे रहते थे. यह कैसे मुमकिन हुआ, इस पर उस्ताद अमीर खां साहब ने अपने इंटरव्यू के दौरान ख़ुद ही रोशनी डाली. बताया कि किस तरह उन्होंने अपने बचपने से ही इसका ज़मीन तैयार कर ली थी.
‘मैंने अपने वालिद (उस्ताद समीर खान साहब) से तालीम हासिल की. शुरू से आख़िर तक. वे सारंगी और वीणा दोनों बजाते थे. हर बाप की तरह वे भी चाहते थे कि बेटा कुछ अच्छे मक़ाम तक पहुंचे. बड़ी कुर्बानियां कीं उन्होंने मेरे लिए. मैंने वह मक़ाम हासिल कर लिया, ये तो मैं नहीं कह सकता. मैं समझता हूं कि मुझे अभी संगीत के क्षेत्र में ज़्यादा महारत हासिल नहीं हुई है. लेकिन जो मोहब्बत करने वाले हैं मुझसे, वे ‘आज का तानसेन’ और न जाने क्या-क्या कह दिया करते हैं. ये उनकी मोहब्बत है. उसके लिए मैं क्या करूं. रही बात विलंबित ख़्याल गायकी की तो उसका अपना अंदाज़ है. उसमें मैं जो भी कर पाया, वह इसलिए कि हमारे यहां जिसे खंड-मेरु कहते हैं, उसकी 5,040 तानें हैं. यह सा, रे, ग, म से शुरू होती हैं, जो पहली तान होती है. और नि, ध, प, म, ग, रे, सा, ये 5,040वीं तान होती है. ये तानें मैंने बचपन में ही याद कर ली थीं’.
‘मैं बताऊं आपको कि खंड-मेरु की इन सभी तानों में कोई रिपीटेशन नहीं होता. मैंने उन्हें दिल से याद किया था. उनसे मुझे बहुत मदद मिली. कि मैं किसी तरफ़ भी चला जाऊं. कि कितने भी वक़्त का अंतर देकर मैं सुर लगाऊं, मुझे तक़लीफ़ नहीं होती. मेरे पास इस तरह अब सुरों को कहने, बताने लगाने की हज़ारों क़िस्में हो गईं. भंडार हो गया. इससे विलंबित के लिए भी गुंज़ाइश बहुत हो गई. मैं कह सकता हूं कि मैं एक सुर को 10-20 बार भी अलग-अलग तरीके से लगा सकता हूं. मेरा यही तरीका शायद लोगों को पसंद आया. हालांकि बाद में मैंने इस पर भी काम किया. मैंने सोचा कि 5,040 तानें याद करने में बाकी लोगों को मुश्किल आ सकती है. इसलिए मैंने उन्हें छांटकर 168 कर दिया. ये वे हैं जो लगातार काम आने वाली चीजें हैं. विलायत खां सितारिए को भी मैंने यह सब दिया है. अब ये उन सीखने वालों पर है कि वे उसे मानें या न मानें’.
जनाब, ये उस्ताद अमीर खां साहब के दायरे का विस्तार अभी इससे और भी आगे है. मसलन फिल्म संगीत को मशहूरियत का एक पैमाना कह दिया जाता है अक्सर. तो जनाब, उस्ताद अमीर खां साहब वहां भी मौज़ूद पाए जाते हैं. अपनी अलहदा ख़ासियतों के साथ. मिसाल लेनी है तो साल 1952 की फिल्म ‘बैजू-बावरा’ की ले लीजिए. पूरी तरह शास्त्रीय संगीत के ही विषय पर आधारित इस फिल्म के एक-दो नहीं, बल्कि पांच नग्मे उस्ताद अमीर खां साहब ने गाए हैं. इनमें एक नग़्मा तो फिल्म का क्लाइमैक्स सीन है. बादशाह अकबर के दरबार में बैजू-बावरा और तानसेन के बीच गायन-प्रतिस्पर्धा है. वहां दोनों को अपनी गायकी से पत्थर पिघलाना है. राग देसी में गायकी शुरू हुई है, ‘आज गावत मन मेरो झूम के’. अंत में, तानसेन के तानपूरे का तार टूट जाता है और बैजू-बावरा की गायकी तब तक जारी रहती है, जब तक पत्थर पिघलकर पानी में घुल नहीं जाता.
इस गाने में दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर के साथ दूसरी आवाज़ उस्ताद अमीर खां साहब की है. इसी तरह इन्हीं दोनों आवाज़ों में राग तोड़ी का नग़्मा ‘लंगर कंकरिया जी न मारो’. जबकि उस्ताद अमीर खां की आवाज़ में राग पूरिया धनाश्री का ‘तोरी जय जय करतार’, राग मेघ में ‘घनन घनन घन गरजो’ और राग दरबारी से निकलकर आई ख़ूबसूरत सरगम भी. सरगम, यानी जिसमें बोल नहीं सिर्फ़ सुर होते हैं. वैसे, दरबारी से याद आया जनाब, ये राग ख़ुद उस्ताद अमीर खां साहब का सबसे पसंदीदा हुआ करता था. ऐसा उन्होंने ही बताया है. तो जनाब, ऐसे हुए उस्ताद अमीर खां साहब. बल्कि यूं कहना चाहिए कि इससे भी बहुत आगे. तभी तो शास्त्रीय संगीत का इंदौर घराना उन्हीं से शुरू होकर आगे बढ़ा है. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में घरानों का बंदोबस्त ठीक वैसा ही है, जैसा हिन्दू धर्म में ‘गोत्र’ का हुआ करता है. हर किसी के नाम से शुरू नहीं होता गोत्र.
जनाब, उस्ताद अमीर खां ने ज़िंदगी में शायद ही कभी किसी बात की शिकायत की हो. कभी कोई उनसे पूछता कि खुश हो? तो वे एक शेर पढ़ दिया करते, ‘गुंचे तेरी ज़िंदगी पे दिल हिलता है, सिर्फ़ एक तबस्सुम के लिए खिलता है. गुंचे ने कहा- इस दुनिया में बाबा, ये तबस्सुम भी किसे मिलता है’. अलबत्ता, कभी नाख़ुश भी होते थे. कहा करते थे, ‘संगीत मेरी ज़िंदगी का हिस्सा है. मैं अगर गाऊं नहीं सुबह या शाम, तो मुझे मालूम होता है कि मेरी ज़िंदगी की कोई चीज रह गई है. बस, उसी एक पल मुझे तक़लीफ़ होती है’. जनाब, इन अमीर खां साहब का आज, 15 अगस्त को जन्मदिन होता है. साल 1912 में, इंदौर में उनकी पैदाइश हुई, ऐसा उनके पासपोर्ट पर दर्ज़ हुआ था. भारत सरकार की फिल्म-डिवीज़न ने 1970 में उन पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी. उसी में एक तस्वीर अमीर खां साहब के पासपोर्ट की भी मिलती है. अलबत्ता, जन्म तो उनका कोई लोग अप्रैल महीने में भी बताया करते हैं. और पैदाइश की जगह इंदौर के बज़ाय हरियाणा के कलानौर की.
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Tags: Birth anniversary, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : August 15, 2022, 17:30 IST