दास्तान-गो: श्रीकृष्ण के गुजरात में एक जगह ऐसी जहां श्रीराम रहते हैं ‘शबरी के राम’
दास्तान-गो: श्रीकृष्ण के गुजरात में एक जगह ऐसी जहां श्रीराम रहते हैं ‘शबरी के राम’
Daastaan-Go ; Story of Dang Area of Gujarat, Known For Shabari Dham : क़रार के मुताबिक 1894 में ‘डांग-दरबार’ लगाया गया और फिर यह सिलसिला चल पड़ा. हिन्दुस्तान से अंग्रेजों के जाने के बाद उसी तरह. कहते हैं, अंग्रेजों के दौर में ‘डांग-दरबार’ का जलसा पूरे 15 दिन तक चलता था. अलबत्ता, अभी कुछ सालों पहले इस जलसे को तीन दिन का किया गया है. बाकी सभी चीज़ें पहले सी क़ायम हैं. पेंशन भी, जो हिन्दुस्तान में सरकारी तौर पर सिर्फ़ इन्हीं पांच राजाओं काे मिलती है.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, हिन्दी महीनों का जो कैलेंडर होता है न, उसके मुताबिक आज विवाह पंचमी है. ‘विवाह पंचमी’ यानी वह तारीख़ जिस रोज़ श्रीराम-सीता का विवाह हुआ था. सो इस मौक़े पर सोचा कि क्यों न श्रीराम की ज़िंदगी से जुड़ा एक क़िस्सा ही कह दिया जाए और उसके बहाने कुछ आज की बातें. ये क़िस्सा ऐसा है, जिसके बारे में कभी-कभार ही बात होती है्. ‘शबरी के राम’ का क़िस्सा. हां, ‘शबरी के राम’ ही. क्योंकि ‘श्रीराम’ की शख़्सियत ही ऐसी हुई कि वे सब के लिए ‘अपने अलग से’ हो गए. रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं न, ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत तिन देखी तैसी’. सो, ऐसे ही ‘शबरी के राम’, जो ‘श्रीकृष्ण के गुजरात’ में रहते हैं. अब गुजरात श्रीकृष्ण का इसलिए, क्योंकि यह ‘कृष्ण की कर्मभूमि’ रही है. उनकी निशानियां यहां हर कहीं हैं. इसीलिए तो गुजरात के लोग भी दुआ-सलाम में ‘जय श्रीकृष्ण’ कहा करते हैं.
लेकिन इसी गुजरात में एक जगह ऐसी है, जहां लोगों की ज़ुबान से आज भी ‘राम-राम, सीता-राम’ सुनाई देता है. ये जगह है, डांग. घने जंगलों वाला ठेठ आदिवासी इलाका. सरकारी दस्तावेज़ में डांग जिले के तौर पर दर्ज़ है. और इस जिले की सरकारी वेबसाइट ही बताती है कि यह इलाक़ा श्रीराम के दौर में दंडकारण्य यानी दंडक-वन का हिस्सा रहा. मतलब वह इलाक़ा, जहां श्रीराम ने वनवास का वह आख़िरी वक़्त बिताया, जब माता-सीता का हरण हुआ. कहते हैं, इसी दौरान जब वे माता-सीता को ढूंढते हुए जंगल-जंगल भटक रहे थे, तभी एक जगह उनकी मुलाक़ात अपनी भक्त शबरी से हुई. भील आदिवासियों के समाज की राम-भक्त शबरी. बरसों-बरस से वह अपनी कुटिया में श्रीराम के आने की बाट जोह रही थी. उन्हीं के नाम का कीर्तन, उन्हीं के नाम भजन किया करती थी. सो, उसकी भक्ति देखकर आख़िर एक दिन श्रीराम को भी आना ही पड़ा.
बताते हैं कि जब भाई लक्ष्मण के साथ श्रीराम आए तो शबरी को उनकी आव-भगत का कोई तरीक़ा ही न सूझा. अपने देवता को सामने देख बावरी हो गई वह. सो, आंसुओं से उसने पैर धोए उनके. जंगल के फूलों से अगवानी की. और जंगली-बेर ही खाने को दे दिए. ये बेर भी कैसे? झूठे. क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि जंगली बेर खाकर उसके प्रभु के दांत खट्टे हो जाएं. मुंह का स्वाद कसैला हो. लिहाज़ा, उसने ख़ुद पहले चख-चखकर उनके सामने सिर्फ़ मीठे बेर रखे. ये देख लक्ष्मण को अचरज हुआ कि ‘भला यह कैसी आव-भगत!’. मगर प्रेम के भूखे श्रीराम ने ख़ूब मज़े वे झूठे बेर खाए. और बस, तब से ये इलाक़ा ‘श्रीराम का’ और यहां के लोग ‘श्रीराम के’ हो गए. और जनाब, जो न जानते हों उन्हें बता दें कि इस इलाक़े में शबरी से श्रीराम की मुलाक़ात वाली वह जगह आज भी है. सापूतारा क़स्बे से 30-35 किलोमीटर दूर सुबीर गांव में. ‘शबरी-धाम’ कहते हैं उसे.
तो जनाब, ये ताे हुआ ‘शबरी के राम’ का क़िस्सा. उन्हीं के दौर का. पर इसके बाद अब बात करते हैं आज के दौर की. गुजरात का ये जो डांग इलाक़ा है न, इसके बारे में ऐसा कहते हैं कि यह आज भी इस बात का ख़्याल रखता है कि जो लोग भी इससे वाबस्त हों, इसके संपर्क में आएं, उनके मुंह का स्वाद कसैला न हो, खट्टा न हो. शायद यही वजह है कि यहां के लोगों ने मिलकर इस इलाक़े (डांग जिले) को सिर्फ़ और सिर्फ़ जैविक खेती करने वाला बना दिया है. गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवब्रत ने बीते साल 19 नवंबर को यह ए’लान किया था कि हिन्दुस्तान के पश्चिमी इलाके में डांग पहला जिला हो गया है, जहां 100 फ़ीसद जैविक खेती होती है. यानी लोगों के मुंह का स्वाद ख़राब करने वाले, उनकी रग़ों ज़हर उतार देने वाले नए ज़माने के ज़हरीले कीटनाशकों, ख़ाद वग़ैरा का रत्तीभर भी इस्तेमाल, खेती करने में यहां नहीं होता. यक़ीनन बड़ी बात है न?
बिल्कुल है ही जनाब. लेकिन गुजरात के इस सबसे छोटे डांग जिले में रहने वालों की ‘बड़ी बातों’ में सिर्फ़ यही एक-दो गिनती में नहीं आतीं. और भी हैं. मसलन- यहां का ‘डांग दरबार’. घूमने -फिरने के शौक़ीन सैलानियों के लिए ये ‘डांग-दरबार’ बड़ा ही दिलचस्प मौक़ा होता है. हर साल जून के महीने में यह दरबार लगता है. जिला मुख्यालय आहवा में. इसमें सरकारी अफ़सर होते हैं. मंत्री-संतरी होते हैं. हज़ारों सैलानी और पूरे इलाक़े की जनता. फिर इनके बीच इस इलाक़े के पांच आदिवासी राजा अपनी-अपनी सवारियों पर चढ़कर पहले जैसी शान-ओ-शौक़त के साथ सब के बीच आते हैं. लिंगा के राजा भंवर सिंह सूर्यवंशी. गढ़वी के राजा किरण राव पवार. दाहेर के राजा तापत राव पवार. वासुरना के राजा धनराज सिंह सूर्यवंशी. और पिंपरी के राजा टीकमराव पवार. ढोल-ढमाकों के साथ इन पांचों राजाओं के पहले से तैयार मंच पर ले जाया जाता है.
मंच पर मंत्री, अफ़सरान इन राजाओं का सम्मान करते हैं. इसके बाद पूरी इज़्ज़त के साथ उन्हें उनके हिस्से की सालाना पेंशन अदा करते हैं. सालाना पेंशन, जो आज भी डांग के पांच राजाओं को सरकारी ख़ज़ाने से अदा की जाती है. बताते हैं, ये सिलसिला अंग्रेजों ने शुरू किया था. साल 1894 में. दरअस्ल हुआ यूं था कि हिन्दुस्तान के दीगर इलाक़ों की तरह क़ुदरती दौलत से भरपूर इस डांग इलाक़े पर भी अंग्रेजों की नज़र थी. वे इस दौलत को हासिल करने के लिए डांग इलाक़े पर क़ब्ज़ा करना चाहते थे. मगर यहां के पांच राजाओं ने मिलकर उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया. कई बार अंग्रेजों ने फ़ौजी ताक़त के बलबूते इन राजाओं को हराने की कोशिश की. लेकिन हर बार ना-कामयाब हुए. तब उन्होंने जुगत भिड़ाई और किसी तरह समझा-बुझाकर इन पांचों राजाओं के साथ एक क़रार कर लिया. इसके तहत पांचों राजाओं के लिए सालाना पेंशन बांध दी गई.
इतना ही नहीं, क़रार में अंग्रेजों ने यह भी लिखा कि डांग के पूरे जंगल आख़िरी तौर पर सिर्फ़ और सिर्फ़ इन पांचों राजाओं के मालिकाने में रहेंगे. और उनके हक़ वाले इलाक़े से सरकार उनकी इजाज़त से ही क़ुदरती दौलत का इस्तेमाल करेगी. उसे हासिल करेगी. यही नहीं, इस सब के एवज़ में इन पांचों राजाओं को जब सालाना पेंशन मिलेगी तो वह भी पूरी ‘इज़्ज़त-अफ़ज़ाई के साथ, राजा का रुतबा बुलंद कर के दी जाएगी. लिहाज़ा, इसी क़रार के मुताबिक 1894 में ‘डांग-दरबार’ लगाया गया और फिर यह सिलसिला चल पड़ा. हिन्दुस्तान से अंग्रेजों के जाने के बाद उसी तरह चलता रहा. कहते हैं, अंग्रेजों के दौर में ‘डांग-दरबार’ का जलसा पूरे 15 दिन तक चलता था. अलबत्ता, अभी कुछ सालों पहले इस जलसे को तीन दिन का किया गया है. बाकी सभी चीज़ें पहले सी क़ायम हैं. पेंशन भी, जो हिन्दुस्तान में सरकारी तौर पर सिर्फ़ इन्हीं पांच राजाओं काे मिलती है.
हालांकि इन तीन दिनों की ‘इज़्ज़त-अफ़ज़ाई के बाद जो क़ायम नहीं रहता, वह है इन डांग-राजाओं का रुतबा. बताते हैं, आम दिनों में इनमें से एक राजा तो ऑटो चलाकर गुज़र-बसर किया करते हैं. बाकी चार भी आम लोगों की तरह ही मेहनत-मज़दूरी करते हैं. ख़ैर, ये कोई ख़ास बात नहीं. वक़्त है. हमेशा एक सा कहां रहता है.
आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.
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