Daastaan-Go ; Saira Bano Birth Day Special : हिन्दी फिल्मों की दुनिया में उसकी वालिदा को बहुत से लोग ‘आपा जी’ ही कहकर इज़्ज़त देते थे. क्योंकि 1930 और 40 की दहाइयों में उन्होंने हिन्दी फिल्मों की दुनिया पर राज किया था, ‘रानी सुंदरी’ (ब्यूटी क्वीन) की तरह. फिल्मों की पहली ‘महिला महा-सितारा’ (फीमेल सुपर-स्टार) की तरह. नसीम बानो नाम हुआ उनका और यह कमसिन लड़की उन्हीं की बेटी सायरा. सायरा बानो.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, एक लड़की थी, कमसिन (कम उम्र). यही कोई 11-12 बरस की. अच्छे ख़ानदान से तअल्लुक रहा उसका. लंदन में रहा करती थी. शायद छठें दर्ज़े में पढ़ती थी उस वक़्त. कि एक रोज़ स्कूल के पास मौज़ूद एक ख़ास जगह पर उसकी नज़र पड़ी. कोई पोस्टर-बोर्ड था. उस पर किसी हिन्दी फिल्म का पोस्टर लगा था. उस ज़माने में हिन्दी फिल्मों के मशहूर अदाकार यूसुफ़ ख़ान उर्फ दिलीप कुमार का चेहरा नुमायां था उस पर. उन्हीं की किसी फिल्म का पोस्टर था. वह लड़की उस पोस्टर-बोर्ड के पास सांस लेने रुकी थी कि दिलीप कुमार का चेहरा देखकर उसकी सांसें ही अटक गईं. उसकी मां हिन्दी फिल्मों की दुनिया से वाबस्ता थीं. इसलिए उनके मुंह से अब तक उसने दिलीप कुमार का सिर्फ़ नाम ही सुना था. ख़्यालों में एक चेहरा था, जो आज पोस्टर पर उसके सामने यूं नज़र आ रहा था, जैसे अभी बोल पड़ेगा. साथ में, कोई और अदाकारा भी थीं.
लेकिन जनाब, उस पोस्टर को देखते-देखते वह कमसिन लड़की ख़्यालों में यूं डूबी कि उस पोस्टर में मौज़ूद अदाकारा की जगह ख़ुद को चस्पा पाया उसने. कमसिन उम्र का नादां ख़्याल आया. दिलीप के बाजू में ख़ुद को खड़ा देखने का. तय कर लिया उसने वहीं कि यही शख़्स होगा, जो उसका हमराह बनेगा. वह उसी की शरीक-ए-हयात होगी. उस रोज उसके किसी साथी ने उसे टोहनी मारकर उसके ख़्यालों से बाहर लाया था. लेकिन उसके बाद तो जनाब, रोज़ का काम हो गया उसका. स्कूल के पास उस पोस्टर-बोर्ड के पास रुककर ठहरने का. उस पर लगे पोस्टरों में मौज़ूद अदाकाराओं की जगह ख़ुद को चस्पा देखने का. वे पोस्टर हर शुक्रवार बदला करते. अदाकारों के चेहरे बदलते. अदाकाराओं के भी. लेकिन नहीं बदलता तो उस लड़की का सिलसिला, जो अब तक एक और ख़्याली मंसूबा बांध चुकी थी. ये कि उसे भी हिन्दी फिल्मों में काम करना है. ‘आपा जी’ की तरह.
अपनी वालिदा को ‘आपा जी’ कहकर बुलाती थी. हिन्दी फिल्मों की दुनिया में उसकी वालिदा को बहुत से लोग ‘आपा जी’ ही कहकर इज़्ज़त देते थे. क्योंकि 1930 और 40 की दहाइयों में उन्होंने हिन्दी फिल्मों की दुनिया पर राज किया था, ‘रानी सुंदरी’ (ब्यूटी क्वीन) की तरह. फिल्मों की पहली ‘महिला महा-सितारा’ (फीमेल सुपर-स्टार) की तरह. नसीम बानो नाम हुआ उनका और यह कमसिन लड़की उन्हीं की बेटी सायरा. सायरा बानो, जिसने उस उम्र में बस, दो ही ख़्वाब देखे. दो ही हसरतें कीं. और दो ही मंसूबे बांधे. एक- दिलीप कुमार से निकाह करने का. दूसरा- फिल्मों में अदाकारी करने का. और ख़ुश-क़िस्मती देखिए कि उसके ये दोनों ही मंसूबे पूरे हुए. दोनों हसरतें परवान चढ़ीं. दोनों ख़्वाब हक़ीक़त में बदले. बड़ा दिलचस्प है, इससे जुड़ा उसका क़िस्सा, जो उसने ख़ुद कई मर्तबा इंटरव्यू वग़ैरा के दौरान बार-बार बयां किया है. बड़ी साफ़-गोई के साथ.
बताया है कि स्कूल की छुट्टियों के दौरान उसकी ‘आपा जी’ उसे जुलाई से सितंबर के बीच हर साल, दूसरे साल, पूरा यूरोप दिखाते हुए हिन्दुस्तान लाया करती थीं. ताकि उसका देसीपन बना रहे. अपनी जड़ों से जुड़ी रहे वह. अपने मुल्क हिन्दुस्तान के बारे में कोई ग़फ़लत न हो उसे. तो यहां, हिन्दुस्तान में बंबई आने पर फिल्मों के सैट पर जाती. दिलीप कुमार जैसे तमाम सितारे ‘आपा जी’ से मिलने अक़्सर उसके घर भी आते. और वह हर मर्तबा उन्हें देखकर अपनी सुध खो बैठती. अपने ख़्यालों, मंसूबों में गोते लगाने लगती. साल 1944 के अगस्त महीने की 23 तारीख़ की पैदाइश सायरा की ज़िंदगी में यह सिलसिला यही कोई 1960 के आस-पास तक चला. बंबई आती तो फिल्मी-दुनिया उसके नज़दीक होती और लंदन में रहती तो वह फिल्मी-दुनिया को अपने ख़्यालों में लिए फिरती. फिर एक वक़्त आया, जब उसकी दो हसरतों में से एक पूरी हुई.
सायरा अब तक मैट्रिक की परीक्षा दे चुकी थी. मगर उसका नतीज़ा आता कि उससे पहले ही फिल्मों में उसने ‘आपा जी’ से ज़िद कर-कर के जो ऑडीशन दिए थे, उसके नतीज़े आने लगे. कुछ पांच-छह फिल्मों के ऑफ़र मिले. इन्हीं में एक थी, ‘जंगली’. निर्माता, निर्देशक सुबोध मुखर्जी यह फिल्म बना रहे थे. अब मशहूर हो चुके अदाकार शम्मी कपूर को वे ले चुके थे. उनके साथ नई अदाकारा को लेना चाहते थे. लिहाज़ा, ‘आपा जी’ की इज़ाज़त से सायरा को चुना. कश्मीर की वादियों में शम्मी कपूर के साथ सायरा पर पहला सीन फिल्माया जा रहा था. नग़्मा था, ‘काश्मीर की कली हूं मैं मुझे खिल जाने दो बाबू जी’. सायरा को हिन्दी या उर्दू ज़बान ठीक से आती नहीं थी. इंग्लिश, फ्रेंच, लैटिन पढ़कर आई थी. नाचना भी नहीं आता था. बस, थोड़ा बैले जानती थी. अदाकारी की तो बात ही दूर थी अभी. तो इस पहले ही सीन में हद दर्ज़े तक परेशान हो गई वह.
महज़ 16 बरस की नाज़ुक मिज़ाज सायरा, घर में भी अगर ज़्यादा लोग आ जाते तो उनका सामना करने से क़तराया करती थी. वही, यहां हजारों लोगों की निग़ाहों के सामने शूटिंग कर रही थी. तो कई बार ज़बान लड़खड़ा जाए. ज़बान ठीक हो तो वक़्त निकल जाए. परेशान हो गई. शम्मी कपूर भी सब्र खो बैठे और गुस्से में कह दिया, ‘काम करना है ठीक से करो. नहीं तो घर जाओ’. सायरा भीतर तक हिल गई यह सुनकर. लगा कि ज़मीन फट जाए और उसे निगल ले. रोने लगी. ‘आपा जी’ वहीं मौज़ूद थीं. वे आईं और बेटी से बोलीं, ‘मैंने पहले ही कहा था कि ये काम तुम्हारे वश का नहीं है. ग़नीमत कि आज शूटिंग का पहला दिन है. बोरिया बिस्तर बांधो. घर चलो’. इतना सुनना था कि सायरा को लगा, यूं तो उसकी बरसों की साध पर पानी फिर जाएगा. लिहाज़ा, उसने ख़ुद को समेटा. कमर कसी और जो नहीं हो रहा था, उसे एक ही बार में कर दिखाया.
साल 1961 में आई ‘जंगली’ और आते ही सायरा को उभरते सितारे का दर्ज़ा दे गई. कश्मीर की वादियों को फिल्मों के नक़्शे पर उभार गई. रंगीन फिल्मों का दौर शुरू कर गई. इसके बाद सायरा के पास फिल्मों की क़तार लगने लगी. एक के बाद एक कई हिट, सुपरहिट फिल्में दी सायरा ने. ख़ास तौर पर राजेंद्र कुमार के साथ तो सायरा की जोड़ी इतनी पसंद की गई कि क्या कहने. राजेंद्र कुमार के साथ की ही ‘आई मिलन की बेला’ (1964) फिल्म ने सायरा की एक और कमी को दूर कर दिया था अब तक. वह थी डांस न आने की. कथक डांसर रोशन कुमारी और डांस-डायरेक्टर सोहनलाल जी जैसे उस्तादों की मदद से इस फिल्म में सायरा ने अपने डांस से भी सबका ध्यान खींचा. ख़ास तौर पर ‘आई मिलन की बेला देखो आई’ नग़्मे में. हालांकि, वह अब तक दिलीप कुमार का ध्यान अपनी तरफ़ नहीं खींच पा रही थी, जो उसका दूसरा बड़ा मंसूबा थे.
सायरा को फिल्मों में आए अरसा हो गया था. नाम भी ख़ूब हो चुका था. इसी वक़्त निर्माता बीएन रेड्डी ने दिलीप कुमार को लेकर ‘राम और श्याम’ (1967) बनानी शुरू की. साल 1965-66 की बात है. सायरा को लगा कि इसमें उसे दिलीप साहब के साथ ले लिया जाएगा. मुमकिन है, तैयारी भी रही हो क्योंकि कहते हैं, दिलीप साहब ने सायरा के साथ काम करने से तब मना कर दिया था. यह कहते हुए कि ‘वह तो अभी बच्ची है’. सच था, दिलीप साहब और सायरा के बीच 22 बरस का फ़ासला जो ठहरा था. हालांकि, जैसे ही सायरा ने ये सुना, तो बताते हैं कि वह दिलीप साहब से ख़फ़ा हो गई. अपने फिल्मी जोड़ीदार राजेंद्र कुमार के साथ शादी का ख़्याल बुनने लगी. लेकिन राजेंद्र कुमार ठहरे बीवी-बच्चेदार आदमी. वे घर-बार छोड़ने को राज़ी न हुए. बल्कि उन्होंने और ‘आपा जी’ ने मिलकर दिलीप साहब से कहा, ‘सायरा को समझाइए. वह आपको बहुत मानती है’.
तो जनाब, दिलीप साहब भी राज़ी हो गए. उन्होंने ‘बड़े होने के नाते’ सायरा को समझाने की कोशिश की. तब ‘नादान-ख्याल’ सायरा ने उन्हीं पर सवाल दाग दिया, ‘तो फिर क्या आप करेंगे मुझसे शादी?’ दिलीप साहब बड़ी मुश्किल में पड़ गए. कोई ज़वाब न दिया. सायरा से फिर कुछ दूर हो गए. हालांकि तब ‘आपा जी’ ने बिगड़ी बात संभाली. दिलीप साहब को समझाया और इस तरह उन्होंने उन्हें सायरा से शादी करने के लिए राज़ी कर लिया. यह साल था, 1966 का. महीना था, अक्टूबर का और तारीख़ 11 थी, जब दिलीप कुमार से निकाह करने का मंसूबा भी सायरा का पूरा हो गया. इस वक़्त दिलीप साहब थे 44 के और सायरा 22 बरस की. और फिर जनाब, दिलीप-साहब के साथ काम करने का ख़्वाब भी सायरा का पूरा हुआ. उनके साथ ‘गोपी’ (1970), ‘सगीना महतो’ (बांग्ला- 1970) ‘बैराग’ (1976), ‘दुनिया’ (1984) जैसी फिल्मों में वे नज़र आईं.
और अब जनाब, ‘कमसिन, नादां, नाजुक’ सायरा का भोलापन और सादगी देखिए. दिलीप साहब के साथ शादी को 14 बरस हो गए थे. साल 1980 का आ गया था. इस बीच, सायरा की कोख़ में 1972 के साल में एक बच्चा आया. लेकिन बच्चे की पैदाइश के वक़्त उनका ब्लड-प्रेशर अचानक बहुत बढ़ गया. डॉक्टर उनका ऑपरेशन नहीं कर सके और बच्चे की मौत हो गई. फिर वे मां नहीं बन सकीं. इस बात को वज़ह बनाकर दिलीप साहब की बहनों- फौजिया और सईदा ने आशिमा रहमान नाम की एक पाकिस्तानी मूल की महिला से उनकी दूसरी शादी करा दी. साल 1981 में. हैदराबाद की बात है ये. दिलीप साहब ने अपनी आत्मकथा, ‘द सब्सटेंस एंड द शेडो’ इन बातों का ज़िक्र किया है. इस दूसरी शादी को उन्होंने अपनी ‘ज़िंदगी की बड़ी ग़लती’ भी क़रार दिया है. इसका एहसास उन्हें डेढ़ साल में ही हो गया और वे सायरा के पास लौट आए.
सायरा ने बिना कोई शिक़वा किए उन्हें न सिर्फ़ घर बल्कि ज़िंदगी और दिल में भी वापस पुरानी जगह दी. फिर उन्होंने दिलीप साहब के आख़िरी, आख़िरी वक़्त तक भी उनका साथ नहीं छोड़ा. बल्कि उनके लिए फिल्मों का अपना जमा जमाया काम छोड़ दिया. साल 1988 की ‘फैसला’ उनकी आख़िरी फिल्म हुई. इसके बाद उन्होंने सिर्फ़ और सिर्फ़ दिलीप साहब के लिए अपनी ज़िंदगी लगा दी. उनके साथ होने पर वे अक्सर कहा करती थीं, ‘ये (दिलीप साहब) मुझसे मोहब्बत करें या न करें. इनकी तरफ़ मेरी मोहब्बत ही दोनों के लिए काफ़ी है’. दिलीप साहब अलबत्ता, उन्हें ही नहीं इस दुनिया को भी छोड़कर जा चुके हैं. लेकिन सायरा बानो ने अब तक उन्हें छोड़ा नहीं है. अपने ख़्यालों में उन्हें पकड़कर रखा हुआ है. इसका वे ख़ुद ज़िक्र किया करती हैं.
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