दास्तान-गो : माइक टायसन यानी ‘आयरन टायसन’ जिससे टकराता उसे चूर कर देता

Daastaan-Go ; Mike Tyson Birth Anniversary Special : एक दौर था जब हर किसी से मार-पीट करना, उन पर अपना रौब दिखाना, औरतों के साथ वक़्त बिताना, महंगे मकान, कारें, हवाई जहाज़, बड़ी नावों का मालिक होना, यही सब मेरे लिए कामयाबी के मतलब होते थे. लेकिन आज मेरे लिए कामयाबी के मायने हैं- पत्नी को धोख़ा न देना, जेल न जाना, आज में जीना, एक ज़िम्मेदार इंसान की तरह रहना.

दास्तान-गो : माइक टायसन यानी ‘आयरन टायसन’ जिससे टकराता उसे चूर कर देता
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज… ————- अभी डेढ़ साल पहले की बात है जनाब. नवंबर 2020 की. दुनिया के दो बड़े नामी मुक्केबाज़ उस रोज़ एक दिखावटी मैच के लिए आपस में मुक़ाबला करने वाले थे. इनमें एक थे रॉय जॉन्स (जूनियर) और दूसरे माइकल गेरार्ड टायसन. यानी माइक टायसन, जिन्हें उनसे जुड़े तनाज़िआत (विवादों) के कारण ‘धरती के सबसे बुरे आदमी’ का ख़िताब मिल चुका था. लेकिन इसके बावज़ूद उनकी मक़बूलियत (लोकप्रियता) का आलम ये कि तमाम टीवी, रेडियो, अख़बार वाले उनका थोड़ा सा वक़्त लेने, उनसे दो बातें करने के लिए बेताब हुए जाते थे. वह भी तब जबकि उस वक़्त वे खेलना छोड़ चुके थे. उम्र 54 बरस की हो चुकी थी उनकी तब. बहरहाल, उनका वक़्त मिला. अमेरिका में एक टीवी चैनल हुआ करता है, ‘एबीसी न्यूज़’. उससे जुड़े लोगों को टायसन ने वक़्त दिया और चैनल के ‘नाइटलाइन’ नाम के प्रोग्राम के ज़रिए उनसे हुई बातचीत लोगों के सामने आई फिर. टायसन बता रहे थे, ‘एक शख़्स, जिसे अपने आप से मोहब्बत नहीं थी. उसके दिल में ख़ुद के लिए इज़्ज़त नहीं थी. वह अपने आप को पसंद नहीं करता. ज़ाहिर तौर इसीलिए वह ज़िंदा भी नहीं रहना चाहता. वह शख़्स अब मर चुका है. लेकिन आपको पता है, अभी जब हम मुक्केबाज़ी कर रहे हैं तो मैं फिर वही शख़्स होने वाला हूं. उस शख़्स ने ही लंबे वक़्त तक मुझे बचाए रखा. हालांकि जहां तक ज़ाती-ज़िंदगी का सवाल है तो मेरे लिए वह शख़्स मर चुका है. मैं उसे ख़त्म कर देने की कोशिश कर रहा हूं, लगातार. एक दौर था जब हर किसी से मार-पीट करना, उन पर अपना रौब दिखाना, औरतों के साथ वक़्त बिताना, महंगे मकान, कारें, हवाई जहाज़, बड़ी नावों का मालिक होना, यही सब मेरे लिए कामयाबी के मतलब होते थे. लेकिन आज मेरे लिए कामयाबी के मायने हैं- पत्नी को धोख़ा न देना, जेल न जाना, आज में जीना, एक ज़िम्मेदार इंसान की तरह रहना.’ ये मुमकिन है अलबत्ता, कि जो लोग टायसन को जानते हैं, जिन्होंने उनके बारे में पढ़, सुन रखा है, वे उनकी इन बातों पर भरोसा न करें. लिहाज़ा, उन्हें यह बताना ज़रूरी है कि टायसन ने 2009 में अपनी लड़कपन की दोस्त लकिहा स्पाइसर से शादी की है. ये लकिहा की पहली लेकिन टायसन की तीसरी शादी हुई. यानी इन दोनों के साथ को 13 साल हो चुके हैं. उनकी दो औलादें हैं. पहली बेटी- मिलान, जो शादी से पहले ही 2008 में हो चुकी थी. अभी 14 साल की है. दूसरा बेटा- मोरक्को, 11 साल का हो चुका है. यानी टायसन ज़िंदगी में पहली बार भरे-पूरे घर-बार संग सुकून से वक़्त बिता रहे हैं. पेशेवर तौर पर वे एक पॉडकास्ट (इंटरनेट रेडियो) चलाते हैं, ‘हॉटबॉक्सिन विद माइक टायसन’ के नाम से. साथ ही एक ‘लीजेंड्स ऑनली लीग’ भी चलाते हैं. इसमें खेलना छोड़ चुके खिलाड़ियों को मौका देते हैं कि वे फिर मैदान में दम-ख़म दिखाएं. अपनी ज़िंदगी जिएं. आज 30 जून को 56 बरस के हो चुके टायसन कहते हैं, ‘ज़िंदगी मुझसे कहीं ज़्यादा मज़बूत साबित हुई. उसने ठोकरें मार-मार कर मुझे बड़े सबक सिखाए हैं. इनमें सबसे बड़ा सबक मिला शुक्रगुज़ारी का. अब मैं हर किसी का शुक्रगुज़ार रहता हूं. मुझे मिली इस ज़िंदगी का भी.’ हालांकि टायसन का बीता कल इस आज की तरह न था. न्यू यॉर्क शहर के ब्रुकलिन की एक बदनाम बस्ती ब्राउंसविले में उनकी पैदाइश हुई. जब होश संभाला तो उन्हें ये भी पता न था कि उनका बाप कौन है. मां लोरना स्मिथ ने वालिद का नाम बताया- परसेल टायसन. जमैका के रहने वाले थे. लेकिन माइक ने जब आंखें खोलीं तो मां के साथ एक पेशेवर फुटबॉलर जिमी किर्कपैट्रिक को रहते पाया. लिहाज़ा, बाद वक़्त उन्होंने जिमी को ही अपना असल वालिद माना. हालांकि जिमी कोई अकेले न थे, जिन्हें उन्होंने अपनी मां के साथ रह देखा. और भी लोग थे, जिनके साथ उनकी मां रहीं. जिन-जिन लोगों के साथ माइक की मां का रहना हुआ, उनमें से कोई एकाध ही रहा हो जिसने उन्हें इज़्ज़त दी. ज़्यादातर ने इस्तेमाल किया, वक़्त-बेवक़्त मार-पीट की और छोड़ दिया. कहते हैं, इन तमाम हालात से जूझते हुए माइक की मां बेजा शराब पीने लगी थी. यानी वे तमाम हालात जिन्हें समाज हिक़ारत की नज़र से देखा करता है, उनसे माइक पैदाइश से ही दो-चार होने लगे थे. तिस पर वह बस्ती, जहां वे बड़े हो रहे थे. नशाबाज़ी, खून-ख़राबा, मार-पीट, लड़ाई-झगड़ा ये सब आम था वहां. सो, बड़े होते-होते यही सब सीखा माइक ने और कहते हैं, 13 बरस की उम्र में ही करीब 36 बार जेल की हवा खा चुके थे माइक. बालिग नहीं थे, इसलिए कानूनन हर बार उन्हें सुधार-घर भेज दिया जाता. ऐसे ही एक बार न्यू यॉर्क के ट्रियॉन स्कूल (सुधार-गृह) भेज दिए गए. वहीं उनकी मुलाक़ात बॉबी स्टीवर्ट से हुई. वे उस स्कूल का सुरक्षा बंदोबस्त देखा करते थे. पुराने पेशेवर मुक्केबाज़ बॉबी ने माइक के भीतर की आग को देखते ही महसूस कर लिया और उस बच्चे को तुरंत ही उन्होंने कस-डी अमाटो से मिलवा दिया. अमाटो मुक्केबाज़ी की तर्बियत (प्रशिक्षण) दिया करते थे. उन्हें भी माइक के भीतर की दहक तुरंत ही महसूस हो गई और वे भांप गए कि इस लड़के को सही रास्ता दिखाना बहुत ज़रूरी है. और उन्होंने माइक को अपने साथ रख लिया. अपने घर. वहीं दूसरे मुक्केबाज़ों के साथ माइक को इस खेल के गुर सिखाने लगे. यह बात हुई 1980 के आस-पास की. लेकिन माइक को तो जैसे ज़्यादा कुछ सिखाने की ज़रूरत ही न थी. मार-पीट तो रोज़ का काम था उसका. लिहाज़ा उन्होंने माइक को दूसरे के हमलों से बचना सिखाया. ठोड़ी के नीचे दोनों हाथ रखकर ख़ुद को बचाने का हुनर. साथ ही रोज उसके दिमाग़ में ये बिठाया कि वह ‘एक रोज़ मुक्केबाज़ी के इस खेल की दुनिया पर राज करने वाला है.’ और देखिए, महज़ साल भी न बीता कि माइक के तेवर दिखने शुरू हो गए. लगातार दो बार, साल 1981 और 1982 में वह जूनियर ओलंपिक में सोना जीत लाया. लेकिन अभी वह अपने इस नए दौर को ठीक से जज़्ब (आत्मसात) भी न कर पाया था कि मां चल बसी, जो उसे सबसे ज़्यादा चाहती थी. हालांकि उस्ताद अमाटो का साथ अभी बना हुआ था. इसलिए बिखरने से बच गया माइक. और इसके बाद अमाटो ने महज़ 18 बरस की उम्र में ही अपने इस शागिर्द को पेशेवर मुक्केबाज़ी के अखाड़े में उतार दिया. साल 1984 में. लेकिन तभी एक और बड़ा धक्का लगा. उस्ताद अमाटो भी अपने शागिर्द को यूं शुरुआती दौर में ही छोड़कर दुनिया से हमेशा-हमेशा के लिए रुख़्सत हो गए. ये बात है 1985 की. मुमकिन है, यही वह मोड़ रहा हो जहां से माइक के ‘आयरन टायसन’ बनने का सफ़र शुरू हुआ. ‘आयरन टायसन’, जो जिससे भिड़ता उसे चूर कर देता. दस्तावेज़ी रिकॉर्ड बताया करते हैं कि मुक्केबाज़ी के अखाड़े में उतरने के बाद शुरुआती 19 लड़ाइयों में से किसी में माइक को हार का सामना नहीं करना पड़ा. बल्कि इनमें 12 तो मुक़ाबले के पहले दौर में ही उनकी जीत के साथ ख़त्म हो गईं. इसके बाद कुल 28 मुक़ाबलों में से सिर्फ़ दो ऐसे हुए, जिनमें उनकी हार हुई. पेशेवर मुक्केबाज़ी शुरू करने के महज़ दो साल के भीतर मतलब 1986 में, माइक ने वर्ल्ड मुक्केबाज़ी काउंसिल की चैंपियनशिप का ख़िताब अपने नाम कर लिया. यहां वे ट्रेवर बर्बिक को हराकर दुनिया के सबसे कम उम्र के मुक्केबाज़ी चैंपियन बने. मगर ये शुरुआत थी. इसके अगले साल वर्ल्ड मुक्केबाज़ी एसोसिएशन की चैंपियनशिप का भी. और इसके भी अगले साल यानी 1988 में दुनिया की हैवीवेट मुक्केबाज़ी के चैंपियन बन गए. इस तरह अपने उस्ताद की कही बात उनके जाने के महज़ तीन साल के भीतर ही सच कर दिखाई. सिर्फ़ इतना ही नहीं अगले नौ मुक़ाबलों में उनके हाथ से यह ताज़ कोई छीन न पाया. जिसकी वज़ा से उन्हें ‘फाइटर ऑफ द ईयर’ का ख़िताब भी दिया रिंग मैगज़ीन ने. वह भी 1986 और 1988 में लगातार दो बार. — अगली कड़ी में पढ़िए * दास्तान-गो : माइक टायसन, दुनिया में जितने मशहूर हुए उतने ही बदनाम भी ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें up24x7news.com हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट up24x7news.com हिंदी | Tags: Boxing, Hindi news, Mike tyson, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : June 30, 2022, 17:32 IST