दास्तान-गो : शैलेंद्र यह ‘साधारण शब्दों के असाधारण गीतकार’ का नाम है
दास्तान-गो : शैलेंद्र यह ‘साधारण शब्दों के असाधारण गीतकार’ का नाम है
Daastaan-Go ; Lyricist Shailendra Birth Anniversary : घर के हालात जो थे, वे तो थे ही. समाजी हालात भी उन्हें ख़िलाफ़ मिले अपने. मसलन- हॉकी खेलने का शौक़ रखते थे शंकरदास. इससे उन्हें जोश और जज़्बा मिलता था. पर छोटी उम्र में ही एक मर्तबा साथ खेल रहे ‘बड़े घरों के लड़कों ने’ उन पर फ़िक़रा कस दिया. कह दिया, ‘घर में खाने तक के तो पैसे नहीं हैं और ये यहां हॉकी खेलेंगे’.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, हिन्दी सिनेमा के मशहूर नग़्मा-निगार गुलज़ार की बात सुनते हैं पहले. साल 1987 में दिए एक इंटरव्यू गुलज़ार साहब फ़रमाते हैं, ‘एक और शा’इर हैं, जो ज़ाती तौर पर मुझे बहुत अच्छे लगे. वे हैं शैलेंद्र. अदबी दुनिया में उनकी साख़ ‘मॉस-पोएट’ की थी. कम्युनिस्ट थे. कम्युनिस्ट पार्टी के लिए जगह-जगह बोलना और लिखना, शौक़ था उनका. लेकिन नज़्म और गीत का जो फ़र्क़ है, वह शैलेंद्र के अलावा किसी और शा’इर में आज तक महसूस नहीं हुआ. शैलेंद्र के गीतों की क्वालिटी ये है कि आम आदमी की ज़बान में कहना. जैसे- ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिशतानी’. फिर गाने के बीच में ही मार्के की बात कह जाना. मसलन- इसी नग़्मे का एक मिसरा है, ‘होंगे राजे-राजकुंवर, हम बिगड़े दिल शहज़ादे. हम सिंहासन पर जा बैठें, जब-जब करें इरादे’. ये कमाल बस, शैलेंद्र और उनकी राह पर चलने वाले कुछ चुनिंदा लोग ही कर सके हैं अब तक’.
जी हां जनाब, सही समझ रहे हैं. आज मशहूर गीतकार शैलेंद्र की दास्तान कहने का वक़्त है, क्योंकि 30 अगस्त को उनका जन्मदिन हुआ करता है. वैसे, शैलेंद्र की ख़ासियतों के बारे में बहुत लोग, काफ़ी जानते हैं. लेकिन यह जानने वाले शायद कम हों कि शैलेंद्र का अस्ल नाम शंकरदास होता था और उनका ख़ानदान बिहार के आरा जिले के धुसपुर गांव से त’अल्लुक रखता था. हालांकि, ‘शैलेंद्र’ की पैदाइश रावलपिंडी (अब पाकिस्तान के पंजाब में है) में हुई, साल 1923 में. रोज़ी-रोटी की जुगाड़ में उनका परिवार वहां तक पहुंचा था. वालिद केसरीलाल राव फ़ौजी अस्पताल के ठेकेदार हुआ करते थे. उनका असर ऐसा था कि जब बेटे शंकरदास का जन्म हुआ तो पूरे इलाके में मिठाइयां बांटी गईं. अलबत्ता, इस परिवार की ख़ुशहाली वक़्त से देखी न गई. पहिया उल्टा घूम गया उसका और पूरा परिवार घनघोर माली-बदहाली का शिकार हो गया. शहर छोड़ना पड़ा उन्हें.
अब सभी लोग रावलपिंडी से मथुरा आ गए. वहां शंकरदास के भाई रेलवे में नौकरी करते थे. उन्हीं के सहारे पर. इस तरह, शंकरदास का बचपन मथुरा में बीतने लगा. वहीं, सरकारी स्कूल से इंटर तक पढ़ाई हुई. लेकिन दूसरी तरफ घर के हालात बिगड़ते जा रहे थे. पिता लगातार बीमार रहने लगे थे. फ़ाक़ा-कशी का आलम ये था कि कई बार दो वक़्त की रोटी तक नसीब न होती. पूरा परिवार भूख मारने के लिए तरह-तरह की कोशिशें किया करता था. शंकरदास की ज़िंदगी में, एक वक्त ऐसा भी आया कि इक़लौती बहन इलाज न मिल पाने की वज़ह से दुनिया छोड़ गई. इस तरह की तमाम चीजें मिलकर कम-उम्र से ही शंकरदास की शख़्सियत गढ़ रही थीं गोया. वह भी यूं कि इनके असर से वह दूर न हो सके फिर. मिसाल देखिए कि जब वे कविताएं करने लगे तो एक मर्तबा लिखा, ‘बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग ये. न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इंक़िलाब ये’.
इस तरह के लफ़्ज़ यूं ही नहीं निकले उनकी क़लम से. घर के हालात जो थे, वे तो थे ही. समाजी हालात भी उन्हें ख़िलाफ़ मिले अपने. मसलन- हॉकी खेलने का शौक़ रखते थे शंकरदास. इससे उन्हें जोश और जज़्बा मिलता था. पर छोटी उम्र में ही एक मर्तबा साथ खेल रहे ‘बड़े घरों के लड़कों ने’ उन पर फ़िक़रा कस दिया. कह दिया, ‘घर में खाने तक के तो पैसे नहीं हैं और ये यहां हॉकी खेलेंगे’. शंकरदास के साहबज़ादे दिनेश शैलेंद्र एक इंटरव्यू में बताते हैं, ‘खेल के मैदान पर उन लड़कों की बात सुनकर पिता जी को इतनी तक़लीफ़ हुई कि वहीं उन्होंने अपने हाथ से हॉकी तोड़ दी. फिर कभी उस खेल की तरफ मुड़कर न देखा. बल्कि अगले दिन ट्रेन पकड़कर बंबई आ गए. यहां माटुंगा में रेलवे की वर्कशॉप में काम करने लगे’. अलबत्ता, मशीनों के शोर और महानगरी की चकाचौंध के बीच भी शंकरदास के भीतर का कवि, शा’इर मरा नहीं. वे लगातार लिखते रहे.
लिखने का शौक़ शंकरदास को स्कूल के दिनों में ही लग चुका था. डफली बजाने का भी. बंबई में यही दोनों शौक़ उनके हमराह हो रहे थे. यह 1942 के बाद के सालों का वक़्त था. हालांकि बंबई में शंकरदास अब ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के दफ़्तर में भी वक़्त बिताने लगे. यह दफ़्तर मशहूर अदाकार पृथ्वीराज कपूर के रॉयल ओपेरा हाउस के सामने होता था. यहां हर शाम कवियों, शा’इरों की महफ़िलें लगा करती थीं. शंकरदास धीरे-धीरे उनमें अपनी जगह बनाते जा रहे थे और कम्युनिस्ट विचार उनके ज़ेहन में जगह पक्की कर रहा था. हालांकि इस ख़्याल-दारी में हालात भी अपना किरदार तो अदा कर ही रहे थे. बताते हैं, इन तमाम चीजों के असर से इसी दौर में, कभी शंकरदास ने ही वह मशहूर नारा लिखा था, जो आज तक सरकारों, असरदारों के मुक़ाबले में खड़े होने वालों के बीच गूंजता है, थोड़ी तब्दीली के साथ, ‘हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’.
तो जनाब, ऐसी ही किसी महफ़िल में शंकरदास अपनी कविताएं पढ़ रहे थे कि एक रोज सामने सुनने वालों में पृथ्वीराज कपूर के साहबज़ादे राज कपूर भी आ बैठे. यह बात है 1948 की. शंकरदास की कविताओं का राज कपूर पर ऐसा असर हुआ कि उन्होंने तुरंत ही उनके सामने अपनी फिल्मों के लिए गीत लिखने की पेशकश कर दी. मगर उस वक़्त शंकरदास को फिल्मों के लिए गीत लिखना सही न लगा तो उन्होंने मना कर दिया. मगर कुछ महीने बाद वक़्त ने फिर अपना पहिया घुमाया. शंकरदास की मां की तबीयत बहुत खराब हो गई. माली हालात अब भी बहुत अच्छे न थे शंकरदास के और मां का इलाज़ ज़रूरी था. राज कपूर ने फिल्मों के गाने लिखने के एवज़ में अच्छे पैसे देने का वादा किया था. सो, यही आस लिए उनके पास पहुंच गए. मां के इलाज़ के लिए राज कपूर से 500 रुपए कर्ज़ के बतौर मांगे. मिले भी मगर यूं कि जैसे कि यह कर्ज़ा उन्हें दुनियाभर को अपनी ‘क़लम का कर्ज़दार’ बनाने के लिए मिला हो. क्योंकि इसके बाद शंकरदास हो गए गीतकार ‘शैलेंद्र’.
राज कपूर ने ‘शैलेंद्र’ से ‘बरसात’ फिल्म (1949) के लिए दो गीत लिखवाए. इनमें एक- ‘हमसे मिले तुम सजन, तुमसे मिले हम’ और दूसरा- ‘पतली कमर है तिरछी नजर है’. मशहूर गायक मुकेश की आवाज़ में जब ये गाने लोगों के कानों तक पहुंचे तो वहां पर ठिठके नहीं. बल्कि आगे का रास्ता तय करते हुए सुनने वालों के दिल-ओ-दिमाग़ में जा बैठे. क्योंकि ख़ासियत वही थी, ‘आसान लफ़्ज़ों में बड़ी बात कहने की’. वैसे, जानने वाले बताते हैं कि हिन्दी सिनेमा में आसान लफ़्ज़ों में नग़्मे लिखने का सिलसिला डीएन मधोक ने शुरू किया. दीनानाथ मधोक, जो 1940 से 60 की दहाइयों में फिल्मों के बड़े गीतकार होते थे. मगर सही मायनों में सिलसिला आगे बढ़ाकर उसे पुरअंज़ाम तक पहुंचाया शैलेंद्र ने. फिर उनके बाद आनंद बख्शी साहब ने. तो यूं शंकरदास अब शैलेंद्र की सूरत में फिल्मों के लिए नग़्मे लिख रहे थे. ‘साधारण शब्दों के असाधारण गीतकार’ होते जा रहे थे.
एक के बाद एक शानदार. ‘आवारा’, ‘श्री 420’, ‘संगम’, ‘काला बाज़ार’, ‘अनाड़ी’, ‘ज्वैल थीफ’ इस तरह की दर्ज़नों हिट फिल्मों के लिए 800 के क़रीब नग़्मे उनकी क़लम से निकले. वह भी ऐसे कि सरहद पार ग़ैर-मुल्कों में हिन्दी न जानने वालों की ज़ुबान पर भी जा चढ़े. जैसे कि ‘आवारा हूं, आवारा हूं या ग़र्दिश में हूं आसमान का तारा हूं’. या ‘मेरा जूता है जापानी’. राज कपूर की चार सदस्यों वाली टीम में तो शैलेंद्र स्थायी सदस्य हो चुके थे. इसमें शैलेंद्र और राज कपूर के अलावा संगीतकार- शंकर-जयकिशन और गीतकार- हसरत जयपुरी थे. इनके अलावा, एसडी बर्मन और उनके साहबज़ादे आरडी बर्मन जैसे संगीतकार भी शैलेंद्र से अपनी धुनों पर नग़्मे लिखवाने के लिए घंटों उनका इंतज़ार करते थे. ऐसा ही एक नग़्मा ‘खोया खोया चांद, खुला आसामान’. साल 1960 की ‘काला बाज़ार’ फिल्म का. संगीत एसडी बर्मन का है इसमें. इसका दिलचस्प वाक़ि’आ बताया जाता है.
कहते हैं, एसडी बर्मन ने धुन बना ली थी और उस पर गाना लिखवाने के लिए बेटे ‘पंचम’ (आरडी बर्मन) को शैलेंद्र के पास भेजा. उन्हें ढूंढते हुए ‘पंचम’ पहुंच गए संगीतकार शंकर-जयकिशन के घर. शैलेंद्र उस वक़्त उनके लिए कोई नग़्मा लिख रहे थे. लिहाज़ा, वहां आरडी बर्मन को कुछ देर इंतिज़ार करना पड़ा. वहां से शैलेंद्र फ़ुर्सत हुए तो ‘पंचम’ से बोले, ‘चलो, समंदर किनारे चलते हैं’. तो जनाब, दोनों वहां पहुंच गए. वहां शैलेंद्र ने पूछा, ‘पंचम धुन याद है तुझे?’ पंचम बोले, ‘हां, हां क्यों नहीं’. और उन्होंने वहीं सिगरेट के पैकेट पर ताल देकर धुन गुनगुना दी. रात का वक़्त था. धुन सुनते हुए शैलेंद्र चांद को ताक रहे थे. और बस, ऐसे ही 15-20 मिनट के भीतर उसी सिगरेट के पैकेट पर गीत का मुखड़ा और अंतरा लिख दिया उन्होंने. ऐसे हुनरमंद लोग हुआ करते थे जनाब, वे. बनी हुई धुन पर नग़्मा या लिखे हुए नग़्मे पर धुन, कुछ भी बना लेते थे. आसानी से.
और शैलेंद्र ने तो अपनी पहचान ही ‘आसान-सी ख़ास लिखाई’ को बनाया हुआ था. हालांकि आख़िरी दिनों में उनके एक तज़रबे ने उनके सामने फिर बड़ी मुश्क़िलें ला खड़ी कीं. ये तज़रबा था फिल्म बनाने का. पहले ही ज़िक्र किया जनाब, इंक़िलाबी तबीयत के आदमी थे शैलेंद्र. मुमकिन है, उसी के असर में उन्होंने साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित फिल्म बनाने का मंसूबा बांधा हो. यह फिल्म बनी भी, ‘तीसरी कसम’ (1966) के नाम से. लेकिन उस वक़्त चली नहीं. इसकी नाक़ामयाबी ने उन पर कर्ज का बोझ चढ़ा दिया. आर्थिक तंगी ने फिर घेर लिया. कहते हैं, उस दौर में भी उन्हें बचपने की तरह ही ऐसे कई लोगों की बेरुख़ी का सामना करना पड़ा, जिन्हें वे ‘अपना’ समझते थे. इस सब ने उन्हें भीतर से तोड़कर रख दिया. शराब ज़्यादा पीने लगे. इससे एक रोज दिल का दौरा पड़ गया, जो बे-दम कर गया उन्हें.
साल 1967 के दिसंबर महीने की 14 तारीख़ थी वह. जब महज 45 साल की उम्र में शैलेंद्र ज़िस्मानी तौर पर सब से दूर हो गए. और इत्तिफ़ाक़ देखिए कि जिस रोज़ उन्होंने दुनिया छोड़ी, वह राज कपूर की पैदाइश का दिन था. वही राज कपूर, जिन्होंने शंकरदास को ‘शैलेंद्र’ की सूरत में उतारा. दूसरा इत्तिफ़ाक़ कि जिस ‘तीसरी कसम’ की नाक़ामयाबी ने शैलेंद्र को सबसे छीन लिया, वही आगे, देश ही नहीं, दुनिया में असरदार साबित हुई. साल 1967 के ही मॉस्को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में यह हिन्दुस्तान की आधिकारिक फिल्म थी. उसी साल सर्वश्रेष्ठ फिल्म का नेशनल अवॉर्ड जीत लाई थी. और बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट अवॉर्ड तो तीन श्रेणियों में मिले थे इसे. सर्वश्रेष्ठ डायरेक्टर (बासु भट्टाचार्य), सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री (वहीदा रहमान) और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता राज कपूर. जी हां जनाब, शैलेंद्र की इस इक़लौती फिल्म में भी राज कपूर ही उनके हमक़दम हुए थे.
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Tags: Birth anniversary, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : August 30, 2022, 08:28 IST