दास्तान-गो : ‘फ़ौलादी कप्तान’ सीके नायडू जिनके सामने बड़े-बड़े सूरमा ‘पानी मांग जाते’ थे
दास्तान-गो : ‘फ़ौलादी कप्तान’ सीके नायडू जिनके सामने बड़े-बड़े सूरमा ‘पानी मांग जाते’ थे
Daastaan-Go ; India;s First Cricketing Captain CK Nayudu : इस स्थिति में जब नायडू साहब मैदान में उतरे तो उन्होंने चौकों, छक्कों की झड़ी लगा दी. महज़ 116 मिनट में उन्होंने 153 रन ठोक दिए थे. कुल 13 चौके और 11 छक्के थे उनकी पारी में. इनमें एक छक्का तो बॉम्बे जिमखाना की छत पर गिरा था. उनकी इस पारी से अंग्रेज टीम इतनी प्रभावित हाे गई कि उसने नायडू साहब को एक चांदी का बल्ला तोहफ़े में दिया था. कहते हैं, यही वह मौका था कि अंग्रेजों को लग गया कि अब हिन्दुस्तान के क्रिकेट को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है. और उन्होंने लिया भी.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, ‘पानी मांग जाना’ यूं तो एक मुहावरा है, कहने-सुनने के लिए. लेकिन बात अगर भारतीय क्रिकेट टीम के ‘पहले कप्तान’ कोट्टरी कनकैया नायडू की हो, तो फिर मसला देखने-समझने का भी हो जाता है. भारत के एक पूर्व क्रिकेटर हैं चंदू बोर्डे. भारतीय टीम में 1958 से 1970 के बीच रहे हैं. उन्होंने ‘फ़ौलादी कप्तान’ की यह ख़ासियत नज़दीक से देखी है और समझी भी. वाक़ि’आ तब का है, जब बॉम्बे की टीम रणजी ट्रॉफी का सेमीफाइनल खेलने इंदौर गई हुई थी. मुक़ाबले में नायडू साहब की अगुवाई वाली होल्कर (मध्य प्रदेश की टीम पहले इसी रूप में खेलती थी) टीम. साल 1952-53 के सीजन की बात है ये. आगे का किस्सा बोर्डे साहब की ही ज़ुबानी, ‘मैंने पहली बार जब नायडू साहब को देखा, तो मेरी आंखें ही नहीं हटीं उन पर से. क़रीब छह फीट दो इंच की ऊंचाई. बड़ी-बड़ी आंखें. मिज़ाज सख़्त. हमने उनके किस्से ही सुने थे अब तक’.
‘उस मैच में हमारी टीम पहले बल्लेबाज़ी कर रही थी. नायडू साहब सिलि मिड ऑफ़ पर फील्डिंग कर रहे थे. तभी बल्लेबाज़ी कर रहे मारुतिराव माठे ने एक तेज शॉट जमाया और गेंद सीधे नायडू साहब के पैर की पिंडली में जाकर लगी. शॉट इतना तेज था कि कोई और होता तो पैवेलियन वापस लौट गया होता. गेंदबाज़ भी फ़िक्र-मंद दिखाई दे रहा था. नायडू साहब की उम्र इस वक़्त 58 बरस के आस-पास थी. चिंता जाइज़ थी लेकिन वे तो मानो फ़ौलाद के बने हुए थे. चंद मिनटों में गेंदबाज़ को उन्होंने इशारा किया कि गेंदबाज़ी जारी रखे. मैं उस मैच को कभी भूल नहीं सकता. गर्मी के दिन थे. सभी खिलाड़ियों के गले सूख रहे थे. पर उनका फ़रमान था कि ड्रिंक के दौरान भी कोई पानी नहीं पिएगा. अब, उनकी टीम को इसकी आदत हो चुकी थी शायद, लेकिन हमारी हालत ख़राब हुई जाती थी. तब उन्हीं के साथ खेल रहे खांडू रांगनेकर उन्हें समझाया किसी तरह’.
‘इसके बाद उन्होंने हमारी टीम को ये इजाज़त दी कि हम लोग 45 मिनट के अंतराल से पानी पी सकते हैं. हालांकि उनकी टीम को तब भी पानी पीने की इजाज़त नहीं थी. उस मैच में हम सात विकेट से हारे थे. यही नहीं, इससे पिछले साल (1951-52) का भी एक क़िस्सा हमने सुन रखा था उनके बारे में. तब होल्कर और बॉम्बे की टीमों के बीच फाइनल मुक़ाबला था. नायडू साहब बल्लेबाज़ी कर रहे थे. तभी तेज गेंदबाज़ दत्तू फड़कर की बाउंसर उनके जबड़े में जा लगी. सामने के दो दांत टूट गए. खून निकलने लगा. डॉक्टर दौड़े-दौड़े मैदान में आए. वे चाहते थे कि नायडू साहब ड्रेसिंग रूम मरहम-पट्टी कराएं. आराम करें. पर नायडू साहब पैवेलियन नहीं लौटे. उन्होंने वहीं इलाज़ लिया और दत्तू फड़कर से बोले- तू रुकना मत. बाउंसर फेंकना जारी रख. उस मैच में उन्होंने 66 रन बनाए. हालांकि मैच बॉम्बे ने जीता था’. वैसे जनाब, इसमें एक और क़िस्सा है.
बताते हैं, रणजी ट्रॉफी के उस फाइनल मुक़ाबले में दत्तू फड़कर ने नायडू साहब पर वह बाउंसर वीनू मांकड़ के कहने पर डाली थी. दरअस्ल, उस वक़्त नायडू साहब सिर्फ़ होल्कर टीम के कप्तान ही नहीं थे, वे भारतीय टीम की चयन समिति के मुखिया भी थे. कहते हैं, चयनकर्ता की हैसियत से उन्होंने, वीनू मांकड़ को भारतीय टीम में जगह देने में उस वक़्त दिलचस्पी नहीं दिखाई थी. इससे वीनू मांकड़ उनसे ख़फ़ा थे और उन्हें सबक सिखाना चाहते थे. हालांकि इस मंसूबे में कामयाबी उन्हें नहीं ही मिल सकी थी. आगे चंदू बोर्डे की ही ज़ुबानी एक और वाक़ि’आ, ‘वे ख़ुद पर जितने सख़्त थे, उतने ही अन्य खिलाड़ियों पर भी. वह चाहते थे कि टीम के खिलाड़ी भी उन्हीं की तरह मज़बूत इरादे का प्रदर्शन करें. साल 1951-52 की ही बात है. इंग्लैंड की टीम भारत दौरे पर आई हुई थी. उस दौरान भारतीय टीम की कप्तानी विजय हजारे साहब के हाथ में थी’.
‘दूसरे टेस्ट मैच के दौरान तेज गेंदबाज़ फ्रेड रिग्बे की बाउंसर को विजय हजारे साहब ने हुक करने की कोशिश की. लेकिन वे चूक गए और गेंद उनकी भौंह के ऊपर जा लगी. घाव हो गया. तुरंत वे पैवेलियन लौटे. ड्रेसिंग रूम में डॉक्टर उनकी मरहम-पट्टी कर रहे थे, तभी नायडू साहब वहां आ पहुंचे. सख़्त लहज़े में उन्होंने सवाल किया- बल्लेबाज़ इस वक़्त ड्रेसिंग रूम में क्या कर रहा है? इस पर हजारे साहब ने उनसे कहा- जी, घाव हो गया है, उस पर मरहम-पट्टी करा रहा हूं. तो, उन्होंने उस सख़्ती से कहा- यह सब बाद में भी हो सकता है. हजारे साहब के पास अब कोई विकल्प नहीं था. वे क्रीज़ पर लौटे. उन्हें इस बार फिर रिग्बे ने बाउंसर डाली. लेकिन उसे उन्होंने सीमा-रेखा से बाहर पहुंचा दिया. उस मैच में हजारे साहब 155 रन बनाकर आउट हुए थे’. ऐसे ही, साल 1936 का एक वाक़ि’आ भी बताते हैं चंदू बोर्डे साहब. वह इंग्लैंड का है.
‘नायडू साहब की अगुवाई में भारतीय टीम 1936 में इंग्लैंड के दौरे पर गई थी. वहां ओवल में हुए टेस्ट मैच के दौरान इंग्लैंड की टीम के कप्तान और तेज गेंदबाज़ गब्बी एलन की गेंद सीधे नायडू साहब की छाती में आ लगी थी. बल्ला हाथ से छूट गया उनका और कुछ देर के लिए वे ज़मीन पर बैठ गए. लेकिन फिर उठे और एलन से कहा- गेंद फेंकना जारी रखाे. इसके बाद अगली ही गेंद उन्होंने सीमा रेखा के बार पहुंचाई. उस मैच में नायडू साहब ने 81 रन बनाकर भारतीय टीम को पारी की हार से बचाया था’. बोर्डे साहब आगे बताते हैं, ‘साल 1954-55 की बात है. पाकिस्तान दौरे के लिए भारतीय टीम का चयन किया जाना था. तभी एक बार नायडू साहब बल्ला लेकर नेट पर आ गए. संभावित खिलाड़ी चुने जा चुके थे. उन्होंने सभी को लाइन-अप कराया. निर्देश दिए और ख़ुद नेट पर बल्लेबाज़ी करने लगे. उनकी उम्र तब 58-59 बरस के आस-पास होगी’.
‘उन्हें देखकर तमाम तेज गेंदबाज़ सकते में थे. वे आराम से गेंद डाल रहे थे. लेकिन तभी उन्होंने ललकारा- टीम में शामिल होना है कि नहीं? होना है तो तेज गेंद करो. इसके बाद सभी ने उनकी बात मानी और आगे जाकर भारतीय टीम में वी राजिंदरनाथ और वीआर सुंदरम जैसे शानदार गेंदबाज़ नज़र आए’. बोर्डे बताते हैं कि इस चयन-प्रक्रिया के दौरान वे ख़ुद संभावित खिलाड़ियों में मौज़ूद थे. और उन्हें भी भारतीय टीम में चुना गया था. नायडू साहब से जुड़ा एक और वाक़ि’आ 1926 का बताया जाता है. तब, इंग्लैंड के मैरिलबोन क्रिकेट क्लब (एमसीसी) की टीम भारत दौरे पर आई थी. इंग्लैंड की टीम शुरुआत में इसी नाम से खेलती थी शायद. तो दिसंबर का महीना था. बॉम्बे जिमखाना मैदान में एमसीसी का मैच था. तब ‘हिन्दू’ के नाम से एक टीम हिन्दुस्तान में हुआ करती थी. नायडू साहब उसी की तरफ़ से खेलते थे. अब 67 रन पर दो विकेट गिर चुके थे.
इस स्थिति में जब नायडू साहब मैदान में उतरे तो उन्होंने चौकों, छक्कों की झड़ी लगा दी. महज़ 116 मिनट में उन्होंने 153 रन ठोक दिए थे. कुल 13 चौके और 11 छक्के थे उनकी पारी में. इनमें एक छक्का तो बॉम्बे जिमखाना की छत पर गिरा था. उनकी इस पारी से अंग्रेज टीम इतनी प्रभावित हाे गई कि उसने नायडू साहब को एक चांदी का बल्ला तोहफ़े में दिया था. कहते हैं, यही वह मौका था कि अंग्रेजों को लग गया कि अब हिन्दुस्तान के क्रिकेट को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है. और उन्होंने लिया भी. इस वाक़ि’अे बाद 10 साल भी नहीं हुए कि भारत को टेस्ट क्रिकेट खेलने वाले मुल्क का दर्ज़ा मिला और 25 जून 1932 को लॉर्ड्स के मैदान में इंग्लैंड के ख़िलाफ़ पहला टेस्ट-मैच खेल लिया. ज़ाहिर तौर पर यह उपलब्धि नायडू साहब जैसी शख़्सित की अगुवाई (कप्तानी) में ही मिलनी थी, जो कि मिली भी. हालांकि यह मैच भारत हार गया था.
लेकिन जनाब, नायडू साहब वहां इंग्लैंड में भी करिश्मा दिखा आए. पहले टेस्ट मैच में तो सबसे ज़्यादा 40 रन उन्होंने ही बनाए थे. हालांकि वहां प्रथम-श्रेणी के कुछ मैचों में उन्होंने जो ज़ौहर दिखाया, वह क़ाबिल-ए-ज़िक्र है. जबकि उस वक़्त भी उनकी उम्र 36 साल के आस-पास थी. मगर उन्होंने अपनी उम्र से कम, कई गेंदबाज़ों की ज़बर्दस्त धुनाई करते हुए प्रथम-श्रेणी के मैचों में पांच शतकों के साथ 1,613 रन ठोक दिए थे. इनमें से मिडिलसेक्स के ख़िलाफ़ 101, समरसेट के ख़िलाफ़ 130 और वॉरविकशायर के ख़िलाफ़ 162 रनों की पारियां ख़ास उल्लेखनीय रहीं. इनमें भी वॉरविकशायर के ख़िलाफ़ खेलते हुए उन्होंने एक छक्का तो ऐसा मारा कि गेंद दूसरे प्रदेश में जा गिरी. दरअस्ल, वाॅरविकशायर के ख़िलाफ़ मैच बर्मिंघम में हो रहा था. वहां मैदान के पास से रिया नदी गुजरती है. यही नदी वॉरविकशायर को वॉरसेस्टरशायर से अलग भी करती थी.
तो जनाब, जब नायडू साहब से छक्का मारा तो गेंद चली गई रिया नदी के उस पार. यानी वॉरविकशायर से सीधे वॉरसेस्टरशायर के इलाके में. ऐसे थे नायडू साहब, जिन्हें उनकी इन्हीं ख़ासियतों की वज़ह से मालवा (इंदौर) के होल्कर राजघराने ने अपनी फ़ौज में शामिल किया था. कर्नल का रुतबा दिया और अपनी टीम की कमान भी उन्हें सौंपी थी. हालांकि पैदाइश नायडू साहब की नागपुर में हुई, 31 अक्टूबर 1895 को. लेकिन जब होल्कर राजघराने ने उन्हें इज़्ज़त-ओ-रुतबा दिया तो फिर उन्हीं के इंदौर के होकर रह गए. उन्होंने आठ बार होल्कर की टीम को रणजी टूर्नामेंट के फाइनल में पहुंचाया. इनमें चार बार बार ख़िताबी जीत भी हासिल की. अंतरराष्ट्रीय मैच तो हालांकि, उन्होंने सात ही खेले. पहले अंतरराष्ट्रीय मैच होते भी कम ही थे. पर घरेलू क्रिकेट नायडू साहब ने खूब खेला. ऐसे 207 मैचों में 11,825 रन बनाए और 411 विकेट भी लिए हैं.
नायडू साहब ऑफ़ ब्रेक गेंदबाज़ी भी किया करते थे. उन्होंने अपना आख़िरी प्रथम श्रेणी मैच 1963-64 में खेला. उस वक़्त उनकी उम्र 62 साल के क़रीब हो चुकी थी. उम्र के इस आंकड़े को ख़ास तौर पर ज़ेहन में रखिए जनाब, क्योंकि हर किसी के वश में यह उपलब्धि अमूमन होती नहीं है. सिर्फ़ वही कर पाते हैं, जो सख़्त अनुशासन में ख़ुद के साथ पेश आते हों. जैसे कि नायडू साहब थे. अलबत्ता, यही नायडू साहब एक जगह ख़ुद पर क़ाबू न रख सके. कहते हैं, वह सिगरेट ख़ूब पिया करते थे. इसका असर उनके फेंफड़ों पर हुआ. और यह बीमारी उन्हें 14 नवंबर 1967 को इस दुनिया से दूर ले गई. वरना क्या पता, वे थोड़ा और साल रह लेते तो क्रिकेट में कुछ और, कभी न टूटने वाले रिकॉर्ड उनके नाम दर्ज़ हो जाते. मिसाल के तौर पर 68 बरस की उम्र में भी मैदान पर उतरकर चौके-छक्के ज़माने का. यह कारनामा उन्होंने एक चैरिटी मैच में किया था.
बहरहाल, आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.
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Tags: Cricket, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : November 14, 2022, 09:53 IST