दास्तान-गो: ‘ब्रह्मपुत्र के चारण’ भूपेन हजारिका जिनकी ‘प्रतिध्वनि’ अब भी गूंजती है
दास्तान-गो: ‘ब्रह्मपुत्र के चारण’ भूपेन हजारिका जिनकी ‘प्रतिध्वनि’ अब भी गूंजती है
Daastaan-Go ; Bhupen Hazarika Birth Anniversary ; इनकी मां शांतिप्रिया अपनी लोक-संस्कृति, लोकगीत, लोक-संगीत से गहरे तक जुड़ी हुई थीं. सो, उन्होंने ही बचपन से भूपेन जी दिल-दिमाग में छुटपन से ही इसके संस्कार बिठाने शुरू कर दिए थे. या यूं कहें कि छोटे बच्चे को उसका हाज़मा वग़ैरा ठीक करने के लिए जिस तरह जनम-घुट्टी पिलाई जाती है न, वैसे इनकी मां ने इन्हें गीत, संगीत की ख़ुराक़ देनी शुरू कर दी थी. लोरियों, वग़ैरा के जरिए.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, हिन्दुस्तान के राजस्थान जैसे कई सूबों में एक जात होती है, ‘चारण’. अच्छे फ़नकार होते हैं ये लोग. समाज में ‘इज़्ज़त भी खूब होती है. इनका काम राजे-महाराजाओं की ‘विरुदावली’ गाने का होता था. ‘विरुदावली’ को कुल-परंपराओं का यशगान जानिए. राजे-महाराजाओं के अलावा ये फ़नकार अपने इलाकों की परंपराओं, वग़ैरा का यशगान भी करते रहे. उसे देश-दुनिया तक पहुंचाते रहे. तो जनाब, इन फ़नकारों का ये जो दूसरा वाला काम है न, देश-दुनिया तक अपने इलाके की परंपराओं, वग़ैरा का यशगान करने का, उसे हिन्दुस्तान के एक और बड़े फ़नकार ने किया. वे ‘चारण’ समाज से तअल्लुक़ तो नहीं रखते थे. फिर भी कहे जाते थे, ‘ब्रह्मपुत्र के चारण’. क्योंकि उन्होंने पूरी ज़िंदगी ब्रह्मपुत्र ‘नद’ (सनातन संस्कृति में ब्रह्मपुत्र को पुरुष-रूप माना गया है) से लगे उत्तर-पूर्व के इलाकों की लोक-संस्कृति, लोकगीत, लोक-संगीत को देश-दुनिया तक पहुंचाने का काम किया.
भूपेन हजारिका नाम हुआ उनका. आज हिन्दुस्तान और दुनिया के लोग असम और उत्तर पूर्व के गीत, संगीत से जितने भी वाबस्त हैं न, ज़्यादातर इन्हीं की वज़ह से. और ये अपनी पैदाइश से ही. दरअस्ल इनकी मां शांतिप्रिया अपनी लोक-संस्कृति, लोकगीत, लोक-संगीत से गहरे तक जुड़ी हुई थीं. सो, उन्होंने ही बचपन से भूपेन जी दिल-दिमाग में छुटपन से ही इसके संस्कार बिठाने शुरू कर दिए थे. या यूं कहें कि छोटे बच्चे को उसका हाज़मा वग़ैरा ठीक करने के लिए जिस तरह जनम-घुट्टी पिलाई जाती है न, वैसे इनकी मां ने इन्हें गीत, संगीत की ख़ुराक़ देनी शुरू कर दी थी. लोरियों, वग़ैरा के जरिए. और इस सबका नतीज़ा ये हुआ कि भूपेन जी को जब से भी लिखना, पढ़ना और थोड़ा-बहुत समझना आया, उन्होंने बस गीत, संगीत ही लिखा, पढ़ा. उन्हीं के नाम की एक वेबसाइट है जनाब, ‘भूपेनहजारिकाडॉटकॉम’. इसमें इनके बारे में तमाम जानकारियां दर्ज़ हैं.
बताते हैं, जब भूपेन जी महज 10 बरस के थे, तभी इन्होंने अपना पहला गीत लिख लिया था. वे असम में ब्रह्मपुत्र के किनारे बसे तिनसुकिया जिले के सदिया क़स्बे में पैदा हुए, आठ सितंबर 1926 को. तो उस हिसाब से यह 1936 के आस-पास की बात हुई. और इससे भी थोड़ा पहले किसी समाजी जलसे के दौरान इन्होंने अपनी मां का सिखाया एक गीत गाया था. अब तक इनके पिता नीलकांत जी तेजपुर आ बसे थे. वहीं की बात है ये. कहते हैं, वहां उस जलसे में ज्योति प्रसाद अग्रवाल और बिष्णु प्रसाद राभा भी थे. इनमें अग्रवाल गीतकार थे. नाटक लिखते थे और फिल्में भी बनाया करते थे. वहीं, राभा क्रांतिकारी मिज़ाज के कवि हुआ करते थे. इन लोगों ने पहचान लिया कि ये बच्चा (भूपेन जी) पैदाइशी हुनरमंद है. सो, फिर क्या था, वे इनके माता-पिता से इजाज़त लेकर इन्हें कलकत्ते ले गए. वहां इनका पहला गीत रिकॉर्ड करा दिया. वही, जो भूपेन जी ने ख़ुद लिखा था.
इससे महज तीन साल बाद, 1939 में अग्रवाल जी ने एक फिल्म बनाई, ‘इंद्रमालती’. उसमें भी भूपेन जी को मौका दिया. इस फिल्म के लिए दो गीत लिखे और गाए भी. इस तरह, जो शुरुआत हुई तो फिर वह तभी ठहरी, जब भूपेन जी की सांसे थम गईं, पांच नवंबर 2011 को. इस बीच 85 बरस की ज़िंदगी में ऐसा क्या कुछ नहीं किया इन्होंने, जिसका ज़िक्र न किया जाए. और इतना कुछ करने के लिए ऐसा भी नहीं कि पढ़ाई-लिखाई से समझौता किया. तेजपुर से पहले परिवार असम के ही धुबरी में भी रहा था कुछ साल. वहां स्कूली पढ़ाई की. फिर तेजपुर से हाईस्कूल की. गुवाहाटी के मशहूर कॉटन कॉलेज से बीए किया. फिर बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय से एमए किया राजनीति विज्ञान में. इसके बाद कुछ समय के लिए आकाशवाणी गुवाहाटी में काम किया. तभी, अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी से इन्हें एक स्कॉलरशिप मिल गई, तो वहां चले गए. पीएचडी करने.
बताते हैं, भूपेन जी जब कोलंबिया में थे तभी उनकी मुलाक़ात वहां पॉल रॉबसन से हो गई. क्रांतिकारी मिज़ाज के सामाजिक कार्यकर्ता थे. भूपेन जी भी कुछ-कुछ इसी तरह के थे. सो, दोनों की दोस्ती हो गई. रॉबसन भी गीत, संगीत से अच्छी तरह वाबस्त थे और इसे समाजी बदलाव के लिए इस्तेमाल किया करते थे. यहां तक कि वे अपने गिटार के बारे में भी कहा करते थे, ‘यह सिर्फ़ संगीत का साज़ नहीं है. बल्कि यह समाजी साज है. समाज में बदलाव लाने के काम आता है’. तो जनाब, फिर ऐसे ही तेवर आगे चलकर भूपेन जी के कामों में भी झलके. इसके बारे में पुख़्तगी करना चाहें तो उनका लिखा और गाया एक गीत सुन लीजिए. हिन्दी ज़बान में है, ‘बिस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार, करे हाहाकार, निस्तब्ध सदा. ओ गंगा, तुम बहती हो क्यूं’. इसमें आगे वे लिखते और कहते हैं, ‘नैतिकता नष्ट हुई. मानवता भ्रष्ट हुई. निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यूं. ओ गंगा, तुम बहती हो क्यूं’.
अब सोचकर देखिए, इस तरह के लफ़्ज़ों में गंगा जैसी पवित्र नदी को उलाहना देते हुए समाज को आइना दिखाने वाली शख़्सियत कैसी रही होगी. वैसे, उनके इस गीत के बारे में कहा जाता है कि यह रॉबसन के सीधे असर से निकला है. रॉबसन ने ख़ुद भी एक गीत लिखा था, इसी तरह का, 1927 में कभी, ‘ओल मैन रिवर’. उसी का असर लेते हुए भूपेन जी इब्तिदाई तौर पर असमिया ज़बान में यह गीत लिखा था, 1969 में ‘बिस्तीर्नो पारोरे’. इस गीत का कई ज़बानों में तर्ज़ुमा हुआ. हिन्दी में भी आया, साल 1970 में ‘ओ गंगा’ के नाम से. इसके बाद भूपेन जी के फिल्म संगीत की कोई झलक लेनी हो, तज़रबा करना हो तो उसकी भी तमाम मिसाल हैं. मसलन- साल 1975 में एक असमिया फिल्म आई थी ‘चमेली मेमसाब’. उसमें एक नग़्मा है, ‘ओ विदेशी बंधु’, उसे सुना जा सकता है. इस गीत को 1979 में इसी नाम से भूपेन जी ने हिन्दी में भी गाया, जो बड़ा मशहूर हुआ था.
इसके बाद 1993 की हिन्दी फिल्म ‘रुदाली’ को भला कोई क्यूं और कैसे ही भूल सकता है. राजपुताने की ‘रुदाली परंपरा’ पर बनी इस फिल्म का वह गीत ‘दिल हुम हुम करे, घबराए. घन धम धम करे, गरजाए. इक बूंद कभी पानी की, मोरी अंखियों से बरसाए’. आज तक सुनने वालों के कानों में गूंजता है. हालांकि, इसे इसी फिल्म में एक जगह लता मंगेशकर ने भी गाया है, जिनके साथ भूपेन जी का नाम भी जोड़ा गया था एकबारगी. मगर फिर भी, इस गीत का असर बड़े फ़लक पर कुछ ऐसा है कि भूपेन जी का नाम लीजिए और तो इसके बोल सुनाई देते हैं. और नग़्मे के बोल सुन लीजिए, उसका संगीत सुनिए तो भूपेन जी की आवाज और असमिया संगीत की ‘प्रतिध्वनि’ सुनाई देती है. वैसे, ‘प्रतिध्वनि’ से याद आया, भूपेन जी असमिया ज़बान में इस नाम से एक फिल्म भी बनाई थी, साल 1964 में. उसे सबसे अच्छी फिल्म के तौर पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी नवाज़ा गया था.
अलबत्ता, भूपेन जी का यह कोई पहला राष्ट्रीय अवॉर्ड नहीं था. उन्होंने कुल तीन बार यह अवॉर्ड जीता. सबसे पहले ‘शकुंतला’ के लिए, 1960 में. इसके बाद ‘लोटी घोटी’ के लिए भी, 1967 में. इतना ही नहीं अरुणाचल प्रदेश की पहली हिन्दी फिल्म बनी, ‘मेरा धरम, मेरी मां’. साल 1977 में. इसे भूपेन जी ने ही बनाया. इसका निर्देशन और संगीत-निर्देशन भी इन्होंने ही किया. इस तरह के कामों के लिए अरुणाचल प्रदेश सरकार ने भी इन्हें सम्मानित किया. तिस पर, फिल्म, गीत, संगीत के अलावा सियासत में हाथ आजमाए भूपेन जी ने. साल 1967 से 1972 तक निर्देलीय विधायक के तौर पर असम विधानसभा में रहे. इस दौरान सरकारी फिल्म स्टूडियो स्थापित करा दिया इन्होंने असम में, जो शायद पूरे हिन्दुस्तान में अपनी तरह का इक़लौता रहा होगा.
इसके अलावा, उत्तर-पूर्व से लेकर केंद्र तक कई ओहदों की ज़िम्मेदारियां भी उठाईं भूपेन जी ने. जैसे- चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी की कार्यकारी परिषद के सदस्य रहे. साल 1985 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के निर्णायक मंडल के प्रमुख रहे. पुणे में भारत सरकार के फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट की गवर्निंग काउंसिल में भी भूपेन जी शामिल रहे. ऐसे बहुत से हैं. इसीलिए इतने काम, योगदान को देखते हुए हिन्दुस्तान की सरकार ने 2019 में जब भूपेन जी को ‘भारत रत्न’ से नवाज़ा तो किसी को अचरज न हुआ. क्योंकि वे इसके सही हक़दार भी तो थे.
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Tags: Bhupen Hazarika, Birth anniversary, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : September 08, 2022, 06:33 IST