गुनहगार संजय और संदीप के पॉलीग्राफ टेस्ट से CBI को क्या हासिल होगा

कोलकाता आरजी कर मेडिकल कॉलेज की डॉक्टर के रेप और मर्डर मामले में सीबीआई पॉलीग्राफ टेस्ट करा रही है. इसकी कितनी कानूनी वैधता है या नहीं है. नहीं है तो फिर इससे हासिल क्या होता है. जानने कि लिए पढ़िए ये लेख.

गुनहगार संजय और संदीप के पॉलीग्राफ टेस्ट से CBI को क्या हासिल होगा
कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज में रेप और मर्डर मामले में सीबीआई पॉलीग्राफ टेस्ट का सहारा ले रही है. कोर्ट और सीबीआई की नजर में संदिग्धों ने भी इस मामले में सहमति दे दी है. इस टेस्ट से हासिल क्या होता है. क्या इस टेस्ट के दौरान पुलिस के सामने कोई आरोपी जो कहता है उसकी कोर्ट में कोई अहमियत होती है या नहीं. अगर नहीं होता है तो फिर इसका हासिल क्या होता है. क्यों सीबीआई अपनी जांच के दौरान इसका प्रयोग करती है. देश में जांच को जब से वैज्ञानिक रूप देने की कोशिशें शुरु हुई तो सबसे सीबीआई और कुछ राज्यों की पुलिस पहले ब्रेनमैपिंग, नार्को और पॉलीग्राफी टेस्ट कराना शुरु किया. इस जांच के लिए सबसे अहम है कि मजिस्ट्रेट या जज से इसकी अनुमति ली जाती है. मजिस्ट्रेट के सामने ही आरोपी इस पर सहमति देता है. हालांकि उसके पास असहमत होने का अधिकार भी होता है. लेकिन गुनाह का आरोपी होने के कारण वे ज्यादातर मामलों में खुद को बेदाग साबित करने के लिए जांच की सहमति दे देता है. अगर आरोपी सहमति न दे तो उसकी ये जांच नहीं कराई जा सकतीं पॉलीग्राफी, ब्रेनमैपिंग और नार्को टेस्ट के अंतर दोनों मिलते जुलते से टेस्ट हैं. इन दोनों के बीच बहुत थोड़ा सा अंतर होता है. नॉर्को टेस्ट में व्यक्ति को कुछ ऐसे मेडिकल दवाएं दी जाती है जिससे वो चाह कर बहुत कुछ छुपाने में लाचार हो जाता है. जबकि पॉलीग्राफी में व्यक्ति के वाइटल्स जांचने वाली मशीनें लगा कर उससे सवाल पूछे जाते हैं. सवालों की फेहरिश्त पहले ही सीबीआई के विशेषज्ञ तैयार रखते हैं. पॉलीग्राफी के दौरान अगर कोई व्यक्ति किसी बात पर पर्देदारी करने की कोशिश करता है या झूठ बोल कर सच को छुपाने की कोशिश करता है तो उसके ब्लड प्रेशर, पेट में घूमने वाले द्रव्य की गति, दिल की धड़कनें यहां तक कि सांसों के तारतम्य में अंतर आ जाता है. इससे जांच करने वालों को पता चल जाता है कि व्यक्ति झूठ बोल रहा है. दोनों में समानता ये है कि इन सबका विश्लेषण करने के लिए मेडिकल स्पेशलिस्ट भी उनके साथ होता है. इसी तरह का एक टेस्ट ब्रेन मैपिंग भी होता है. उसके जरिए भी आरोपी के झूठ बोलने या सच छुपाने का पता लगाया जाता है. ये भी पढ़ें : ‘वाम और राम का काम’, फिर यूपी हाथरस का नाम, कौन भटक रहा है, कौन भटका रहा है ममता दीदी! कानूनी स्थिति जैसा कि पहले चर्चा की गई है कि ये सब आरोपी की सहमति और जज या मजिस्ट्रेट की इजाजत से ही किया जा सकता है. फिर भी इस दौरान लिए गए अभियुक्त के बयान की कोई कानूनी वैधता नहीं होती. संविधान के पैरा 20 की उपधारा 3 में डॉक्ट्रिन ऑफ सेल्फ-इन्क्लिनेशन (Doctrine of Self-Incrimination) की व्यवस्था है. इसका अर्थ ये होता है कि किसी भी व्यक्ति को अपने खिलाफ गवाही देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता. वैसे भी सभी को मालूम है कि पुलिस किसी भी पक्ष से जो भी बयान दर्ज कर अदालत में पेश करती है उसकी मजिस्ट्रेट के सामने तसदीक करानी होती है. बिना मजिस्ट्रेट के सामने पुष्टि कराए उस बयान को सच नहीं माना जाता है. दोनो पक्षों को ये अख्तियार होता है कि वे मजिस्ट्रेट के सामने अपने बयान बदल सके. यहां ये भी याद रखना चाहिए कि जब भी कोई कहीं पर एफिडेविट तक देता है तो उसे ये घोषणा करनी होती है कि वो जो भी कह रहा है पूरे होशो हवाश में सोच समझ कर कह रहा है. इस लिहाज से सिर्फ पुलिस के सामने किसी भी स्थिति में कुछ कह देने या न कहने का मामले पर कानूनी तौर कोई असर नहीं पड़ता. ऐसे किसी भी बयान के समर्थन में कोई ठोस सुबूत खोजना होगा. तभी बयान को मामले में एग्जीविट के तौर पर रखा जा सकता है. तो फिर क्या हासिल होगा इस तरह के टेस्ट पुलिस या जांच एजेंसी अपने संदेह को पुष्ट करने के लिए कराती है. मसलन अगर जांच एजेंसी को लग रहा है कि कोई संदिग्ध या आरोपी इस बारे में झूठ बोल रहा हो कि घटना के वो कहां था, तो संभव है कि इस तरह की जांच में पकड़ा जाय. फिर जांच एजेंसी अपनी जांच को अलग दिशा में ले जाकर उसके बारे में पता करने का प्रयास करेगी. खास तौर से जिन डॉक्टरों के हाथों के निशान सेमीनार रूम में मिले हैं उनकी स्थिति के बारे में जांच करेगी. हालांकि इस बारे में कोर्ट में कुछ भी कहने के लिए उसे अलग से सबूत जमा करना होगा. बिना सबूत के इन जांच रिपोर्टों के आधार पर ही सीबीआई कोर्ट में कोई निष्कर्ष नहीं पेश कर सकती. Tags: Kolkata News, Polygraph TestFIRST PUBLISHED : August 23, 2024, 16:35 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
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