कहानी की कोई ऐसी परिभाषा नहीं हो सकती जो सर्वमान्य हो- सुधांशु गुप्त

कहानी की कोई ऐसी परिभाषा नहीं हो सकती जो सर्वमान्य हो- सुधांशु गुप्त
लेखक आलोचक और कहानीकार सुधांशु गुप्त लम्बे समय से साहित्य सृजन कर रहे हैं. उनके व्यक्तित्व, वाचन और लेखन सभी में धारदार चाकू जैसा पैनापन और निर्ममता दिखाई पड़ती है. लेकिन ये निर्ममता, अपने समाज के प्रति तल्खी और तिरस्कार के कारण नहीं है बल्कि उसके प्रति गहरी संवेदना से उपजी है. उन्हें इस बात का दुख हमेशा रहता है कि क्यों उनकी भाषा में लिखने वालों का सम्मान नहीं होता? क्यों उनका समाज विश्व स्तरीय रचनाएं, उत्पाद और विचार पैदा नहीं करता या दुनिया में जहां भी ऐसा हो रहा है, उसे उत्साह से देखता और अपनाता है? वे अपने समाज के अंदर छिपी महानता के पूर्णरूप से न निखर पाने से दुखी और आहत रहते हैं. एक कुशल शल्य चिकित्सक की तरह वे अपनी पैनी भाषा से लेखन और वाचन, दोनों के जरिये समाज को प्रेरित करने के लिए उलाहना और नाराजगी का इस्तेमाल करते हैं. प्रस्तुत है साहित्य, समाज, बाज़ार और लेखन पर अनुवादक, लेखक और उपन्यासकार केशव चतुर्वेदी से हुई लम्बी चर्चा के कुछ अंश:- सबसे पहले, बुनियादी सवाल पूछता हूं, आप लेखन से कैसे जुड़े? सुधांशु गुप्त: घर का माहौल पूरी तरह साहित्यिक था. पढ़ने का शौक था, लेकिन लिखने का विचार कभी मन में नहीं आया. ये 80 के दशक शुरुआत की बात है. साथ के सभी मित्र भविष्य के सपने देख रहे थे- नौकरी, अच्छी सरकारी नौकरी, व्यवसाय, भौतिक सुख-सुविधाएं, स्कूटर-कार, मकान…। उस समय मुझे लगा कि मुझे कुछ ऐसा करना है जो मित्रों में से कोई न कर सके. मैंने पाया कि मित्रों में से कोई भी कहानी नहीं लिख सकता. तो उनके बीच खुद को ‘बड़ा’ या अलग दिखाने के लिए मैंने पहली कहानी लिखी. मजाक में सोची गई यह बात सही साबित हुई. आज सभी मित्र नौकरियों से या अच्छी सरकारी नौकरियों से सेवानिवृत्त हो चुके हैं या व्यवसाय से करोड़ों रुपए कमा चुके हैं. पता नहीं मैं कितना अलग हो पाया. और मैं सबसे अलग होकर कहानियां लिख रहा हूं. अपनी बैकग्राउंड के विषय में कुछ बताइये? सुधांशु गुप्त: जो किसी भी निम्न मध्यवर्गीय परिवार की बैकग्राउंड हो सकती है, वही मेरी भी थी. बस एक अंतर था- घर में साहित्यिक माहौल था और पढ़ने के लिए किताबें खूब थीं. मैं उस समय भी बहुत पढ़ता था. फिर कुछ फुटकर नौकरियां करने के बाद पत्रकारिता की दुनिया में आ गया. लेकिन आज सोचता हूं तो लगता है पत्रकारिता मैंने सिर्फ इसलिए की क्योंकि मुझे नौकरी की जरूरत थी. अगर वह पत्रकारिता की जगह किसी और क्षेत्र में मिली होती तो मैं खुशी-खुशी कर लेता. आज लगता है, मैंने ख़ुद को पत्रकारिता के अनुकूल कभी नहीं पाया. लेकिन पत्रकारिता करता रहा, साहित्य पढ़ता रहा और कहानियां लिखता रहा. 2010 के बाद मैंने पाया कि मेरे भीतर का वह पत्रकार भी लुप्त हो गया, जो कभी था ही नहीं. इस तरह भीतर पता नहीं कहां छिपा बैठा कहानीकार बाहर आ गया. मैं पूरी तरह साहित्य में रम गया. आपके पसन्दीदा लेखक कौन से हैं-विदेशी और हिंदी में? सुधांशु गुप्त: नाम गिनवाने के लिए मैं मोपासां, चेखव, काफ्का, सार्त्र, कुप्रिन, लुशुन, पर्ल एस बक, हेमिंग्वे, ओ नील, गेटे, गोगोल…और बहुत से नाम गिनवा सकता हूं. हिंदी में भी मैं अधिकांश लेखकों को पढ़ता रहा हूं, मोहन राकेश, कमलेश्वर, भीष्म साहनी, मृदुला गर्ग, मन्नू भंडारी, राजी सेठ, नवीन सागर, मधुसूदन आनन्द, योगेश गुप्त, रघुनंदन त्रिवेदी, ब्रजेश्वर मदान, कुमार अम्बुज, देवी प्रसाद मिश्र, योगेन्द्र आहूजा, महेश दर्पण (और भी तमाम पुराने लेखकों को याद किया जा सकता है) और लगभग सभी. लेकिन यह बात मुझे बराबर लगती रही कि हम लेखकों को याद रखते हैं और उनकी उन्हीं कहानियों या उपन्यासों को याद रखते हैं, जिन्हें ‘प्रोजेक्ट’ किया गया और आज भी किया जा रहा है. मैं चाहता हूं कि हम लेखकों की बजाय उनकी रचनाओं के नाम से उन्हें याद करें जैसे ‘उसने कहा था’, ‘चीफ़ की दावत’, ‘चीफ़ की नाक’, ‘जहाँ लक्ष्मी क़ैद है’, ‘ज़िन्दगी और जोंक’, ‘खोल दो’ या ‘बू’, ‘मलबे का मालिक’, ‘परिन्दे’, हार की जीत…(ऐसी ही और भी बहुत सी कहानियां हैं, हो सकती हैं) जिनके लेखकों के नाम हमें कहानियों के बाद याद आते हैं या यह भी संभव है कि हमें कहानियां याद रहें और हम यह भूल जाएं कि इसे किसने लिखा था. ऐसा होना ही कहानी की जीत है, लेखक की नहीं. मुझे लगता है ऐसा ही होना चाहिए. आपके आलेख पढ़ने से लगता है, अच्छे लेखन के आपके मानक अलग हैं. आपके हिसाब से अच्छा लेखन क्या है? अच्छे और बुरे लेखन के बीच क्या फर्क है? सुधांशु गुप्त: मुझे लगता है लेखन के मानक सबके ही अलग होते हैं. शायद लेखक के हिसाब से, आलोचक के हिसाब से, सरहदों के हिसाब से और पढ़ने वाले की सोच और उनकी मानसिकता से मानक से तय होते हैं. मान लीजिये मैं एक कहानी पढ़ता हूं, चाहे मोपासां की हो या चेखव की या सुदर्शन की या रघुनन्दन त्रिवेदी की या नवीन सागर की या मधुसूदन आनन्द की या अन्य किसी लेखक की. मान लीजिए ये कहानियां 1870 के आसपास से लेकर 1970 के आसपास यानी सौ साल के अंतराल में लिखी गई हैं. लेकिन 2024 में भी अगर इनकी लिखी कहानियां प्रासंगिक लगती हैं तो इसे कहानी के ‘बड़ा’ होने का प्रमाण माना जाना चाहिए. कहानी का फ़लक इतना बड़ा होना चाहिए कि वे लिखे गये समय के बाद भी पचास या सौ या डेढ़ सौ सालों तक पढ़ी और पसंद की जाती रहें. पाठक की स्मृति में बैठी रहें. और अपने समय का सच पकड़ सकें. तो मेरे लिए कहानी का बड़ा या महान होने की कसौटी यही है कि वे कितने समय तक जीवित रहती है. यही कहानियों को कालजयी बनाता है. तो लम्बे समय तक कहानी का प्रासंगिक होना आपके लिए कहानी के बड़ा होने का एक अहम मानक है? कोई एक-दो मानक और जिन पर आप कहानी को परखते हैं? सुधांशु गुप्त: पहला मानक तो यही है. दूसरा है, उसका ट्रीटमेंट क्या है? लेखक ने सब्जेक्ट से कैसे डील किया है? कैसे आप उस विषय को लिख पाए हैं. उसमें कितनी सघनता है. जैसे मैं बार-बार मोपांसां की कहानी का उदाहरण देता हूं- ‘ये सपना नहीं है’. साधारण-सी कहानी है. एक लड़का और एक लड़की प्रेम करते हैं. लेखक बार-बार लिखता है. उसने यानी लड़की ने प्रेम किया, उसे प्रेम मिला एंड शी डाइड (और वो मर गई). पहली नजर में यह प्रेम कहानी लगती है. लेकिन है नहीं. ये कहानी कहां जाती है – कब्रिस्तान में. प्रेमी पागल हो गया है, अपनी प्रेमिका के मरने पर. वह प्रेमिका की कब्र पर रात में पहुंच जाता है. वह देखता है कि कब्र में से रूहें निकल रही हैं और कब्र पर उनके बारे में जो लिखा है, उसको बदल रही हैं. हर आदमी वह सच लिख रहा है जो जीवित व्यक्तियों को या तो नहीं पता है या वे उसे लिखने से कतरा रहे हैं. तो प्रेमी ऐसे ही रूहों को अपनी असलियत लिखते देखकर अपनी प्रेमिका की कब्र तक जाता है, जिसपर लिखा है शी लव्ड, वास् लव्ड एंड शी डाइड. लेकिन तभी उस लड़की की कब्र से रूह बाहर निकलती है और लिखती है, “लड़की धोखेबाज़ थी, उसने अपनी प्रेमी को धोखा दिया. वह दूसरे प्रेमी से मिलने गई. वहां उसे ठण्ड लगी, टाइफाइड हुआ और वो मर गई. तो ये जीवन का वह सच है जो बहुत से लोगों के साथ घटा है और आनेवाली तमाम शताब्दियों में भी नहीं बदलेगा. हम मरने के बाद सबके गुण गाने लगते हैं कि आदमी बढ़िया था, बड़े से बड़े अपराधी को भी हम कहते हैं कि अदभुत आदमी था, कितनी मदद करता था. तो ये एक ऐसा सच है जो कभी नहीं बदलेगा. तो बड़ी कहानी का मतलब ये भी है. हिंदी में भी ऐसी तमाम कहानियां मिलेंगी, जिनका सच ठहरा हुआ नहीं है, वह समय के साथ मूव करता है. जैसे रघुनंदन त्रिवेदी की- ‘एक दिन रामबाबू झाड़ी लांघ जाएंगे’. यह ऐसी यादगार कहानी है, जो हर समय का सच बयान करती है. आपके लिए कहानी क्या है? और लेखन का आपके जीवन में क्या महत्व है? सुधांशु गुप्त: जहां तक महत्व की बात है तो लेखन का मेरे लिए बहुत महत्व है. बावज़ूद इसके मैं इसे बिल्कुल जीवन के चलते रहने जैसा ही मानता हूं. कहानी लिखते समय मुझे कभी नहीं लगा कि मैं कोई बड़ा काम कर रहा हूं. लेकिन मूल प्रश्न आपका शायद यह था कि कहानी क्या है? कहानी की कोई ऐसी परिभाषा नहीं हो सकती जो सर्वमान्य हो. जिससे सब सहमत हों. लेकिन मैं दो-तीन बात जरूर कहना चाहता हूं. कहानी क्या है? अपने जीवन का, समाज का, पड़ोसी का, देश का, विदेश का कोई एक ऐसा पल जिसने आपको छुआ हो, जो आपको जीवन की संभावनाओं की तरफ ले जाए, दर्शन की तरफ ले जाए. या जिससे आपको लगा ये ऐसे नहीं था. इसको ऐसे होना चाहिए था. मतलब क्या हो रहा है, क्या हुआ, क्या हो सकता है और उसके होने की और क्या संभावनाएं हैं. उन सबको जो बात ट्रेस करती है. उसे रेखांकित करती है, वो कहानी है मेरे हिसाब से. ज़ाहिर है इसमें परिवेश और भाषा भी शामिल है. बाकि जो घटनाएं हैं जैसे किसी का रेप हो गया या कहीं दंगें हुए, उन पर भी कहानियां लिखी जा रही हैं. मुझे इस्राइल के एक लेखक एमोस ओज़ की एक बात बहुत अच्छी लगती है कि जिन विषयों पर लेख लिखे जाने चाहिए, उन पर कहानियां लिखने से बचना चाहिए. तय ऐजेंडे पर लिखी गई कहानियां मुझे रिपोर्टिंग के अलावा कुछ नहीं लगती. रिपोर्टिंग अच्छी हो सकती और खराब भी. एक बात और, मुझे लगता है व्यक्ति के भीतर चार स्तर होते हैं एक अवचेतन, एक स्वप्न, एक फंतासी और एक कल्पनाशीलता. जो घटित हो रहा है, वह तो सब देख ही रहे हैं- यथार्थ में. तो लेखक दीख रही घटना को अपने अवचेतन, स्वप्न, फैंटेसी और कल्पना में कैसे देख रहा है, यह बात कहानी में दिखाई पड़नी चाहिए. साहित्यिक सृजनात्मकता के लिए कल्पना जरूरी है या अनुभव या दोनों? सुधांशु गुप्त: जो सृजन कर रहा है, साहित्य लिख रहा है, ऐसा नहीं हो सकता कि वो कल्पनाशील न हो. ऐसा भी नहीं हो सकता की उसके पास अनुभव न हों. ऐसा भी नहीं हो सकता कि उसके पास ज्ञान और बुद्धि न हो, वह संवेदनशील न हो. उसकी अपनी सोच और अपना दर्शन न हो. तो इन सबका सही समन्वय करके ही आप कहानी लिख सकते हैं. मैं ये कहूं कि अनुभव की क्या जरूरत है? ये बेकार की बात है. अनुभव पहली शर्त है. कल्पनाशील आप होंगे ही. चूंकि आप लेखक हैं, संवेदनशील आपको होना ही होगा. तो ये सारी चीजें चाहिए और इनका समन्वय भी चाहिए. मतलब कहानी लिखना कोई तकनीकी काम नहीं है कि आपने कंप्यूटर खोला और ठीक कर दिया. आजकल मैं युवा लेखकों को बहुत पढ़ता हूं. कई बार मैं पाता हूं आप जानते कुछ नहीं हैं फिर भी जबरन लिखते हैं. मान लो मैं दलितों के बारे में कुछ नहीं जानता. लेकिन बाज़ार से मांग आई की दलितों पर एक कहानी चाहिए. तो मैं क्या करूंगा? मेरे घर में एक कामवाली आती है तो मैं मान लूंगा कि वो दलित है. फिर मैंने देखा कि वो फैशन करती है, अच्छे कपड़े पहनती है तो मुझे अजीब लगा. अब मैंने एक्स्प्लोर किया तो पाया कि वो भी है तो लड़की और युवा और सुन्दर दिखना चाह सकती है तो मैंने उस पर कहानी लिख दी. ये ‘फेक’कहानी है. आप उस समाज से, उसकी परेशानियों और महत्वाकांक्षाओं से जुड़े हुए नहीं हैं. तो ऐसी कहानियां कमजोर कहानियां होती हैं. (ये दीगर बात है कि आपको ऐसी कहानियों के भी प्रशंसक मिल जाएंगे) सिर्फ कुछ गुर या तकनीक सीखने से काम नहीं चलता. उससे कहानी कमज़ोर होती है, बेहतर नहीं. युवा लोगों को भी इन चीज़ों से बचना चाहिए. दूसरा हमारे यहां एडवेंचर नहीं है, बिल्कुल भी नहीं. सब कुछ कम्फर्टेबल जोन में चाहिए. नौकरी बढ़िया हो, सुखमय जीवन हो, सुविधाएं सारी हों, यात्राएं हों, तो फिर कहानी कहां से आएगी आपके पास. और फिर कहानी लिखने की जरूरत क्या है, आपको क्यों कहानी लिखनी चाहिए! आप अपनी कहानियों में सपने को एक टूल की तरह इस्तेमाल करते हैं. सपने का आपके लेखन में क्या महत्व है? सुधांशु गुप्त: मेरा मानना है स्वप्न और यथार्थ की दुनिया एक ही है. मैं दोनों को कभी अलग करके नहीं देखता. बाहरी दुनिया में यदि कोई समस्या आती है, तब भी समाधान के लिए मैं सपनों पर निर्भर रहता हूं. मेरे लिए सपने जीवन के पूरक की तरह हैं. चेखव कहते हैं कि कहानियां छोटी-छोटी बातों से निकलती हैं. आपका क्या मानना है? सुधांशु गुप्त: चेखव हमेशा कहते थे कि आप मुझे एक शब्द दे दो तो मैं उस पर कहानी लिख दूंगा. आप मुझे एक खाली गिलास दो , मैं उस पर भी कहानी लिख दूंगा. तो मुझे लगता है चेखव कह रहे हैं कि कहानी के लिए बड़े विषयों की जरूरत नहीं है. आप अपने आसपास की चीजों को, जो बहुत छोटी दिखाई दे रही हैं, बारीकी और गंभीरता से देखें कहानी वहीं मिलेगी. यानी आप साधारण में भी असाधारण खोज सकते हैं. जैसे मेरी एक कहानी है ‘के की डायरी’. उसकी शुरुआत ही ऐसे होती, “कहते हैं कि कहानी सड़क पर पड़ी मिल जाती है लेकिन मुझे कभी कोई कहानी सड़क पर नहीं मिली हां, एक बार एक डायरी जरूर मिली थी. अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक फ्रेडरिक फोर्सिथ कहते हैं कि वे हर रोज़ सुबह ठीक नौ बजे लिखने बैठ जाते थे. क्या लेखन के लिए ऐसा अनुशासन जरूरी है? सुधांशु गुप्त: व्यक्तिगत रूप से मैं किसी भी अनुशासन का पक्षधर नहीं हूं लेकिन बहुत सारे लोग आपको मिलेंगे जैसे मार्केज़ हों, जिन्होंने अनुशासन से लिखा और उम्दा लिखा. लेकिन मेरा कहना है कि अनुशासन कहां से आता है. आपकी स्थितियां ठीक हों, आपके घर पर खाना हो, पीना हो, सारी सुविधाएं हों तो मैं भी अनुशासित हो जाऊं. लेकिन मेरे मानसपटल पर अनुशासन नाम की कोई चीज़ नहीं है. मेरा पूरा जीवन अनुशासनहीनता में गुजरा है. नौकरी कब करनी है या नहीं करनी है, यह मैं नहीं तय करता ये अंदर से ही तय होता है. लेकिन बहुत से लोग ऐसे हैं जो ये कहते हैं कि अगर जीवन में थोड़ा बहुत सुकून न हो तो सृजनात्मकता कुंठित होने लगती है? आपका क्या मानना है? सुधांशु गुप्त: हो सकता है लिखने के लिए बहुत से लेखकों को सुकून की आवश्यकता होती हो, लेकिन मेरे जीवन में संकट का काल ही सबसे अच्छा समय रहा. इसी काल में मैंने सबसे ज़्यादा सीखा, सबसे अच्छी कहानियां लिखीं और सबसे ज़्यादा पढ़ा. मुझे लगता है लोग बेकार में परेशानियों से डरते हैं. आज मुझे कोई संकट नहीं है, लेकिन मैं भीतर से ज़्यादा दुखी रहता हूं. चिंताएं करना या ओढ़ लेना मेरा स्वभाव है. और मैं चिंताएं ओढ़ता ही नहीं, खरीद लेता हूं. मेरा मानना है कि चिंताएं आदमी से लेती कम हैं और देती ज़्यादा हैं. ये मेरा सिद्धांत है जीवन का. मैं तो बहुत कम्फर्टेबल जोन में रहना भी नहीं चाहता. मेरे लिए अनकम्फर्ट ही कम्फर्ट है. मैं हिन्दी के ऐसे बहुत से लेखकों को जानता हूं, जो यह मानते हैं कि अभावग्रस्त समय में उन्होंने सबसे अच्छा लिखा. लिखने के लिए पढ़ना कितना जरूरी है ? सुधांशु गुप्त: पढ़ना जरूरी है लेकिन पढ़कर आप लिखना नहीं सीख सकते. एक आदमी 500 किताबें पढ़ ले और हो सकता है वो एक भी कहानी न लिख पाए. पढ़ना इसलिए जरूरी है कि आप देख सकें, जान सकें कि आपके आसपास, दुनिया में क्या लिखा जा रहा है, लोग क्या लिख रहे हैं और कैसा लिख रहे हैं. क्या लिखा जा रहा है, इससे भी प्रभावित होने की जरूरत नहीं है. मैं सुधांशु ही रहना चाहता हूं अच्छा या बुरा ये समय तय करेगा. आपकी कहानियों की बात करें तो ‘कॉफी, ताज और हरी आंखों वाला लड़का’ में आप लिखते हैं वह प्रेम को, क्रांतियों को, बदलाव को, सड़क के उस किनारे से देखती है, जहां से सड़क मुड़ रही होती है. तो क्या साहित्यकार समय के फुटपाथ पर खड़े राहगीर की तरह होता है? सुधांशु गुप्त: इस वाक्य में जो आपने पढ़ा उसमें मैं सिर्फ एक बात कहना चाह रहा हूं, जो भी बहुत क्रन्तिकारी बनते हैं जहां भी उनको बेहतरी का रास्ता दिखाई देता है, वहां वे उस ओर वे मुड़ जाते हैं. उनका स्टैंड अपनी सुविधा के हिसाब से है. मतलब सुविधा की सड़क जहां आपको दिखाई दी, आप उस ओर मुड़ गए. और ये प्रेम के सन्दर्भ में भी है. उसमें नायिका को लगा कि ये आदमी अब मेरे काम का नहीं है, मेरी जरूरतें जो आगे बढ़ने वाली हैं वो दूसरे लोग पूरी करेंगे तो पहले वाले को छोड़कर आगे बढ़ जाती है. विभिन्न भाषाओं में हिंदी साहित्य के अनुवाद होने के बावजूद हिंदी के लेखकों को उस प्रकार की अंतरराष्ट्रीय सफलता नहीं मिलती जैसी नाइजीरिया, मिस्र, तुर्की, चीन, जापान, पूर्व यूगोस्लाविया, चेक गणराज्य या लैटिन अमेरिका के लेखकों को मिल जाती है? इसके क्या कारण हो सकते हैं? सुधांशु गुप्त: मैं एक काउंटर सवाल पूछता हूं कि नाइजीरिया, तुर्की, मिस्र के लेखक जिन्हें अंतरराष्ट्रीय सफलता मिली, क्या उन्हें अपने देश में भी सफलता मिली? मिली न! हिंदी में बड़े-बड़े दिग्गज लेखकों को अपनी भाषा में ही सफलता नहीं मिल रही तो आप विदेश में कैसे सफल होंगे. न हमारे पास मार्केटिंग का नेटवर्क है, न प्रमोशन की कोई तकनीक है. आज भी हिंदी के गिने-चुने लेखक होंगे, जिन्हें लाखों में रॉयल्टी मिलती है. आप जिन तमाम देशों का नाम बता रहे हैं, वहां आप एक किताब लिख दीजिये और अगर वो हिट हो गई फिर आप जीवन भर बैठ कर खा सकते हैं. हिंदी का लेखक 20 किताबें लिख कर दाल-रोटी के चक्कर में लगा हुआ है. तो जब हम अपने लेखकों को देश में सम्मान नहीं दे सकते, मूलभूत आर्थिक स्वावलम्बन नहीं दे सकते तो कैसे ये उम्मीद करेंगे कि जर्मनी में या जापान में उनको सम्मान मिल जाएगा. बहुत सारे लेखक हैं, जिनकी किताबें विदेशी भाषाओं में छप रही हैं लेकिन इसके बावजूद विदेशों में उनका कितना सम्मान है और उनकी किताबें कौन पढ़ रहा है, इस पर शोध होना चाहिए. तो सबसे पहले हमें अपने लेखकों का सम्मान हिंदी में करना सीखना होगा. क्षेत्रीय भाषाएं हैं, वहां फिर सम्मान है लेखकों का. बाजार और साहित्य का क्या रिश्ता है? और साहित्य पर बाजार क्या असर डाल रहा है? सुधांशु गुप्त: आज के दिन आप टीवी खोलिये और चैनल सर्फिंग कीजिये तो आप वहीं रुकेंगे, जहां बाजार चाहता है कि आप रुकें. आप क्या देखेंगे, क्या पहनेंगे और क्या पढ़ेंगे, क्या लिखा जाए, किसे प्रमोट करना है, किसे ईनाम दिलवाकर आगे बढ़ाना है, ये बाजार तय कर रहा है. नई किस्म की थ्योरी बाजार में चलती है कि आपका लिखा कौन पढ़ेगा, आपका पाठक कहां है? मेरा मानना है, पाठक कभी पहले तय नहीं होता. पाठक लिखने के बाद तय होता है. जब मंजन बनता है तो ये तय नहीं होता कौन इस्तेमाल करेगा, कोई भी इस्तेमाल कर सकता है. क्या ग़ालिब, मीर या तुलसीदास ने पहले तय किया था कि उन्हें कौन पढ़ेगा? लेकिन अब ये कोशिशें हो रही हैं कि आपको पहले तय करना पड़ेगा आपको कौन पढ़ेगा, जो गलत बात है. तो पाठक पहले से तय करने वाली शर्त एक गलत खेल है जिसमें लेखक अनजाने में या जान-बूझकर उलझ रहे हैं. हम साहित्य की मूल धारा से भटक गए हैं, भटक रहे हैं. दूसरा, साहित्य क्रांति नहीं करता. साहित्य किसी के लिए नहीं होता. साहित्य आम आदमी के विषय में होता है, उसके बारे में नहीं. ये बात हमारे लेखकों, पाठकों और प्रकाशकों को समझनी होगी. आप कृत्रिम कहानी किसे मानते हैं? सुधांशु गुप्त: जब भी परिवेश, कथ्य और संवादों का सामंजस्य नहीं होगा तो रचना कृत्रिम होगी. एक कहानी याद आती है. उसमें बारिश होती है और नायक के मन में तमाम रूमानी खयाल उठते हैं. ये खयाल पाठक को रूमानी दुनिया में ले जाते हैं. फिर भेद खुलता है कि वह इसलिए खुश है कि बारिश से गटर भर जाएंगे तो उसे गटर खोलने के लिए बुलाया जाएगा. आप एक सफाई कर्मचारी पर लिख रहे हो, उसे बादल वैसे दिखाई नहीं देंगे जैसा आपने शुरू में लिखा है. बहुत छोटी बातें हैं लेकिन लोग समझते नहीं. एक युवा लेखक ने पूछा कि अगर मेरी कहानी में कोई पात्र मर रहा है तो क्या मुझे भी मरना पड़ेगा? नहीं, आपको नहीं मरना लेकिन आपको परकाया प्रवेश करके उस पीड़ा और अनुभूति को महसूस करना होगा, तब आप वो अनुभव शब्दों में बयान कर पाएंगे. लिखने को लोगों ने तकनीकी काम बना लिया है जबकि लेखन तकनीकी काम नहीं है. Tags: Hindi Literature, Hindi Writer, New booksFIRST PUBLISHED : July 7, 2024, 12:17 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed