दिल्ली यूनिवर्सिटी के कुलपति भैंस पर बैठ जाते तो भैंसचांसलर हो लेते

डॉ. लक्ष्मण यादव आजमगढ़ के पिछड़े किसान परिवार परिवार से ताल्लुक रखते हैं. उन्होंने इलाहाबाद और दिल्ली विश्वविद्यालय से अपनी तालीम पूरी की. तालीम हासिल करने के बाद वे अध्यायन के पेशे से जुड़ गए. दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज में अध्यापन करते हैं. वे रोज की घटनाओं को डायरी में कैद करते हैं. इसमें यूनिवर्सिटी में रोजना होने वाले मजेदार किस्सों को संजो कर पेश किया गया है.

दिल्ली यूनिवर्सिटी के कुलपति भैंस पर बैठ जाते तो भैंसचांसलर हो लेते
अनबाउंड स्क्रिप्ट से प्रकाशित डॉ. लक्ष्मण यादव की ‘प्रोफेसर की डायरी’ दिल्ली विश्वविद्यालय के सिस्टम की पोल खोलती है. यह हिंदी की सबसे कम समय में सबसे ज़्यादा बिकने वाली बेस्टसेलर किताब है. यह किताब भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के अनकही सच्चाईयों को फिक्शन की शैली और आसान भाषा में कहती है. इसमें साहस, विश्लेषण, पीड़ा है तो हास्य और व्यंग्य भी है. पढ़िए, इसका अध्याय- कुलपति की पिस्तौल दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर मार्कण्डेय सिंह को चाहने वाले मानते हैं कि उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय- डीयू को बहुत कुछ दिया. उसमें एक नायाब चीज थी- ‘अंतर्ध्वनि’. अंतर्ध्वनि नाम से दिल्ली यूनिवर्सिटी के सालाना जलसे की शुरुआत पूरे तामझाम के साथ की गई. कॉमनवेल्थ गेम्स के बाद से उजाड़ पड़ी करोड़ों की इमारतें अब डीयू के सालाना जलसे के काम आ गईं. आज इसकी रंगारंग शुरुआत होनी है. सभी कॉलेजों के शिक्षक, कर्मचारी और विद्यार्थी कॉमनवेल्थ गेम्स के वक्त बने रग्बी स्टेडियम में जुटे हैं. अकादमिक नजरिये से देखें तो विद्यार्थियों की कलाकारी, कर्मचारियों की मेहनत व शिक्षकों के निर्देशों ने पूरे परिसर को सजा दिया है. चहुँओर रंगीन पर्दों से सजे पंडाल, तगड़े साउंड सिस्टम से लैस मंच के बीच पूरा दिल्ली विश्वविद्यालय उमड़ पड़ा है. तभी भीड़ में हलचल सुनाई पड़ी. दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर प्रोफेसर मार्कण्डेय सिंह हाथी पर बैठकर मुख्य सभा स्थल तक चले आ रहे हैं. अब तक के आजाद भारत के इतिहास में किसी भी विश्वविद्यालय के कुलपति को यूं ‘गज-गमन सुख’ नहीं नसीब हुआ. डीयू के ‘लोगो’ में एक हाथी 1922 से ही खड़ा है. आज उसे चलता देखकर डीयू झूम उठा. मैं सोचने लगा गनीमत है कि डीयू के लोगो में हाथी है, कहीं भैंस होती तब? क्या कुलपति उस पर भी बैठ जाते? भैंस पर बैठ जाते तो भैंसचांसलर हो लेते. दरअसल भैंसें हमारी सभ्यता के मुहाने पर खड़ी हैं और हाथियां राज दरबारों की सामंती ठसक का प्रतीक हैं. अपने वाइस चांसलर को हाथी पर बैठा देखकर बतौर एडहॉक हम सबने यही सोचा कि एक दिन यह हिलती-डोलती हाथी हमें भी परमानेंट जरूर करेगा. मगर बाद में पता चला कि वह हाथी खुद दिहाड़ी पर आया था. महावत को सरकारी पेमेंट क्लीयर कराने में भी कई दिन लग गये. सभी एडहॉक अपने अपने कॉलेज वालों के साथ इस महान दृश्य के गवाह रहे. राष्ट्रबंधु कॉलेज में हिन्दी के प्रोफेसर चिरंजीव कुमार इस दौर में डूटा के लिए व्यंग्यात्मक पर्चा लिखा करते थे. इस बार के लिए लिखा कि कुलपति ने जो रवायत रची, उसे बाद में कोई कुलपति निभाने की काबिलियत रखने वाला नहीं हुआ. रंगारंग आयोजन चलता रहा. एक क्रिकेट मैच भी हुआ जिसमें कुछ एडहॉक भी दोनों तरफ की टीम में चुने गये. बाद में पता चला, कुछ एडहॉक अपने वीसी इलेवन में क्रिकेट खेलने के लिए तो चुन लिए गये लेकिन परमानेंट कभी नहीं हो पाए. मैच हार जीत के फ़ैसले के साथ खत्म हो गया मगर उसमें खेलने वाले एडहॉक आज भी बिना फैसले के एडहॉकिज़्म वाला खेल खेल रहे हैं. दरअसल ये वही कुलपति थे जिन्होंने एक खुले हुए कैंपस को चारदीवारी में कैद कर दिया. कैंपस के भीतर की चाय-मठरी के साथ मैगी, फ्राइड राइस के खोमचे वाले हर कोने खाली करा दिए गये. जहां बैठकर हमने अपने दोस्तों के साथ कभी अपना रिसर्च टॉपिक क्लीयर किया; तो कभी देश-दुनिया की बहसें उलझाईं. कल जहां चाय मिलती थी, अब उन सभी जगहों को खाली करा दिया गया. कैंपस के भीतर स्पीक मैके बिल्डिंग और लॉ फैकलिटी की किताब वाली दुकानें तक इस बदलाव की भेंट चढ़ गईं. दिल्ली यूनिवर्सिटी के पास कोई किताब की दुकान तक नहीं बची. रघु दा उस पुरानी याद को साझा करते हुए एक दिन बोले- ‘मार्कण्डेय सिंह तो पहले के कुलपति देशदीपक के नक़्श-ए-कदम पर ही चल रहा है. पहले यह कैंपस बहुत खुला हुआ था. कैंपस के भीतर से ही हम मानसरोवर हॉस्टल से कमला नगर तक चले जाते थे. चाचे दी हट्टी के रावलपिंडी वाले छोले भटूरे, बिरसा मुंडा कॉलेज के सामने वाले बृजमोहन काका की भेलपुरी, डी-स्कूल की नींबू मसाला वाली चाय तक हम एक साथ घूमते. अब तो जैसे पिंजरे में कैद अजायबघर बन गया है.’ कुलपति मार्कण्डेय सिंह ने पूरे दिल्ली विश्वविद्यालय को चमका तो दिया मगर अब उस चमचमाते कैंपस की सभी अकादमिक गतिविधियां कराहते क्लास रूम तक सिमट चुकी हैं. यह खेल बाद में समझ आया कि ओबीसी एक्सपेन्शन के नाम पर मिले पैसों का ऐसे ही दुरुपयोग किया गया. साल 2006 में उच्च शिक्षा में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण लागू हुआ. इसमें प्रावधान किया गया था कि हर विश्वविद्यालय को करोड़ों रुपये अतिरिक्त दिये जाएंगे. इन पैसों से नये क्लास रूम और हॉस्टल बनेंगे ताकि सभी के लिए सुविधाएं बढ़ाई जा सकें. देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों ने ओबीसी एक्सपेंशन में मिले पैसों को पुरानी इमारतों की नक़्काशी में ही खर्च कर दिये. जिन पैसों को आजादी की आधी सदी बीतने के बाद वंचित-शोषित तबकों के ख़्वाबों को चमकाना था, वे पैसे कैम्पसों के फर्श और इमारतों की रंगीन नुमाइश में झोंक दिए गये. गज-गमन सुख पाने वाले मार्कण्डेय सिंह के बहाने मेरे कॉलेज के इतिहास विभाग के साथी प्रोफेसर तौकीर अनवर ने अपनी स्टूडेंट लाइफ का एक किस्सा सुनाया था. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का वीसी तो पिस्तौल रखता था. शायद तुम्हें पता न हो, इस देश में सेना के रिटायर्ड कई अधिकारियों को कई विश्वविद्यालयों का वीसी या प्रॉक्टर बना दिया जाता था, जैसे सेना के रिटायर्ड जवान गार्ड की नौकरी में खप जाया करते हैं. मतलब आप पढ़ने-लिखने वाले नौजवानों को पिस्तौल से रोक लेंगे. शेरवानी पहनकर सर सैयद की बगिया वाले छात्र नेताओं ने ऐसा दौड़ाया कि भागते गये. वह घर गये तो चपरासी कुछ खोजते हुए बाहर आया. छात्रों ने पूछा- ‘क्या खोज रहे हो?’ चपरासी बोला- ‘साहब की पिस्तौल भागने में कहीं गिर गयी.’ छात्रों ने गुस्से में बोला- ‘जाकर बोल देना अपने साहब से, अब तोप मंगवा लें.’ पुस्तक- प्रोफेसर की डायरी लेखक- डॉ. लक्ष्मण यादव प्रकाशक- अनबाउंड स्क्रिप्ट Tags: Delhi University, Hindi Literature, New booksFIRST PUBLISHED : June 27, 2024, 19:23 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
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