मोदी-चंद्रचूड़ पर हमला बोलने वाले अपने गिरेबान में तो झांकें!

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के घर गणपति पूजा के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जाने को लेकर विपक्ष और वकीलों के एक वर्ग ने जो घमासान मचा रखा है, वो न्यायिक इतिहास और संवैधानिक परंपराओं के हिसाब से बेमानी है. अगर इतिहास में झांका जाए, तो इन दोनों के व्यवहार में कोई गड़बड़ी नहीं आएगी, उल्टे अतीत के किस्से सबको चौंका देंगे, जब संवैधानिक मर्यादाओं का जमकर हनन हुआ था.

मोदी-चंद्रचूड़ पर हमला बोलने वाले अपने गिरेबान में तो झांकें!
प्याले में तूफान आ गया है, दिल्ली में सियासत का ये हाल है. मुद्दा है चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ के घर पर गणपति पूजा के दौरान बुधवार की शाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहुंचने और वहां आरती करने को लेकर. इसे लेकर क्या विपक्षी पार्टियां और क्या एक्टिविस्ट टाइप अधिवक्ता, सब सवाल खड़ा कर रहे हैं. सवाल ‘सेपरेशन ऑफ पावर’ के खत्म हो जाने से लेकर मोदी और चंद्रचूड़ की मिलीभगत और निजी रिश्तों की वजह से केंद्र सरकार के पक्ष में चंद्रचूड़ के फैसला देने तक आ गई है. कांग्रेस, उद्धव शिवसेना, समाजवादी पार्टी के नेताओं से लेकर सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह, सारे हमला बोल रहे हैं, मोदी और चंद्रचूड़ पर. सवाल ये उठता है कि क्या पीएम मोदी ने सीजेआई चंद्रचूड़ के घर पर जाकर पाप किया है या फिर मोदी के घर आ जाने के कारण चंद्रचूड़ की निष्पक्षता खतरे में पड़ गई है? इससे भी बड़ा सवाल ये कि क्या चंद्रचूड़ को घर में गणपति पूजन करना भी चाहिए था या नहीं या फिर अगर किया भी, तो उसे मोदी के पहुंचने की तस्वीरों के साथ सार्वजनिक हो जाना गलत था, ऐसे ढ़ेर सारे सवाल खड़े हो गये हैं. क्या सीजेआई को धार्मिक कार्यक्रमों से दूर रहना चाहिए? इसका जवाब तलाशने के लिए हमें अतीत में झांकना होगा, क्योंकि भारतीय संविधान में जो उल्लिखित नहीं होता, उसके लिए परंपराओं में जाना होता है. सवाल ये उठता है कि क्या भारतीय संविधान में इस बात की मनाही है कि देश का मुख्य न्यायाधीश पूजा नहीं कर सकता, या फिर धार्मिक कार्यक्रमों में शामिल नहीं हो सकता? फिर सवाल ये कि क्या संविधान में ‘सेपरेशन ऑफ पावर’ की जो व्याख्या है, उसके तहत प्रधानमंत्री और सीजेआई का मिलना, वो भी घर पर, गैरकानूनी, परंपरा के खिलाफ है? क्या संवैधानिक मर्यादा का ये तकाजा है कि देश का प्रधानमंत्री न तो सीजेआई से कोई निजी मुलाकात करे और न ही सीजेआई कभी पीएम के घर पर निजी तौर पर जाए? और धार्मिक कार्यक्रमों में तो बिल्कुल ही नहीं! क्या संविधान इस बात की मनाही करता है कि सेक्यूलर होने के नाम पर न्यायाधीश, खास तौर मुख्य न्यायमूर्ति के आसन पर बैठा व्यक्ति धार्मिक कार्यक्रमों से दूर रहे? क्या देश का प्रधानमंत्री सीजेआई से निजी सलाह- मशविरा भी नहीं ले सकता, क्योंकि इससे न्यायाधीश की निष्पक्षता प्रभावित होगी? इन सभी सवालों का जवाब मोदी या चंद्रचूड़ देंगे या नहीं, ये तो पता नहीं, इतना सारा विवाद होने के बाद. लेकिन इसका जवाब आसानी से मिल सकता है, जब हम उस दौर में झांके, जब न तो बीजेपी सत्ता में थी और न ही चंद्रचूड़ सीजेआई थे. सीजेआई के घर पर गणपति की आरती करते पीएम मोदी. इस प्रश्न का जवाब हमें साफ तौर पर मिलता है देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जमाने में, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश नियुक्त हुए जस्टिस पीबी गजेंद्रगड़कर की आत्मकथा में, जो प्रकाशित हुई ‘To The Best of My Memory’ नाम से. ध्यान रहे कि नेहरू ने गजेंद्रगड़कर को सीजेआई के तौर पर नियुक्त किया था, जस्टिस सैय्यद जफर इमाम के बदले. परंपरा के हिसाब से, वरिष्ठता के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस बीपी सिन्हा के रिटायर होने पर जस्टिस इमाम को सीजेआई बनना था. लेकिन जस्टिस इमाम की मानसिक हालत ऐसी थी कि नेहरू चाहकर भी उन्हें सीजेआई नहीं बना पाए, क्योंकि विशेषज्ञ डॉक्टरों की रिपोर्ट भी ये बता रही थी कि बेंच पर मामले की सुनवाई करते- करते ही सो जाने वाले जस्टिस इमाम कुछ भी याद नहीं रख पाते थे और उनकी मानसिक हालत इतनी खराब थी कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अति महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह वो जिम्मेदारी के साथ नहीं कर सकते थे. …जब जस्टिस गजेंद्रगड़कर बने मुख्य न्यायाधीश ऐसे में जस्टिस सिन्हा की सिफारिश के मुताबिक नेहरू ने जस्टिस गजेंद्रगड़कर को मुख्य न्यायाधीश बनाया. सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ की तरह ही गजेंद्रगड़कर भी मराठी थे, और धार्मिक भी. बतौर चीफ जस्टिस उन्होंने तिरूपति के दर्शन भी किये थे और महाराष्ट्र में बिठोबा मंदिर के कार्यक्रम में भी शामिल हुए थे. अपनी आत्मकथा में उन्होंने भारतीय संविधान में निहित सेक्युलरिज्म और अपनी धार्मिकता के बारे में कोई विरोधाभास नहीं पाया था. उनका कहना था- “मेरे विचार से सत्य और तार्किक धर्म में भरोसा सेक्युलरिज्म के साथ गैर सम्मत नहीं है. पश्चिम में सेक्युलरिज्म को जिस तरह से लिया जाता है, वो मूल तौर पर धर्म विरोधी, ईश्वर विरोधी और चर्च विरोधी है. जबकि दूसरी तरफ हमारा संविधान ये साफ तौर पर कहता है कि सेक्युलरिज्म का अर्थ है सभी धर्मों को बर्दाश्त करना. हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों में धर्म से जुड़े अधिकार हैं. हमारा संविधान ये भी कहता है कि कुछ लोगों की धर्म में बिल्कुल आस्था नहीं हो सकती, तब भी वो नागरिकता के अधिकारी हैं, और जो धर्म में आस्था रखते हैं, उनके भी नागरिक अधिकारों को कोई हानि नहीं पहुंच सकती. कुछ लोगों को लगता है कि सेक्युलरिज्म का अर्थ होता है धर्म विरोधी होना, लेकिन मेरे हिसाब से ये भारतीय संविधान की सेक्युलरिज्म की व्याख्या के खिलाफ है. आप विधर्मी हो सकते हैं, अधार्मिक हो सकते हैं, धार्मिक हो सकते हैं, फिर भी आप नागरिक हैं, नागरिक के नाते तमाम अधिकार आपके पास हैं और आपको हर किस्म के कर्तव्य का पालन करना है. भारतीय संविधान में धर्म नामक संस्था और भारतीय संस्कारों, जीवन पद्धति को उच्च स्थान दिया गया है, तमाम कवचों के साथ. सेक्युलरिज्म का अर्थ सिर्फ ये है कि किसी एक धर्म की धार्मिक ज्ञान के मामले में बपौती नहीं है. हमारी सेक्युलरिज्म भागवत गीता के सिद्धांतों पर आधारित है, जिसमें कहा गया है – हे कुंतीपुत्र, जो दूसरे भगवानों की भी आराधना करते हैं, पूरे भरोसे के साथ, वो भी एक तरह से मेरी ही उपासना करते हैं, भले ही वो प्राचीन नियमों के खिलाफ हो.” गजेंद्रगड़कर ने धर्म का पालन करने और धार्मिक कार्यक्रमों में भाग लेने को लेकर खुद का उदाहरण देते हुए भारतीय संविधान, सेक्युलरिज्म और धार्मिक होने के बीच कोई विरोधाभास नहीं माना है. मोदी और खास तौर पर चंद्रचूड़ की आलोचना करने वालों को कम से कम गजेंद्रगड़कर जैसे दार्शनिक जज की बात को ध्यान से समझना चाहिए, गौर करना चाहिए. अगर वो ऐसा करेंगे, तो न तो उन्हें चंद्रचूड़ में कोई गलती दिखेगी और न ही मोदी में, अगर चंद्रचूड़ ने घर में गणपति की स्थापना की और उस पूजा के मौके पर मोदी उनके घर में पधारे. ये भी ध्यान रखना होगा कि भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई के तौर पर गणपति पूजा और पांडालों की स्थापना को खुद बालगंगाधर तिलक ने बल दिया था, अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का बड़ा हथियार बनाया था. मनमोहन सिंह की इफ्तार पार्टी में सीजेआई ऐसे में सवाल उठता है गणपति पूजन और इसमें मोदी के शामिल होने की वजह से चंद्रचूड़ की निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करने वालों के इरादों पर. अगर आजादी बाद के न्यायिक इतिहास, खास तौर पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों और उस दौर के प्रधानमंत्रियों के आपसी संबंधों को देखेंगे तो मोदी और चंद्रचूड़ दोनों ही पुण्यात्मा नजर आएंगे. धार्मिक कार्यक्रम में शिरकत करने पर सवाल उठाना तो छोड़ ही देना चाहिए, इंडी एलायंस के नेताओं को याद रखना चाहिए कि यूपीए के दस साल के शासन काल के दौरान मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहते हुए तब के मुख्य न्यायाधीशों को अपनी इफ्तार पार्टी में हमेशा बुलाते रहे थे. उस समय तो किसी ने सवाल नहीं खड़े किये. 2009 में तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह की इफ्तार पार्टी में तत्कालीन सीजेई केजी बालाकृष्णन. मनमोहन सिंह के पहले, खास तौर पर नेहरू, इंदिरा दौर का इतिहास तो और सनसनीखेज है, विवादास्पद है. कई प्रधानमंत्रियों ने तो निजी फेवर तक लेने की कोशिश की है तब के न्यायाधीशों से, उन पर दबाव डालने की कोशिश की है, घर पर मिलना, आना- जाना तो सामान्य बात थी. जस्टिस गजेंद्रगड़कर के घर भोजन पर पहुंचे शास्त्री खुद गजेंद्रगड़कर ने अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है कि नेहरू के बाद प्रधानमंत्री बने लालबहादुर शास्त्री, जिनकी नैतिकता और सार्वजनिक जीवन में शुचिता की भावना पर शायद ही कोई सवाल उठा सके, वो शास्त्री भी सीजेआई के पद पर आसीन गजेंद्रगड़कर को अपने घर पर बुलाते थे. गजेंद्रगड़कर अपनी आत्मकथा में बड़ी ही बेबाकी से लिखते हैं कि एक बार शास्त्री जी ने कहा कि वो उनके साथ घर में बैठकर भोजन करना चाहते हैं, अपनी पत्नी के साथ, बिना किसी औपचारिकता के, कुछ महत्वपूर्ण विषयों पर बात करने के लिए. गजेंद्रगड़कर ने हां भरी और शास्त्री के साथ भोजन किया. क्या इससे माना जाए कि शास्त्री ने सेपरेशन ऑफ पावर के सिद्धांत का उल्लंघन किया. या फिर जब शास्त्री ने गजेंद्रगड़कर के चीफ जस्टिस रहते हुए उन्हें रिटायरमेंट के बाद ब्रिटेन में भारत का उच्चायुक्त बनाने का प्रस्ताव रखा, तो उन्हें वो प्रभावित करने की कोशिश कर रहे थे. जाहिर है, उस समय का विपक्ष न तो उतना गैर जिम्मेदार था और न ही छिछला. गजेंद्रगड़कर लिखते हैं कि उस दौर में तत्कालीन गृह मंत्री उनके घर पर नियमित तौर पर आते थे, सीजेआई के आधिकारिक आवास के ठीक सामने रहते थे वो. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के आसन पर बैठे गजेंद्रगडकर रात के अंधेरे में तत्कालीन पीएम शास्त्री के घर पर जाते थे, ताकि आराम से बैठकर महत्वपूर्ण विषयों पर बातचीत कर सकें, इंतजार न करना पड़े. कल्पना करें, आज के दौर में गृहमंत्री अमित शाह चंद्रचूड़ के घर में जाएं या फिर चंद्रचूड़ रात में पीएम मोदी से मिलने जाएं, तो विपक्ष या फिर एक्टिविस्ट टाइप के अधिवक्ता आसमान को किस हद तक अपने सर पर उठा लेंगे, किस तरह उन्हें दाल में कुछ काला नहीं, बल्कि पूरी दाल ही काली नजर आएगी. इंदिरा गांधी के दौर के किस्से हालांकि गजेंद्रगड़कर और शास्त्री के बीच के इस तरह के संबंधों और नियमित मेल- मिलाप के किस्से आपको अत्यंत शाकाहारी और निरस लगेंगे, जब इंदिरा दौर के किस्से आप सुनेंगे, जानेंगे. भारतीय न्यायपालिका और सुप्रीम कोर्ट पर करीब पांच दशक तक शोध करने वाले अमेरिकी प्रोफेसर जॉर्ज एच गडब्वा की किताब और डायरी में तो ऐसे हजारों किस्से दर्ज हैं, जिन्हें जानकर आप चौंक जाएंगे. लगेगा कि चंद्रचूड़ और मोदी, ये दोनों तो धर्मात्मा हैं, सात्विक हैं मिजाज से, अंदाज से. भला कौन भूल सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में, पहली बार तीन वरिष्ठ जजों की अनदेखी कर, जिस चौथे जज, जस्टिस ए एन रे को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस बनाने का फैसला किया था, तो इसलिए नहीं कि ये तीनों जज उस जस्टिस इमाम की तरह मानसिक तौर पर बीमार थे, जिन्हें दरकिनार करते हुए नेहरू ने मजबूरी में गजेंद्रगड़कर को चीफ जस्टिस बनाया था. सच्चाई ये थी कि तत्कालीन चीफ जस्टिस डीके सिकरी के चीफ जस्टिस पद से रिटायर होने के बाद जिन तीन तीन वरिष्ठ जजों, जस्टिस शेलत, जस्टिस हेगड़े और जस्टिस ग्रोवर की अनदेखी करते हुए, जस्टिस रे को चीफ जस्टिस बनाया गया इंदिरा सरकार की तरफ से, तो उसका कारण ये था कि इन तीनो जजों ने सरकार के रुख के खिलाफ जाकर बेसिक स्ट्रक्चर मामले में फैसला दिया था, जिस बेसिक स्ट्रक्चर को बचाने की लड़ाई लड़ने का दावा करते हुए आज का विपक्ष अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश करता है. दिवंगत इंदिरा गांधी के पीएम रहते न्यायपालिका के साथ उनके रिश्तों को लेकर तमाम कहानियां है. यहां तक कि इंदिरा गांधी के इस घनघोर अनैतिक कृत्य को संसद में पूरी ढिठाई के साथ न्यायोचित ठहराते हुए उनके करीबी सहयोगी और ईस्पात व खनिज राज्यमंत्री रहे एस मोहनकुमारमंगलम ने ये कहा था कि जिस तरह से गोलकनाथ से लेकर बैंक नेशनलाइजेशन, प्रीवी पर्स और केशवानंद भारती मामले में न्यायपालिका सरकार के साथ टकराव का रास्ता अख्तियार किये हुए थी, उसमें जस्टिस रे से उम्मीद की जाती है कि वो टकराव का ये रास्ता बंद करेंगे. सेपरेशन ऑफ पावर और न्यायपालिका की निष्पक्षता को लेकर आज की तारीख में हाय- हाय करने वालो को शायद ही ये किस्सा याद आएगा. कहना न होगा कि जस्टिस रे ने एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह पूरी तन्मयता के साथ इंदिरा गांधी और उनकी सरकार का साथ दिया, यहां तक कि बेसिक स्ट्रक्चर जजमेंट को रिव्यू करने के लिए बिना किसी मांग के एक बड़ी संवैधानिक बेंच के गठन का फैसला भी कर लिया, जिसे साथी जजों के विरोध के कारण तुरंत भंग करना पड़ा. ये जज, जस्टिस रे इतने महान थे कि इनके देहांत के बाद परंपरा के तहत सुप्रीम कोर्ट में जब श्रद्धांजलि का कार्यक्रम रखा गया, तो राम जेठमलानी ने कहा कि हे प्रभु, इस धरती पर दोबारा ऐसा कोई जज न भेजना. इससे भी ज्यादा संगीन और रोचक किस्सा जस्टिस एससी राय का है, जो पश्चिम बंगाल के पहले मुख्यमंत्री, कांग्रेस नेता और नेहरू के करीबी दोस्त डॉक्टर बीसी राय के भतीजे थे. 1971 के लोकसभा चुनावों के ठीक पहले इंदिरा गांधी ने उन्हें कहा था कि मेरी मदद करने के लिए तुम सुप्रीम कोर्ट आ जाओ. नेहरू और विधानचंद्र राय की तरह इंदिरा गांधी और एससी राय की भी दोस्ती थी. अपनी दोस्त इंदिरा का अनुरोध मानते हुए एससी राय सुप्रीम कोर्ट आने को तैयार हो गये. नियुक्ति के पहले वो तत्कालीन कानून मंत्री गोखले, कुमारमंगलम और सिद्धार्थंशंकर राय से मिले और इस मुलाकात के बाद सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस राय की नियुक्ति हो गई. सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति हो जाने के बाद इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद में मौजूद अपनी पारिवारिक संपत्ति से जुड़े हुए कानूनी काम जस्टिस राय को सौंपे और संबंधित दस्तावेज भी दिय़े. हालात ऐसे बने कि नवंबर 1971 में जस्टिस राय का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया और इंदिरा गांधी ने फटाफट उनके घर में मौजूद तमाम दस्तावेजों को खिसका दिया, ताकि किसी दूसरे को इसकी भनक न लगे. ये किस्सा खुद जस्टिस राय की पत्नी ने प्रोफेसर गडब्वा को बताई. …जब जस्टिस बेग बने सीजेआई जस्टिस राय और जस्टिस रे की तरह ही जस्टिस एचएन बेग का किस्सा भी रोचक है. उनको सिर्फ इसलिए जस्टिस एचआर खन्ना को दरकिनार करते हुए सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस बनाया गया, क्योंकि एडीएम जबलपुर केस में उन्होंने जस्टिस रे के साथ मिलकर सरकार का साथ दिया था और जस्टिस खन्ना एक मात्र डिसेंटिग जजमेंट देने वाले न्यायाधीश रहे. इसलिए जस्टिस रे के बाद सबसे वरिष्ठ रहे जस्टिस खन्ना की जगह इंदिरा गांधी ने जस्टिस बेग को उपकृत किया, चीफ जस्टिस बनाया. भला सोचिए, मोदी ने अपने दस साल के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट के किसी एक जज को सुपरसीड नहीं किया, बावजूद इसके विपक्ष को सबसे बड़ा खतरा न्यायपालिका की निष्पक्षता के हिसाब से मोदी से ही लगता है. कांग्रेस नेता बने सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस बहारुल इस्लाम का किस्सा तो राजनीति और न्यायपालिका के बीच के अनैतिक गठजोड़ और निजी रिश्ते को न्यायिक निष्पक्षता पर तरजीह देने का सबसे विवादास्पद उदाहरण है. ये सज्जन असम से आने वाले कांग्रेस के बड़े नेता थे, गुवाहाटी हाईकोर्ट में जज बनने के पहले ये कांग्रेस में कई पदों पर रह चुके थे. गुवाहाटी हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के तौर पर रिटायर होने के बाद ये सुप्रीम कोर्ट में जज बने और सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने के बाद फिर से कांग्रेस के नेता. वर्ष 1952 से 1972 के बीच इस्लाम असम कांग्रेस में लगातार बड़ी भूमिका निभाते रहे, अप्रैल 1962 में कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा गये, 1967 में असम विधानसभा का चुनाव लड़ा और हार के बाद 1968 में दोबारा राज्यसभा भेजे गये. जनवरी 1972 में उन्हें इंदिरा गांधी ने राज्यसभा से इस्तीफा दिलवाकर गुवाहाटी हाईकोर्ट का पहला मुस्लिम जज बना दिया और फिर हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस भी. मार्च 1980 में हाईकोर्ट से रिटायर होने के बाद उन्हें कांग्रेस ने समर्थन देकर स्वतंत्र रूप से राज्यसभा में भेजने की कोशिश की, जब उसमें सफलता नहीं मिली, तो हाईकोर्ट से रिटायरमेंट के नौ महीने बाद उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बिना दिया. इस तरह कांग्रेस ने बहारुल इस्लाम के बहाने सुप्रीम कोर्ट में एक नया रिकॉर्ड बनवाया, सबसे अधिक उम्र में किसी व्यक्ति को सुप्रीम कोर्ट जज बनाने का, चार दिसंबर 1980 को जब इस्लाम जज बने, तो उनकी उम्र थी करीब 63 साल. खुद इस्लाम ने ये बात कबूल की थी कि इंदिरा गांधी सरकार के तत्कालीन कानून मंत्री पी शिवशंकर की कृपा से वो सुप्रीम कोर्ट के जज बने. सुप्रीम कोर्ट के जज पद से इस्तीफा दे लड़े चुनाव हद तो ये हुई कि सुप्रीम कोर्ट से जज के तौर पर रिटायर होने के ठीक छह महीने पहले इस्लाम ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया, और कांग्रेस हाईकमांड के कहने पर असम की बारपेटा लोकसभा सीट से उम्मीदवार बन गये. कांग्रेस के कृपापात्र रहे जस्टिस इस्लाम ने रिटायरमेंट के ठीक पहले उस बेंच में शिरकत की थी, जिसने बिहार के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा को फर्जीगीरी के एक मामले में राहत दी थी. कांग्रेस की कृपा इस्लाम पर कितनी जबरदस्त थी, इसका अंदाजा इस बात से लग सकता है कि जब बारपेटा में अशांति के कारण चुनाव नहीं हो पाया, तो कांग्रेस ने उन्हें जून 1983 में राज्यसभा भेज दिया. सेपरेशन ऑफ पावर का रोना रोते हुए जो लोग मोदी और चंद्रचूड़ पर हमला कर रहे हैं, उन्हें ये किस्सा याद कर लेना चाहिए. ऐसे सैकड़ों किस्से हैं, जो ये बताते हैं कि निजी निष्ठा, संबंध, वोट बैंक और दरबार में पेशी के आधार पर कांग्रेस की तत्कालीन सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट तक में जजों को नियुक्त किया. जस्टिस एम फातिमा बीबी का किस्सा कौन भूल सकता है, जिन्हें महज वोट बैंक साधने के एवज में केरल हाईकोर्ट से रिटायर होने के लंबे समय बाद सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया गया, देश की पहली हाईकोर्ट चीफ जस्टिस लीला सेठ को दरकिनार करते हुए. जस्टिस सेठ ने खुद ये किस्सा बयान किया है. ये कारनामा भी राजीव गांधी की अगुआई वाली कांग्रेसी सरकार ने ही किया था, 6 अक्टूबर 1989 को. ये सारे किस्से विपक्ष जानबूझकर याद नहीं करना चाहेगा, अन्यथा मोदी और चंद्रचूड़ विरोध कुंद पड़ जाएगा. पंडित नेहरू के पीएम रहने एक सिटिंग जज को राज्यपाल नियुक्त किया गया था. नेहरू ने सुप्रीम कोर्ट के सिटिंग जज को बनाया राज्यपाल दरअसल, मोदी और चंद्रचूड़ पर ये हमला विपक्ष और एक्टिविस्ट वकीलों की साझा रणनीति का उदाहरण है, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट से हर मामले में फैसला अपने पक्ष में आने की जिद रहती है. ये वही नेता और वकील थे, जिन्हें जस्टिस रंजन गोगोई तब हीरो लगे थे, जब उन्होंने तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ अपने साथी जजों के साथ मिलकर प्रेस कांफेंस की थी, जिसे एक तरह से मोदी सरकार के खिलाफ उनके गुस्से के तौर पर पेश किया गया था. लेकिन मोदी ने जब उन्हीं जस्टिस गोगोई को सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस बना दिया और फिर बाद में राज्यसभा में भेज दिया, तो वो सबसे बड़े खलनायक बन गये विपक्ष और एक्टिविस्ट वकीलों के गठजोड़ के लिए. यही हुआ जस्टिस नजीर के साथ, जिन्होंन रामजन्मभूमि मामले में सर्वसम्मति वाले फैसले के जरिये राममंदिर बनाने के रास्ते को साफ किया. इन्ही नजीर को जनवरी 2023 में रिटायर होने के बाद जब आंध्र प्रदेश का राज्यपाल मोदी सरकार ने बनाया, तो विपक्ष और एक्टिविस्ट वकीलों ने आसमान सर पर उठा लिया और मोदी सरकार के हाथों बिके होने का आरोप लगा दिया. ये आरोप लगाते हुए उन्हें भूतकाल की याद नहीं आई, जब नेहरू ने सुप्रीम कोर्ट के सिटिंग जज रहते हुए जस्टिस फजल अली को उड़ीसा का राज्यपाल बनाने की घोषणा कर दी थी. खुद फातिमा बीबी को देवगौड़ा सरकार ने 1997 में तमिलनाडु का राज्यपाल बनाया था. मोदी का विरोध तब भी हुआ था, जब उन्हें सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस पी सदाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाया था सितंबर 2014 में. मोदी और चंद्रचूड़ उसी परंपरा का पालन कर रहे हैं, जो पहले से चली आ रही है. भारतीय संविधान कहीं से भी ये नहीं कहता कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के प्रमुख एक दूसरे से नहीं मिलेंगे, एक दूसरे के घर नहीं जाएंगे. सिर्फ विरोध के नाम पर विरोध करने वाले अपनी प्रामाणिकता को ही गिरा रहे हैं, मोदी और चंद्रचूड़ का नुकसान नहीं. Tags: DY Chandrachud, PM ModiFIRST PUBLISHED : September 12, 2024, 19:30 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed