Opinion: अग्निपथ के खिलाफ दंगा तोड़फोड़ करने वालों पर तकनीक की मदद से कसें शिकंजा
Opinion: अग्निपथ के खिलाफ दंगा तोड़फोड़ करने वालों पर तकनीक की मदद से कसें शिकंजा
Agnipath protests: प्रशासन के फैसलों के खिलाफ नाराजगी गलत नहीं है, लेकिन इसके लिए सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करना सही नहीं हो सकता. ऐसे लोगों को सबक सिखाना जरूरी है. राज्य सरकारों को तकनीक की मदद से उन पर शिकंजा कसना चाहिए.
(प्रशांत नायर)
महात्मा गांधी का मानना था कि हिंसा एक ऐसा हथियार है, जो समाधान के बजाय समस्याएं ज्यादा पैदा करता है. मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला ने भी अलोकतांत्रिक और अनुचित शासन का विरोध लगातार शांतिपूर्ण तरीके से ही किया. 1957 में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अपने मशहूर ‘गिव अस द बैलट’ संबोधन के जरिए अफ्रीकी अमेरिकियों के लिए ‘मतदान के अधिकार’ की मांग शांति से ही की. अफ्रीकी अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन के लिए उन्होंने गांधी की अहिंसा और सविनय अवज्ञा को ही हथियार बनाया.
भारत एक प्रगतिशील संविधान वाला कार्यात्मक लोकतंत्र है. हम भारत के नागरिकों का फर्ज बनता है कि राजनीतिक राय दर्ज करानी हो तो मतपत्रों के जरिए आवाज उठाएं. विरोध करना हो तो शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करें. हिंसक प्रदर्शन बिल्कुल नहीं होना चाहिए. हिंसा एक आदम जमाने की चीज है, जिसे हमने दमनकारी अंग्रेजों के खिलाफ भी नहीं अपनाया था.
प्रशासन के फैसलों और उसके ठीक से काम करने के खिलाफ भावनात्मक रूप से परेशान होना गलत नहीं है, लेकिन इसके लिए दूसरे नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन करना या सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करना तार्किक या कानूनी रूप से स्वीकार्य नहीं है. हिंसा के जरिए अपनी भावनाओं को व्यक्त करने और उसे जायज ठहराने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं. ऐसे में सेना में भर्ती की नई अग्निपथ योजना के विरोध में सार्वजनिक संपत्ति को बिना सोचे-समझे नुकसान पहुंचाना भी कोई अनोखी बात नहीं है.
6 अगस्त 2019 को संवैधानिक रास्ता अपनाकर जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाई गई, लेकिन इसका विरोध हिंसा से किया गया. 31 जुलाई 2019 को संसद के जरिए ट्रिपल तलाक को अपराध घोषित करने का कानून लागू हुआ तो भी हिंसक प्रतिक्रिया हुई. 12 दिसंबर 2019 को नागरिकता संशोधन अधिनियम कानून बना तो देश भर में हिंसक प्रदर्शनों में कम से कम 76 लोगों की जान चली गई. 2020 के कृषि कानूनों में संशोधन हुआ तो हिंसक विरोध प्रदर्शनों के दौरान बसों और पुलिस वाहनों को आग में झोंक दिया गया, 1,500 से अधिक मोबाइल टावरों को क्षतिग्रस्त कर दिया गया.
ये प्रवृत्ति परेशान करने वाली है. खासकर तब जब निर्वाचित संसद के फैसलों को हिंसक विरोध के जरिए पलटने की कोशिश की जाती है. ऐसा इसलिए कि प्रदर्शनकारियों के पास लोकतांत्रिक और संवैधानिक रास्ता अपनाने का धैर्य नहीं है. विरोध करने का अधिकार लोकतंत्र में इकट्ठा होने, सभा करने और अपनी बात रखने की आजादी के अधिकार की अभिव्यक्ति है. हालांकि सरकार के खिलाफ प्रतिशोध में हिंसा और आगजनी की घटनाएं लोकतंत्र पर सीधे वार करती हैं. संवैधानिक रूप से चुनी हुई सरकार की तुलना किसी बर्बर या फासीवादी तानाशाही से करना और सड़कों पर युद्ध छेड़ना हास्यास्पद ही है. दंगा करने वाले ये मानते हैं कि कानून के हाथ उन तक नहीं पहुंच पाएंगे, भीड़ में उनकी पहचान नहीं हो पाएगी और गिरफ्तारी नहीं होगी, लेकिन ये सच नहीं है.
कानून व्यवस्था बनाए रखने की पहली जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है. उन्हें तकनीक की मदद से ऐसे लोगों पर शिकंजा कसना चाहिए. हिंसा करने वालों को बख्शा नहीं जाना चाहिए. उन्हें सबक सिखाना जरूरी है. सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के लिए उनसे 1984 के कानून के अंतर्गत निजी तौर पर भरपाई कराई जानी चाहिए. टैक्सपेयर्स के पैसों पर ऐसे लोगों का अपना गुस्सा निकालने की आजादी नहीं मिलनी चाहिए.
दिसंबर 2019 में दिल्ली पुलिस ने पहली बार एक रैली में भीड़ में लोगों की पहचान करने के लिए ऑटोमैटिक फेस रिग्निशन तकनीक का इस्तेमाल किया था. चेहरे पहचानने वाली इस तकनीक के नतीजे भी तुरंत आए. ऐसे लोगों को पहचानने और धर दबोचने में मदद मिली जिन्होंने कभी हिंसा फैलाई थी या अपराध में शामिल रहे थे. ऐसे लोगों की पहचान वोटर पहचान पत्र, ड्राइविंग लाइसेंस या आधार डेटाबेस का मिलान करके संभव है. आजकल अपराधियों को पकड़ने के लिए मोबाइल टावर से जियो-लोकेशन पता लगाना रुटीन हो गया है. हिंसक भीड़ में दंगाइयों की पहचान के लिए ड्रोन मैपिंग और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस टूल का इस्तेमाल किया जा सकता है. लोगों के पिछले आपराधिक इतिहास को देखना, उनकी सोशल मीडिया गतिविधियों का विश्लेषण करना और डीएनए फ़िंगरप्रिंटिंग से उनकी पहचान की जा सकती है. अमेरिका में कैपिटल बिल्डिंग पर हमला करने वालों का पता लगाने के लिए भी इसी तरह की तकनीक का इस्तेमाल किया गया था.
ये अलग बात है कि अपराधी भी इससे बचने के लिए नई-नई तरकीबें सीखेंगे जैसे अपने डिजिटल उपकरणों को साथ में न रखना, साजिश के लिए सुरक्षित जगहों का इस्तेमाल करना और चेहरों को ढककर गतिविधियों को अंजाम देना आदि. तकनीक के जरिए चूहे-बिल्ली का ये खेल चलता रहेगा, लेकिन एजेंसियों को हिंसा की इस प्रवृत्ति को खत्म करना ही होगा.
अपराधों से लड़ने के लिए तकनीक के इस्तेमाल का मतलब ये नहीं है कि अभिव्यक्ति की आजादी को दबाने या नागरिकों की जासूसी के लिए इसका अंधाधुंध उपयोग किया जाने लगे. हमारे सामने असली चुनौती यही है कि अपराधियों को पकड़ने की इस प्रक्रिया में लोकतांत्रिक मूल्यों का गला न घुट जाए. हमने कई सरकारों को वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की मिलीभगत से राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों और आलोचकों को डराने के लिए आपराधिक जांच प्रक्रिया का दुरुपयोग करते देखा है. कई बार आईपीसी की गैर-जमानती धाराओं की गलत व्याख्या करके शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों और आलोचकों पर थोप दी जाती है.
ऐसे में सतर्क न्यायपालिका से बड़ी उम्मीद है, वही ऐसी संस्था है जो इंसानी स्वतंत्रता, मौलिक अधिकार और संविधान को गंभीरता से लेती है. शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों की गलत गिरफ्तारी और भीड़ में हिंसा के दोषियों को पकड़ने में राज्य सरकार के विवेक की परख यही कर सकती है. भारतीय लोकतंत्र की रक्षा के लिए सर्विलांस तकनीक और अदालतों की जिम्मेदारी पहले कभी इतनी अहम नहीं थी. बाहर तोड़फोड़ मचाने वालों और संविधान की शपथ लेकर अंदर से इसे खोखला कर रहे लोगों से निपटने की महती जिम्मेदारी इन्हीं पर है. (लेखक प्रशांत नायर एक IAS अफसर और पूर्व एडवोकेट हैं)
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए up24x7news.comHindi उत्तरदायी नहीं है.)
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Tags: Agneepath, Agnipath scheme, AgniveerFIRST PUBLISHED : June 25, 2022, 14:13 IST