40 साल में बंजर जमीन को बना दिया जंगल लोग कहते हैं ‘जंगली’
40 साल में बंजर जमीन को बना दिया जंगल लोग कहते हैं ‘जंगली’
बीएसएफ से रिटायर होने के बाद 1.50 हेक्टेयर बंजर जमीन पर घना जंगन बना दिया. लोग उन्हें ‘जंगली’ के नाम से जानते हैं. उनके जंगल में कई तरह के औषधीय पौधे हैं. साथ ही गांव के लोगों को मिलती है जलावन लकड़ी, घास और भी बहुत कुछ...
‘जंगली’ शब्द को पढ़कर एक जंगल के या गांव के किसी व्यक्ति की छवि दिमाग में बनती है. लेकिन क्या हो जब इस शब्द से बनने वाली छवि के मायने एकदम उलट हो जाएं. यह उपाधि यूं ही नहीं मिली बल्कि पर्यावरण को बचाने के लिए जंगल बनाने पर मिली है. आज हम एक ऐसे व्यक्ति की कहानी लेकर आए हैं जिन्होंने बीएसएफ से रिटायर होने के बाद अपना सारा समय जंगल बनाने में लगा दिया. उत्तराखंड के रहने वाले जगत सिंह चौधरी ने 1,00000 पेड़ लगाकर मिश्रित वन बना दिया.
जगत सिंह की कहानी बीएसएफ में रहकर देश सेवा के लिए लड़ाई लड़ने वाले जवान से एक महान पर्यावरणविद् बनने की है. जगत सिंह चौधरी से विस्तार से चर्चा कर न्यूज़ 18 ने उनकी इस मुहिम को जाना. जगत सिंह ने पुरखों की बंजर पड़ी 1.5 हेक्टेयर जमीन को जंगल में तब्दील कर दिया. इस जंगल से उन्होंने गांव की तस्वीर कैसे बदल दी. जहां गांव की महिलाओं को जलावन लकड़ी और चारा मिला. इस बंजर जमीन से जल स्त्रोत जिंदा हुए और जंगल आय का स्त्रोत भी बन गया.
जंगल में 100 से ज्यादा प्रजातियों के पेड़ लगे हुए हैं.
कैसे मिली पौधे लगाने की प्रेरणा
जगत सिंह चौधरी मूल रूप से रुद्रप्रयाग के कोटमल्ला गांव के रहने वाले हैं. गढ़वाल विश्वविद्यालय से बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1967 में वह बीएसएफ में चले गए. वह बताते हैं कि साल 1974 में जब मैं नौकरी से छुट्टी पर घर आया तो देखा कि एक दिन पूरा गांव सूना पड़ा था. जब उन्होंने गांव के एक वृद्ध से पूछा कि गांव क्यों खाली है. तो उन्होंने बताया कि गांव की महिलाएं घास काटने के लिए पहाड़ी पर जंगल में गई थीं. उनमें से एक महिला वहां से गिर गई है. उसे ढूंढ़ने के लिए सारे लोग गए हुए हैं.
इस बात की जानकारी लगते ही वह भी जंगल की तरफ निकल पड़े. कुछ दूर पहुंचकर उन्हें गांव के लोग मिले, जहां पर कुछ लोग उस महिला को जख्मी हालत में लेकर आ रहे थे. इस घटना ने जगत सिंह को झकझोर कर रख दिया. उन्होंने सोचा कि गांव की महिलाओं को जलावन लकड़ी और चारे के लिए अपनी जान दांव पर लगानी पड़ती है. इस समस्या से निपटने के लिए उन्होंने अपने पुरखों की बंजर पड़ी जमीन पर पौधे लगाने का विचार किया. इस बंजर जमीन पर उन्होंने साल 1974 में पौधे लगाने शुरू कर दिए. जब भी वह छुट्टी पर आते पौधरोपण किया करते थे. रिटायरमेंट के बाद उन्होंने अपना सारा समय पौधे लगाने में लगा दिया.
40 साल में तैयार हुआ जंगल
पौधे लगाने की इस मुहिम को शुरू करने के लिए अपनी नौकरी से मिला सारा पैसा उन्होंने जंगल बनाने में लगाया. बिना किसी सरकारी सहायता या किसी दूसरे व्यक्ति की सहायता लिए उन्होंने हर दिन पौधरोपण करने का काम किया. लगभग 15 सालों के अंतराल के बाद उनके लगाए हुए पेड़ काफी बड़े हो गए. यहां 1.50 हेक्टेयर की जमीन पर लगभग 1 लाख पेड़ों का जंगल बन गया. वह कहते हैं कि उस दौर में पर्यावरण के लिए इतना काम नहीं किया जाता था. यह वो दौर था जब पेड़ लगाने का चलन नहीं था, बल्कि पेड़ काटने का चलन था. लेकिन उनके पिताजी भी पेड़ लगाया करते थे, जिससे उन्हें भी पेड़ लगाने का ये विचार आया.
‘जंगली’ की उपाधि कैसे मिली
जगत सिंह चौधरी बताते हैं कि उन्होंने पर्यावरण के क्षेत्र में काम करना शुरू कर दिया था. उस दौरान जिले के ही एक राजकीय स्कूल में उन्हें एक कार्यक्रम में लेक्चर के लिए बुलाया गया. जहां उन्होंने ‘पेड़ बचाओ, मृदा बचाओ’ जैसे मुद्दों पर अपनी बात रखी. यहां उन्हें सम्मानित किया गया और ‘जंगली’ नाम की उपाधि दी गई. हालांकि इस नाम के चलते पत्नी काफी समय तक नाराज रहीं लेकिन बाद में लोग उन्हें जंगली नाम से ही जानने लगे और पत्नी को भी उनके इस नाम पर गर्व होने लगा.
कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा
इस जंगल को बनाने में सबसे बड़ी चुनौती तो बंजर जमीन थी. जिस पर कुछ भी उगाना बेहद मुश्किल था. इस जमीन को उपजाऊ बनाना सबसे पहली चुनौती थी. इसे उपजाऊ बनाने के लिए सबसे पहले वहां छोटे-छोटे खेत बनाए जिससे कि बारिश का पानी वहां रुके और जमीन के भीतर जा सके. फिर उसके बाद कुछ पालतू जानवरों को भी वहां छोड़ा जिससे कि उनके मल से उस जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ सके.
उसके बाद स्थानीय पौधे और घास के बीज रोपे लेकिन उनमें पानी देने के लिए 2 किमी का सफर करके पानी लाना पड़ता था. फिर पानी को संचयित करने के लिए उन्होंने उस जमीन में छोटे-छोटे गड्ढे बनाए. जिससे कि बारिश का पानी वहां इकट्ठा हो और जमीन में नमी बनी रहे. तब धीरे-धीरे ये योजना सफल होने लगी और पौधे बड़े होने लगे. जिसको देख गांव वालों ने भी उनका साथ देना शुरू कर दिया और किसी न किसी रूप से उनकी इस काम में मदद की. एक व्यक्ति बीते 18 सालों से उनके साथ इस काम में उनकी मदद कर रहा है.
इस जंगल से लोगों को रोजगार का जरिया भी मिला.
शिल्पकारों को यहां मिलता है ‘रिंगाल’
वह कहते हैं कि जीविका का कोई साधन नहीं था. इसलिए आय के स्त्रोत बनाने के लिए जंगल में कई तरह के औषधीय पौधे लगाने शुरू किए. यहां 100 से भी ज्यादा प्रकार की प्रजातियों के पौधे लगे हुए हैं. जैसे बांस, काफल, भोजपत्र, भंगू और केत आदि के पेड़ लगे हुए हैं. औषधीय पौधों में कुटकी, तेजपात और ब्राम्ही आदि कई पौधे लगाए गए हैं. यहां 15 प्रकार के बांस उगाए गए हैं. जिनमें से एक चाइना में पैदा होने वाले दुर्लभ प्रजाति के बांस को भी लगाया गया है.
यहां उन्होंने ‘रिंगाल’ की झाड़ियां भी लगाई हैं. रिंगाल एक विशेष तरह की झाड़ी होती है जिससे कि टोकरी, चटाई और कई तरह की हस्तकला के प्रोडक्ट बनाए जाते हैं. जिससे गांव के लोगों को भी रोजगार मिलता है. इससे कुटीर उद्योग के जरिए हाथों से बने प्रोडक्ट को लोग मार्केट में बेचकर पैसे कमाते हैं. इस जंगल से महिलाओं को जलावन लकड़ी और पशुओं के लिए चारा भी मिल जाता है. साथ ही इस जंगल की जमीन पर ही कई तरह की दालें और हल्दी जैसे कई मसाले भी उगाये जाते हैं.
जंगल में कई जानवर भी हैं
वह बताते हैं कि कई बार जब आस-पास के जंगलों में किसी कारण से आग लग जाती है. तो उससे जंगल का तापमान बढ़ जाता है और जानवर पलायन करने लगते हैं. कई जानवर उनके जंगल में आ जाते हैं. कई जानवर इस तरह आकर उनके जंगल में ही बस गए हैं. जिसमें चीता, भालू, तेंदुआ, हिरण ऐसे कई जानवर हैं. उनके जंगल लगाने से मृदा का क्षरण होना बंद हुआ, जिससे की वहां पानी जमा होने लगा और उससे जंगल में पानी के सूखे स्त्रोत वापस पनप गए. उन्होंने पानी रोकने के लिए भी व्यवस्थाएं कीं. जिससे कि जंगल में पौधों और जानवरों को भी पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध हो जाता है.
जंगल देखने के लिए देश-विदेश से लोग आते हैं.
जंगल में शोध करने विदेशों से आए लोग
उनके इस जंगल के बारे में लोगों को धीरे-धीरे पता लगना शुरू हुआ. लेकिन जब देश भर में इसकी चर्चा हुई तो दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे बड़े-बड़े शिक्षण संस्थानों से लोग उनके जंगल में शोध के लिए आने लगे. उनके जंगल में स्कूली बच्चे और कई पीएचडी स्कॉलर उनसे पर्यावरण की जानकारी लेने के लिए आते हैं. जिसके चलते उनके जंगल को देखने अब तक लगभग 10 लाख लोग आ चुके हैं. उनके जंगल में रिसर्च करने के लिए अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड जैसे देशों से भी लोग आ चुके हैं.
पिता की राह पर देवराघवेंद्र
73 साल के जगत सिंह की 3 बेटियां और एक बेटा है. उनके बेटे देवराघवेंद्र अपने पिता के काम को आगे बढ़ा रहे हैं. देवराघवेंद्र बताते हैं कि वह पिताजी के लगाए पेड़-पौधों के बीच खेलकर ही बड़े हुए हैं. इस वजह से मुझे बचपन से ही जंगलों से खास लगाव रहा है. यही कारण है कि गढ़वाल विश्वविद्यालय से 2014 में पर्यावरण में विज्ञान से एमएससी करने के बाद अपने पिताजी के काम को आगे बढ़ाने का फैसला किया.
मिश्रित वन लगाने की सलाह देते हैं
जगत सिंह चौधरी कहते हैं कि प्रकृति एक व्यक्ति की नहीं है, बल्कि यह अनमोल धरोहर सब की है. इसलिए इसे बचाने का उत्तरदायित्व यहां रहने वाले हर एक प्राणी का है. इसलिए किसी न किसी तरीके से पर्यावरण को बचाने के लिए हर व्यक्ति को अपना योगदान देना चाहिए. आज के दौर में जब पर्यावरण को बचाने के लिए लोग आवाज बुलंद कर रहे हैं, तब हमें उन प्रयासों के परिणामों पर ध्यान देने की जरूरत है. क्योंकि कई लोग पौधरोपण करते हैं और भी कई गतिविधियां करते हैं, लेकिन वह किस हद तक कारगर साबित हो रही हैं. उससे सकारात्मक परिणाम आ रहे हैं या नहीं इस ओर ध्यान देने की जरूरत है. हम पौधरोपण तो कर रहे हैं यदि हम मिश्रित वन लगाएंगे तो जैव विविधता के साथ-साथ हमें आर्थिक और सामाजिक रूप से भी मदद मिलेगी. आज के दौर में पर्यावरण के कई मुद्दे चरम पर हैं. मृदा के क्षरण की समस्या का समाधान करने के लिए व्यापक स्तर पर प्रयास करने की जरूरत है.
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