Opinion: INDIA को नेता नहीं भंग कर देने की जरूरत- 5 कारण
Opinion: INDIA को नेता नहीं भंग कर देने की जरूरत- 5 कारण
Opinion:ममता ने कहा कि अगर उन्हें मौका मिला तो वह INDIA का नेतृत्व करने के लिए तैयार हैं. ममता के बयान के बाद INDIA नाम के गठबंधन में एक बार फिर नेता का मुद्दा गरमा गया.
नई दिल्ली: INDIA नाम के गठबंधन में इन दिनों एक बार फिर नेता का मुद्दा गरमाया हुआ है. ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के एक बयान के बाद यह मुद्दा गरमाया हुआ है. ममता ने कहा कि अगर उन्हें मौका मिला तो वह INDIA का नेतृत्व करने के लिए तैयार हैं. पर सवाल है कि INDIA है क्या? और जो कोई भी इसका नेता बनेगा वह किसका नेतृत्व करेगा? उससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या INDIA की अब जरूरत भी है? मेरी राय में अब इस गठबंधन को किसी नेता की नहीं, बल्कि भंग कर देने की जरूरत है. मेरी समझ से इसके पांच कारण ये हैं:
1. INDIA केवल लोकसभा चुनाव के मद्देनजर की गई पहल थी, जो अभी तक एक ठोस दिशा नहीं पकड़ सकी है
याद कीजिए INDIA क्यों बना था और इसके लिए प्रमुखता से पहल किसने की थी? INDIA जून 2023 में बना था. मकसद था- बीजेपी हटाओ, देश बचाओ. लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी गठबंधन का मुकाबला करने के लिए विपक्ष ने एक होने का फैसला किया. अच्छी पहल थी, लेकिन ठोस पहल नहीं बन सकी. न मजबूत नेतृत्व और न ही ठोस नीति. साथ ही, इसमें शामिल दलों के हितों का आपसी टकराव शुरू से अब तक खत्म नहीं हो पा रहा है.
यह गठबंधन लोकसभा चुनाव के मद्देनजर एक प्रयोग के तौर पर बना था. इसकी सफलता-असफलता चुनाव नतीजों के साथ ही साबित हो गई. जिसने प्रमुखता से इसकी पहल की थी, वह नीतीश कुमार तो लोकसभा चुनाव से पहले ही उस खेमे के हो गए थे, जिसका मुकाबला करने के लिए वह इसे बनवाना चाहते थे. नीतीश कुमार के NDA में चले जाने के बाद बचे दलों ने एक तरह से कांग्रेस की अगुआई में यह प्रयोग जारी रखने का फैसला किया. लेकिन, कांग्रेस की ओर से मजबूती से इसे नेतृत्व नहीं दिया जा सका. नतीजा रहा कि सबके हित टकराते रहे. तमाम सहमतियों और असहमतियों के साथ INDIA ने लोकसभा चुनाव लड़ा. इस दौरान इसके सदस्यों में अपने-अपने राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए बड़े टकराव हुए. फिर भी गठबंधन को उतनी सफलता मिल गई, जिससे उसका नैतिक मनोबल बना रहे. लेकिन इसका फायदा गठबंधन को मजबूत करने के लिए नहीं उठाया गया. उल्टे लोकसभा में भी तमाम मुद्दों पर इनके बीच एकता नहीं बन पा रही है.
डेढ़ साल बाद भी जो गठबंधन एक निश्चित दिशा नहीं ले सका हो, उसे ढोना मेरे हिसाब से कतई उचित नहीं है.
2. सत्ता से बाहर रह कर क्षेत्रीय दलों के साथ राष्ट्रीय गठबंधन चलाना लगभग असंभव
लोकसभा चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए ऐसे रहे कि अब वह अधिकारपूर्वक INDIA का नेतृत्व अपने हाथों में लेकर गठबंधन की अगुआई कर सकती थी. लेकिन, कांग्रेस की ओर से ऐसी कोई मजबूत पहल नहीं दिखी. नाम के लिए गठबंधन बना रहा. राज्यों के विधानसभा चुनावों में INDIA का हिस्सा होते हुए भी पार्टियों ने अपनी क्षेत्रीय जरूरत को सर्वोपरि रखते हुए फैसले लिए. सदस्य पार्टियों को जहां लगा एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव मैदान में भी उतरीं. इन चुनावों में INDIA की प्रासंगिकता कम होती गई.
क्षेत्रीय पार्टियों की बहुलता और अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग क्षेत्रीय पार्टियों की प्रधानता के चलते भी इस तरह के गठबंधन को लंबे समय तक चला पाना मुश्किल हो जाता है. चुनावी हार और सत्ता से बाहर होने की स्थिति में तो ऐसे गठबंधन को संभालना लगभग असंभव ही हो जाता है. महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी (सपा) का महा विकास अघाड़ी (एमवीए) से अलग होना इसका सबसे ताजा उदाहरण है.
महाराष्ट्र की स्थिति को थोड़ी गहराई से देखें तो साफ लगता है कि शिवसेना को लगने लगा है कि मूल चरित्र (कट्टर हिंदूवादी) से अलग हटना उसे भारी पड़ रहा है. उद्धव ठाकरे के करीबी नेता के जिस सोशल मीडिया पोस्ट को आधार बना कर सपा ने उससे संबंध तोड़ा है, वह पोस्ट शिवसेना की वैचारिक ‘घर वापसी’ का संकेत माना जा सकता है.
मूल चरित्र से भटकने का अंतिम परिणाम किसी भी पार्टी के लिए सकारात्मक होने की संभावना नहीं ही रहती है. यह सकारात्मक तभी हो सकता है जब आप किसी न किसी रूप में अपने समर्थकों को इसके पीछे की वजह का यकीन दिला सकें और वे आपकी दलील पर यकीन कर लें. साथ ही, आप बदली हुई विचारधारा के साथ नए समर्थकों को अपने साथ जोड़ सकें. कांग्रेस खुद इसका अंजाम भुगत रही है. भाजपा की कथित सांप्रदायिक व कट्टर हिंदूवादी राजनीति की काट के चक्कर में कांग्रेस भी कैसे नरम हिंदुत्व की राह पर चल पड़ी, शायद उसे अंदाज ही नहीं रहा.
इन बातों के जिक्र का मकसद केवल यह बताना है कि क्षेत्रीय पार्टियों के अपने हित हैं और उन्हें छोड़े बिना क्षेत्रीय स्तर पर एक राष्ट्रीय गठबंधन के जरिए सत्ताधारी गठबंधन का मुकाबला कर पाना आसान नहीं है.
3. डेढ़ साल में भी सर्वमान्य और मजबूत नेतृत्व नहीं बन पाना
INDIA का कमजोर पड़ते जाना नितांत स्वाभाविक प्रक्रिया है. इतने सारे क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी में वैसे ही हितों का जबरदस्त टकराव होता है. इस पर किसी ठोस नेतृत्व का नहीं होना करेले पर नीम चढ़ने जैसा हो जाता है. ठोस नेतृत्व के अभाव में कोई गठबंधन या संगठन अपना अस्तित्व भला कैसे बचाए रख सकता है!
4. ममता के नेतृत्व से भी INDIA की मजबूती की उम्मीद नहीं
लोकसभा चुनाव के वक्त सबसे बड़ी और पुरानी विपक्षी पार्टी होने के नाते कांग्रेस को INDIA का नेतृत्व सौंपा गया. अब ममता की बात उठी है. लेकिन, शुरू से अब तक ममता और उनकी पार्टी ने INDIA को लेकर जो रवैया दिखाया है, वह गठबंधन या नेतृत्व के प्रति सम्मानजनक नहीं कहा जा सकता. आज भी उनका यह रवैया बहुत बदला नहीं है. फिर सवाल यह भी है कि गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस भला ममता का नेतृत्व स्वीकार कर सकेगी? जो नेता ममता की नेतृत्व क्षमता का हवाला देकर उनका समर्थन कर रहे हैं, उनकी राय जमीनी हालात पर आधारित है या कांग्रेस विरोध पर?
5. नेता से ज्यादा नीति की जरूरत
INDIA गठबंधन को आज नेता से ज्यादा नीति की जरूरत है. यह नीति हरेक राज्य में एक सी नहीं हो सकती. राष्ट्रीय स्तर पर भी हरेक पार्टी अपनी क्षेत्रीय जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ही नीति बनाती है. ऐसे में अब जब लोकसभा चुनाव नहीं हैं तो सभी पार्टियों का एक समान नीति पर सहमत होना भी आसान नहीं रह गया है. अदाणी मसले पर विरोध की कांग्रेस की नीति INDIA के कई सदस्यों को रास नहीं आ रही है. मतलब सर्वमान्य नीति बनने के आसार नहीं हैं. ऐसे में बेहतर है कि राष्ट्रीय स्तर पर किसी बंधन से मुक्त रहते हुए राज्य स्तर पर स्थानीय जरूरतों के हिसाब से सहमति बना कर विरोधी पार्टी का मुकाबला किया जाए.
Tags: Mamta Banerjee, Opposition political parties, Rahul gandhiFIRST PUBLISHED : December 9, 2024, 11:49 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed