मेजर जनरल राजेंद्र सिंह की अनसुनी शौर्य गाथा जानिए कैसे बन गए सेना चीफ से कश्मीर के रक्षक
मेजर जनरल राजेंद्र सिंह की अनसुनी शौर्य गाथा जानिए कैसे बन गए सेना चीफ से कश्मीर के रक्षक
ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह, का जन्म 14 जनवरी 1889 को जम्मू शहर के बगूना गांव में हुआ था. इनके पिता सूबेदार लखा सिंह, जो जम्मू-कश्मीर की सेना में नौकरी करते थे और राजेंद्र के दादा जी ने भी सेना में अपनी सेवा दी थी. यहीं से वीरता और शहादत राजेंद्र सिंह के खून में आई. पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अपने परिवार की सेना में भर्ती होने की परंपरा को आगे बढ़ाने का फैसला किया, और उन्हें 14 जून 1921 को जम्मू-कश्मीर सशस्त्र बल में कमीशन मिला. मई 1942 में वह ब्रिगेडियर के पद तक पहुंच गए और 25 सितंबर 1947 को जम्मू-कश्मीर बलों के चीफ ऑफ स्टाफ बन गए.
श्रीनगर. भारत के पहले महावीर चक्र से नवाजे जाने वाले ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह की शौर्य गाथ वीरता और साहस से भरी है. हर भारतीय को उनके बल और साहस के बारे में जानना चाहिए. राजेंद्र सिंह जम्मू-कश्मीर सेना के इकलौते ऐसे आर्मी चीफ थे जिन्होंने खुद युद्ध भूमि में अपनी वीरता का परचम लहराया. भारतीय सैनिकों का कहना है कि अगर राजेंद्र सिंह युद्ध में नहीं होते तो जम्मू- कश्मीर का इतिहास कुछ और होता. आप उनकी वीरता का अंदाजा इस बात से भी लगा सकते है कि लोग उन्हें सेवियर ऑफ कश्मीर के रूप में याद करते है यानी कश्मीर का रक्षक. 6 सितंबर 1965 यानी आज ही के दिन मेजर जनरल राजेंद्र सिंह ने सियालकोट सेक्टर में दुश्मन के खिलाफ ऑपरेशन की कमान संभाली और अपनी वीरता और साहस के कारण वह महावीर चक्र से सम्मानित हुए.
ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह, का जन्म 14 जनवरी 1889 को जम्मू शहर के बगूना गांव में हुआ था. इनके पिता सूबेदार लखा सिंह, जो जम्मू-कश्मीर की सेना में नौकरी करते थे और राजेंद्र के दादा जी ने भी सेना में अपनी सेवा दी थी. यहीं से वीरता और शहादत राजेंद्र सिंह के खून में आई. पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अपने परिवार की सेना में भर्ती होने की परंपरा को आगे बढ़ाने का फैसला किया, और उन्हें 14 जून 1921 को जम्मू-कश्मीर सशस्त्र बल में कमीशन मिला. मई 1942 में वह ब्रिगेडियर के पद तक पहुंच गए और 25 सितंबर 1947 को जम्मू-कश्मीर बलों के चीफ ऑफ स्टाफ बन गए.
भारत अंग्रेजो से आजाद तो हुआ लेकिन देश के बटवारे ने दंगा- फसाद और बढ़ा दिया था. सांप्रदायिकता की आग ने जम्मू-कश्मीर को भी अपनी लपटों में ले लिया. धर्म के आधार पर भारी संख्या में लोग पाकिस्तान की ओर पलायन कर रहे थे और पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी प्रांत से सिख और हिन्दू भारी संख्या में जम्मू में दाखिल हो रहे थे. राज्य के हालात बिगड़ रहे थे. बटवारे के बाद जम्मू-कश्मीर ने अपना कोई फैसला नहीं लिया था कि उसे किस देश में जाना है, वह स्वतंत्र रहना चाहता था लेकिन पाकिस्तानियों की नजर कश्मीर पर टिकी थी. वह कैसे भी करके अपने साथ उसे जोड़ने का प्लान बना रहा था.
पाकिस्तानियों को लगता था कि जम्मू-कश्मीर में अधिकतर मुस्लिम धर्म के लोग है इसलिए वह पाकिस्तान के साथ आ जाएगा लेकिन उसकी ये सोच गलत थी, वास्तव में वहां की जनता राजा हरी सिंह के साथ थी. पाकिस्तान को आभास हुआ की जम्मू-कश्मीर को जोड़ना मुश्किल है, जिस वजह से उसने जम्मू-कश्मीर को आर्थिक रूप से कमजोर करने का प्लान बनाया क्योंकि राज्य की रोजमर्रा जिंदगी बहुत हद तक पाकिस्तान के भूभाग पर निर्भर थी. पाकिस्तान ने रेल यातायात और कारोबार पर प्रतिबंध लगा दिया जिस वजह से राज्य आर्थिक रूप से कमजोर हो गया.
अक्टूबर 1947 में, पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम सीमांत से आदिवासियों की एक बड़ी सेना पश्चिमी जम्मू और झेलम घाटी में घुसपैठ करने पहुंच गई थी, इसका उद्देश्य श्रीनगर पर कब्जा करना था. पाकिस्तान की सेनाओं ने इस ऑपरेशन का नाम ‘गुलमर्ग’ रखा था. 22 अक्टूबर, महाराजा को पाकिस्तानी सेना के घुसपैठ की सूचना मिली. स्टैंड स्टील समझौता अधर में लटकने की वजह से भारत ये नहीं समझ पा रहा था की वह जम्मू-कश्मीर की कैसे मदद करे, लेकिन फिर भी भारत के वीर सैनिक आपदा से लड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार थे.
जब राज्य के मुजफ्फराबाद में हमला हुआ तो महाराजा हरी सिंह ने फैसला किया कि वे खुद मोर्चे पर जाएंगे लेकिन ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह ने उन्हें बताया कि ‘मैं सेना प्रमुख हूं,’ राज्य की सुरक्षा की जिम्मेदारी मुझे सौपी गई है, जिसके बाद राज्य जम्मू-कश्मीर को बचाने के लिए वे खुद युद्ध के मैदान में उतर गए और महाराजा हरी सिंह को सुझाव दिया कि वह श्रीनगर में रह कर भारत के साथ विलय पर अपनी बातचीत को तेज करें. महाराजा हरी सिंह ने भारत के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल से फोन पर बातचीत कर राज्य के हालात को बताया लेकिन भारत ने एक बार फिर विलय को लेकर अपनी बात दोहराई, हरी सिंह के पास कोई और तरीका नहीं रह गया था और उन्होंने भारत के साथ विलय होने में अपनी मंजूरी दी.
भारत से तुरंत सैनिक जम्मू-कश्मीर की ओर कूच करने लगे और उधर ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह उरी में अपनी सेना को इक्कठा कर पाकिस्तानी सेना को रोकने की कोशिश में थे, लेकिन उनके पास मुट्ठीभर सैनिक ही थी, पर्याप्त गोला-बारूद और हथियार तक नहीं था, इसके बावजूद भी उन्होंने पहले हमले में पाकिस्तानी सेना को भारी नुकसान पहुंचाया, लेकिन इतनी देर तक बड़े तादात में बढ़ रहे पाकिस्तानी सैनिकों को रोकना काफी मुश्किल था इसलिए उन्होंने उरी के पूल को ही ध्वस्त कर दिया और उनकी ये रणनीति सफल भी रही.
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भारतीय सेना के श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतरने से छह घंटे पहले ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह पर 26/27 अक्टूबर 1947 की रात उनपर घात लगाकर हमला किया गया था. उरी पुल का नष्ट हो जाना एक मास्टर स्ट्रोक था जिसने अंततः कश्मीर को बचाया, इस कार्रवाई के लिए ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को ‘कश्मीर का रक्षक’ के रूप में जाना है और उन्हें स्वतंत्र भारत के पहले वीरता पुरस्कार ‘महावीर चक्र’ (मरणोपरांत) से सम्मानित किया गया.
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Tags: Jammu and kashmir, Jawaharlal Nehru, Military operation, Sardar Vallabhbhai PatelFIRST PUBLISHED : September 06, 2022, 19:05 IST