इस नवाब की रसोई में थे 100 खानसामा खाने पर हर महीने होता था 1करोड़ का खर्च
इस नवाब की रसोई में थे 100 खानसामा खाने पर हर महीने होता था 1करोड़ का खर्च
आजादी से पहले एक ऐसी रियासत भी थी, जिसके ठाटबाट तो निराले थे ही. खाने का भी स्टाइल था. मुख्य महल में तीन बड़ी किचन, हर किचन में अलग खुशबू उड़ती रहती थी. लेकिन इसके खर्च के बारे में सुनकर आपके भी होश उड़ जाएंगे.
हाइलाइट्स नवाब ने अपने एक खानसामा को ट्रेनिंग के लिए पेरिस और लंदन भेजा तीन अलग किचन में देसी, अंग्रेजी और स्वीट्स के पकवान तैयार होते थे रोज का खास मेनू तैयार होता, बहुत सी चीजें यूरोप से मंगवाई जाती थीं
आजादी के पहले राजा महाराजाओं और नवाबों के खानपान पर बहुत कुछ लिखा और कहा गया है. कुछ रजवाड़ों और नवाबों की किचन वाकई लाजवाब थी. वो लंबी चौड़ी हुआ करती थीं. उनका स्टाफ ही बड़ा नहीं होता था बल्कि उनका खानपान भी खास होता था. भारत के बहुत से खास व्यंजन तो राजशाही दस्तरख्वान से निकले. हालांकि हम जिस नवाब की बात कर रहे हैं, वो हर महीने किचन पर जितना पैसा उड़ा देते थे, वो तो सच आज भी बड़े से बड़े धनी लोग नहीं करते होंगे.
ये नवाब हैं रामपुर के. कहा जाता है कि जितना बड़ा किचन स्टाफ और कुक इनके यहां होते थे, वैसी रौनक बहुत कम राजा-महाराजाओं की शाही रसोई में होती थी. वैसे ये कहा जाता है कि इन सारे राजा-महाराजाओं के रसोई या दस्तरख्वान केवल खाना या तरह तरह के व्यंजन ही पकाते थे बल्कि यहां पर खाने, मसालों, मिठाइयों को लेकर रिसर्च भी चलती रहती थी. इसी वजह से हमारे रजवाड़ों के किचन ना जाने कितने व्यंजन निकले.
परप्लेक्सिटी एआई की रिसर्च के अनुसार. रामपुर के नवाबों ने अपने महल में बड़ी संख्या में रसोई कर्मचारियों को नियुक्त किया था, जो समय के साथ धीरे-धीरे कम होते गए.
– नवाब सैय्यद हामिद अली खान (1894-1930) के शासनकाल के दौरान महल की रसोई में लगभग 100 रसोइये काम करते थे.
– उनके बेटे नवाब सैय्यद रज़ा अली खान (1930-1949) ने रसोई स्टाफ को घटाकर 30 रसोइयों और कई सहायक रसोइयों तक कर दिया.
– हालांकि बाद में उनकी संख्या और भी कम होती चली गई. अब तो ये संख्या उतनी भी शायद हो, जितनी देश के अमीरों के घरों में होती होगी.
– 1971 में प्रिवी पर्स की समाप्ति और संपत्तियों पर अदालती मामलों के बाद, नकदी की कमी से जूझ रहे शाही परिवार को बहुत कम रसोई कर्मचारियों से काम चलाना पड़ा और वे मुश्किल से विशाल महलों का रखरखाव कर सके. 1950 के दशक में रामपुर के नवाब सैयद रजा अली खान के साथ खासबाग महल में सजा हुआ दस्तरख्वान (courtesy – book deg to dastarkhwan tarana husain khan)
रसोईघर कितनी तरह के
रामपुर महल में किचन तीन हिस्सों में बंटा था और हर हिस्सा ही काफी बड़ा था. इसमें अलग अलग एक्सपर्टीज वाले कुक काम करते थे.
ये तीन तरह रसोईघर थे – अंग्रेजी, भारतीय और मिठाइयों से संबंधित. ये तीनों किचन रामपुर नवाब के खासबाग पैलेस में थे. हर किचन का हेड एक मुख्य रसोइया होता था. उसकी मदद के लिए रसोइयों, सहायक रसोइयों, ट्रेनी और हेल्पर की टीम होती थी.
खानसामा और रसोई कर्मचारी सभी पुरुष थे. ये स्टाफ हमेशा सफेद कुर्ता-पायजामा, नेवी ब्लू बंदगला कोट में होता था. हालांकि ओहदों के हिसाब से पोशाक कुछ बदल जाती थी
आखिर में जो शाही खानसामा यहां बचे, उनका नाम माजिद भाई था, जो 1966 में अपने पिता, जो मुख्य अंग्रेजी रसोई के शेफ थे, उनके साथ ट्रेनी के तौर पर शामिल हुए थे.
रामपुर, अलीगढ़ और बरेली में बचपन बितानी वाली तराना हुसैन खान अब इंग्लैंड की शैफील्ड यूनिवर्सिटी में एक रिसर्च फैलोशिप पर काम कर रही हैं. उन्होंने पिछले दिनों रामपुर महल में बनने वाले खाने पर एक किताब लिखी, जिसका नाम है “देग टू दस्तरख्वान”. इसमें उन्होंने लिखा , रामपुर नवाब के महल में रसोई कर्मचारियों की संख्या नवाब हामिद अली खान के समय के लगभग 100 रसोइयों से घटकर 1970 के दशक तक केवल मुट्ठी भर रह गई. रामपुर का खासबाग महल, जहां खानपान की नई रवायतें गढ़ी गईं और ये काफी प्रसिद्ध हुईं. (courtesy british librery)
नवाब ने खानसामा को ट्रेनिंग के लिए लंदन और पेरिस भेजा
जब देश में अंग्रेजी खाने के बारे में लोग जानते भी नहीं थे. तभी 1889 के आसपास नवाब सैयद हामिद अली खान ने अपने एक किचन का एक हिस्सा अंग्रेजी रसोई के तौर पर शुरू कर दिया. अंग्रेजी खाना कैसे बनना शुरू हुआ, इसका भी एक किस्सा है, 1889-90 की प्रशासनिक रिपोर्ट के अनुसार, नवाबों ने अपने खानसामा इरशाद खान को खासतौर पर पेरिस और लंदन ट्रेनिंग के लिए भेजा.
जब वह लौटकर आए तो उन्होंने दूसरे खानसामों को ट्रेंड किया. फिर तो इस रसोई ऐसे ऐसे अंग्रेजी और फ्रांसीसी व्यंजन बनने लगे कि अंग्रेज या कोई यूरोपीयन भी दावत पर आता था तो इन्हे खाकर चकित हो जाता था. तब रामपुर पैलेस में अंग्रेजी व्यंजन दैनिक भोजन का हिस्सा बन गए. सभी बेहतरीन यूरोपीय खाने टेबल की शोभा बढ़ाते थे.
बाद में इस खानसामा ने 1954 में रामपुर में रेनबो बेकरी शुरू की, जो अब भी डेनिश कुकीज के लिए फेमस है. उनका परिवार अब इसको चलाता है. रामपुर के महल में बनाए जाने वाले खास रामपुरी कवाब नरगिसी. इसका स्वाद और लज्जत अलग ही थी. ये परंपरागत रामपुरी स्टाइल में बनाए जाते थे. (courtesy – book deg to dastkhwan tarana hussain khan)
कहां से आती बनती थीं अंग्रेजी खाने की चीजें
– क्वेकर ओट्स का अंग्रेजी नाश्ता, जूस, अंडे, अरब सागर से आई ताज़ी मछली
– इंग्लैंड से जैम
– स्विट्जरलैंड से पनीर
– सूप, कटलेट और रोस्ट
– दोपहर के समय भुना और सलाद भोजन
– आयरिश स्टू को तले हुए प्याज के साथ तड़का लगाया गया था
– भारतीय मसालों को रामपुरी स्वाद के अनुरूप चॉप्स, स्टू और रोस्ट में जोड़ा गया
– अंग्रेजी कस्टर्ड और पुडिंग को मीठा बनाया गया
– नवाब सैयद रज़ा अली खान भी हल्का अंग्रेजी लंच करते थे. रात के खाने में ज्यादातर भारतीय व्यंजन शामिल होते थे.
इन खानों ने बरेली और रामपुर के साथ आसपास के इलाकों में एक अंग्रेजीदां मिश्रित खानों का प्रचलन भी शुरू किया.
कितना होता था तब किचन पर खर्च
नवाब की बेटी मेहरुन्निसा बेगम ने अपने संस्मरण में लिखा, नवाब सैयद हामिद अली खान का प्रति वर्ष रसोई खर्च भारतीय रसोई पर 250,000 रुपये और अंग्रेजी रसोई पर 1,50,000 रुपये था. मौजूदा समय में ये भारतीय रसोई पर करीब 8.3 करोड़ रुपये और अंग्रेजी रसोई पर 4.5 करोड़ रुपये सालाना बैठता. यानि दोनों किचन के खर्च को जोड़ दें तो हर महीने तकरीबन 1 करोड़ रुपए से कुछ ज्यादा.
कौन तय करता था मेनू
घर की महिलाएं ही मेनू तय करती थीं. इसमें कुछ ऐसे नियमित व्यंजन थे जिन्हें नौकरों के लिए बड़ी मात्रा में रखना पड़ता था. अंग्रेजी व्यंजन या अंग्रेजी व्यंजनों के भारतीय संस्करण रोज परोसे जाते थे.
Tags: Food, Food Stories, Prayagraj cuisine, Rampur news, Royal TraditionsFIRST PUBLISHED : July 12, 2024, 14:31 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed