शुरू में नेहरू को पसंद नहीं करते थे स्तालिन तो कैसे हुई रूस-भारत की दोस्ती

जिस समय भारत 1947 में आजाद हुआ, तब सोवियत संघ (तब ये देश रूस और कई गणराज्यों को मिलाकर बना था) के राष्ट्रपति स्तालिन नेहरू और गांधी के बारे में अच्छी धारणा नहीं रखते थे. उनकी इस सोच को भारत के ही एक नेता ने बदला.

शुरू में नेहरू को पसंद नहीं करते थे स्तालिन तो कैसे हुई रूस-भारत की दोस्ती
हाइलाइट्स जब विजय लक्ष्मी पंडित को पहला राजदूत बनाकर मास्को भेजा गया तो स्तालिन उनसे मिले ही नहीं तब सर्वपल्ली राधाकृष्णन को वहां भेजा गया और उन्होंने स्तालिन को अपना मुरीद बना लिया ये राधाकृष्ण ही थे जिन्होंने नेहरू के प्रति स्तालिन की धारणा को बदला भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रूस की दो दिवसीय यात्रा पर हैं. कई दशकों से रूस हमारा सच्चा दोस्त है. दोनों देशों की दोस्ती को दुनिया में एक मिसाल के तौर पर देखा जाता है. लेकिन दोनों देशों के बीच ये संबंध बनते बनते समय लगा. 1960 के दशक में जब स्तालिन के बाद ख्रुश्चेव ने गद्दी संभाली तो उन्होंने बेहतर संबंधों के लिए प्राथमिकता में भारत को हमेशा चीन से आगे रखा. वैसे ये जानना रोचक है कि कैसे स्तालिन को आजाद भारत साम्राज्यवादी शक्तियों की कठपुतली लगता था. वह नेहरू और गांधी को भी ब्रितानियों का सहयोगी मानते थे. कैसे बाद में राष्ट्रपति बने राधाकृष्णन ने इसको सिरे से बदल दिया. एक शिक्षाविद के रूप में सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन की ख्याति तो थी ही साथ ही उन्हें एक दार्शनिक तौर पर भी विदेशों में खूब सराहा गया. वह एक राजनयिक के रूप में पैने और चतुर थे. माना जाता है कि इस मामले में वह चाणक्य परंपरा का अनुसरण करते थे. उन्हें मालूम था कब, कहां क्या करना है. सोवियत संघ में जब उन्हें राजदूत बनाकर भेजा गया तो उन्होंने भारत के खिलाफ बह रही उल्टी हवा को बदलने का काम बखूबी किया. रूस में लंबे समय तक रहे अशोक कपूर ने अपनी किताब ”द डिप्लोमेटिक आइडियाज एंड प्रैक्टिसेस ऑफ एशियन स्टेट्स” में लिखा है कि वर्ष 1950 में राधाकृष्णन को मास्को में राजदूत के रूप में भेजा गया तो उनका काम बहुत मुश्किल था. स्तालिन नहीं रखते थे अच्छी राय सोवियत संघ और तत्कालीन राष्ट्रपति जोसेफ स्तालिन भारत के बारे में बहुत अच्छी राय नहीं रखते थे. ये वो दौर था, जब दोनों देशों के बीच संबंधों में कोई प्रगाढ़ता नहीं थी, बल्कि कहना चाहिए कि संबंध थे ही नहीं. मास्को में भारत की छवि नकारात्मक बनी हुई थी. उन्हें लगता था कि आजादी के बाद भी भारत साम्राज्यवादी ताकतों के हाथों में खेल रहा है. मास्को के अखबार भारत को साम्राज्यवादियों का पिछलग्गू मानकर खबरें लिखते थे. वर्ष 1950 में डॉ राधाकृष्णन को सोवियत संघ का राजदूत बनाकर भेजा गया. पहली राजदूत विजय लक्ष्मी पंडित वहां नाकाम हो चुकी थीं. स्तालिन के दिमाग में नेहरू और भारत की इमेज अच्छी नहीं थी, वह अब भी इस देश को साम्राज्यवादी ताकतों का पिछलग्गू मानते थे. (फाइल फोटो) विजयलक्ष्मी कुछ नहीं कर सकीं थी भारत ने विजयलक्ष्मी पंडित को आजादी के बाद सोवियत संघ में अपना पहला राजदूत बनाकर भेजा. उन्होंने स्तालिन से कई बार मिलने की कोशिश की, लेकिन उन्हें अनुमति ही नहीं दी गई. स्टालिन उन्हें एरोगेंट और कुछ ज्यादा ही अभिजात्य मानते थे. लिहाजा विजयलक्ष्मी पंडित दो साल तक मास्को में केवल भारतीय दूतावास तक सीमित रहीं. नतीजतन वह दो साल बाद ही वहां से बैरंग लौट आईं. लोगों का मानना है कि स्तालिन उनसे नाखुश ही रहा. मुश्किल काम ऐसी स्थिति में समझा जा सकता है कि कि जब राधाकृष्णन को विजयलक्ष्मी की जगह मास्को भेजा गया होगा तो उनके सामने कितनी बड़ी चुनौती रही होगी. मास्को से जाने से पहले राधाकृष्ण संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत थे. अब उन्हें स्तालिन को साधना था, जो बहुत मूडी भी था. और दिमाग मेें अगर कोई धारणा बिठा ली तो जल्दी उससे बाहर भी नहीं निकलते थे. उन्होंने उन्होंने भारत और नेहरू के खिलाफ एक नकारात्मक धारणा बिठाई हुई थी. प्रोपेगेंडा रात में बस दो घंटे नींद का राधाकृष्णन चालाक शख्स थे. वह फिलास्फर भी थे. उन दिनों रूस में दार्शनिकों को काफी सम्मान दिया जाता था. लिहाजा उन्होंने मास्को में खुद को अलग और खास दिखाने के लिए अपनी इस छवि को भुनाने की कोशिश की. मास्को के राजनयिक सर्किल में उनके बारे में प्रोपेगैंडा फैलाया जाने लगा कि वह रात में केवल दो घंटे सोते हैं. रातभर दर्शन की किताबें लिखने में बिजी रहते हैं. दिन में राजनयिक की भूमिका निभाते हैं.वह रहस्यपूर्ण शख्सियत बन गए स्तालिन पर जादू कर दिया ये प्रचार बहुत काम आया. राधाकृष्णन की एक अलग छवि सोवियत संघ में बनने लगी. जब उन्होंने स्तालिन से मिलने का समय मांगा तो तुरंत समय मिल गया. भारतीय दूतावास के विदेश मंत्रालय को भेजे गए केबल में कहा गया कि पहली मुलाकात बहुत उपयोगी रही, जिसने भारत के बारे में स्टालिन की ढेर सारी धारणाएं बदल दीं. उन्होंने भारत के बारे में फैली भ्रांतियों को दूर किया. आदत के खिलाफ इस मुलाकात में स्टालिन हंसे और अनौपचारिक भी हुए. स्तालिन को लगता था कि भारत में अंग्रेजी भाषा का राज चलता है. उन्होंने पूछा-आपके यहां कौन सी भाषा में काम होता है. राधाकृष्णन ने चतुराई से जवाब दिया कि देश की सबसे लोकप्रिय भाषा हिन्दी है. इस पर सोवियत प्रमुख खुश हुआ. अगर राधाकृष्णन का जवाब अंग्रेजी होता तो शायद ये स्टालिन को अच्छा नहीं लगता. सफल टास्क पूरा कर लौटे राधाकृष्णन ने ढाई साल बाद मास्को से कूच किया. उन्हें आठ अप्रैल को वापस भारत लौटना था. इससे महज तीन दिन पहले उन्होंने स्तालिन से मिलने की कोशिश की. समय मिल गया, स्तालिन विदेशी राजदूतों को मिलने के लिए काफी इंतजार कराया करते थे. वह काफी हद तक भारत के बारे में एक अलग तस्वीर स्तालिनmodi के सामने पेश कर चुके थे. साथ ही नेहरू और मास्को भी करीब लाने में सफल रहे थे.अपनी आखिरी मुलाकात में भी उन्होंने भारत के बारे में बची खुची भ्रातियों को दूर किया. और तभी सोवियत संघ ने कश्मीर पर किया था वीटो इसी के चलते सोवियत संघ और भारत इतने करीब आ गए कि 1951 में सोवियत संघ ने भारत के समर्थन में कश्मीर विवाद पर अपनी वीटो शक्ति का प्रयोग किया. बाद में स्तालिन ने ने सर्वपल्ली राधाकृष्णन से कहा कि, “आप और नेहरू दोनों ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें हम अपना दुश्मन नहीं मानते. हमारी दोस्ती की नीति बनी रहेगी. आप हमारी मदद पर भरोसा कर सकते हैं. Tags: India russia, India Russia bilateral relations, Jawaharlal Nehru, PM Modi, Russia, Vladimir PutinFIRST PUBLISHED : July 9, 2024, 12:58 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
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