दास्तान-गो : गुजरात से ‘दूध-गंगा’ बह निकलने की कहानी भी ‘मां गंगा’ जैसी ग़ौर करें!
दास्तान-गो : गुजरात से ‘दूध-गंगा’ बह निकलने की कहानी भी ‘मां गंगा’ जैसी ग़ौर करें!
Daastaan-Go ; Story Of Milk Revolution From Gujarat, India : बढ़ते कारोबार को देखते हुए 1930 तक खेड़ा से कुछ दूर ही आणंद में ‘पोलसन कंपनी’ ने बड़ी और आधुनिक डेयरी खड़ी कर ली. इस सबका मिला-जुला नतीज़ा ये रहा कि ‘पोलसन’ का घमंड अब सातवें आसमान पर पहुंच गया. ये कंपनी किसानों से औने-पौने दाम पर दूध खरीदकर ज़्यादा मुनाफ़ा अब अपनी जेब में रख रही थी. अपना कारोबार बढ़ा रही थी. ऐसे में, परेशान किसानों ने अब ‘पोलसन’ का घमंड ख़ाक में मिलाने का मंसूबा बांध लिया. कपिल-मुनि की तरह. और उनके मंसूबे को पूरा करने में उन्हें साथ मिला, गांधीवादी नेता त्रिभुवनदास किशीभाई पटेल का, जो ‘दूध-गंगा’ के क़िस्से में भागीरथ कहे जाएं. तो बड़ी बात नहीं.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, इस धरती पर ‘मां गंगा’ के आने की जो कहानी है न, ठीक वैसा ही गुजरात से ‘दूध-गंगा’ बह निकलने का क़िस्सा भी है. अभिमान, ध्वंस और फिर उद्धार के सिलसिले वाला. जिन्हें याद न हो या फिर जो जानते ही न हों, उन्हें पहले ‘मां गंगा’ के आने का क़िस्सा बताते चलें. थोड़े में ज़्यादा समझिए. क्योंकि अस्ल दास्तान तो ‘दूध-गंगा’ की कहनी है. तो जनाब, सदियों पहले का वाक़ि’आ है. बल्कि युगों पहले का. भगवान राम के ख़ानदान में ही कुछ पीढ़ी पहले एक राजा हुए, सगर. कहते हैं, उनके 60,001 लड़के थे. इनमें से 60,000 एक रानी से हुए और एक इक़लौता दूसरी से. दो रानियां थीं उनकी. तो ये जो 60,000 लड़के थे न राजा के, उन्हें बड़ा घमंड था अपनी ताक़त पर. लेकिन उनका ये घमंड यूं, चुटकी बजाते ही धूल में मिल गया था. दरअस्ल हुआ यूं कि राजा सगर ने एक बार ‘अश्वमेध यज्ञ’ किया. ये यज्ञ पूरी धरती पर हक़ ज़ताने के लिए किया जाता था. उसमें एक घोड़ा छोड़ते थे. वह जहां भी जाता, वहां की पूरी धरती राजा की हो जाती.
तो जनाब, यज्ञ का घोड़ा छोड़ा गया. इसमें एक क़ायदा ये भी होता था कि अगर कोई यज्ञ का वह घोड़ा पकड़ता, उसे फिर राजा की फ़ौज से मुक़ाबला करना पड़ता था. ये फ़ौज घोड़े के साथ उसके पीछे चला करती थी. सो, इसी क़ायदे को साथ लेकर राजा सगर का घोड़ा भी चला. रास्ते में उसे किसी ने पकड़ने की हिमाक़त न की. बल्कि सभी ने राजा सगर को ही अपना ‘महाराजा’ मानते हुए उस घोड़े को जाने के लिए रास्ता दे दिया. लेकिन देवताओं के राजा इंद्र को पता नहीं क्या खुन्नस सूझी कि उन्होंने इस बनते काम को बिगाड़ दिया. वैसे, इंद्र के बारे में ऐसा कहते हैं कि उन्हें अपने तख़्त-ओ-ताज के छिन जाने का डर हमेशा लगा रहता है. और उस ज़माने में तो बड़े-बड़े राजे-महाराजे धरती जीतने के बाद इंद्र के स्वर्ग पर हमला भी कर दिया करते थे. सो, बहुत मुमकिन है कि ऐसी किसी बात का डर तब इंद्र के मन में राजा सगर के लिए भी रहा हो.
लिहाज़ा इंद्र ने तरकीब निकाली और एक रात जब सभी लोग सोए थे, तभी चुपके से वह घोड़ा चुरा लिया. इसके बाद उसे ले जाकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया और खिसक लिए. इधर, जब राजा सगर के लड़कों की नींद खुली तो उन्हें घोड़ा नहीं दिखा. वे सब उसके साथ ही थे. उन्हें उसे ख़ूब ढूंढा. पूरी धरती में उथल-पुथल मचा दी. तभी, घोड़ा उन्हें कपिल मुनि के आश्रम में बंधा दिखा, तो उन्होंने सीधे महर्षि को ही ललकार दिया. घमंड तो सिर पर चढ़ा ही था. सो, कपिल मुनि को बुरा-भला भी कहने लगे. तब महर्षि ने थोड़ी देर तो उन्हें बर्दाश्त किया, लेकिन फिर उन्हें भी गुस्सा आ गया. उन्होंने अपनी तपस्या के बलबूते चुटकियों में राजा के लड़कों और उनकी फ़ौज को ख़ाक कर दिया. राजा को जब इसका पता चला तो वे दौड़े-दौड़े आए. मुनि-महाराज से माफ़ी मांगी और कहा कि इन लड़कों का उद्धार हो जाए, ऐसा इंतज़ाम कर दीजिए.
तब कपिल मुनि बोले, ‘उद्धार होगा. ज़रूर होगा. लेकिन सिर्फ़ तभी जब इन लड़कों की ख़ाक को मां-गंगा का पानी छुएगा’. पर अब ये नई दिक़्क़त. क्योंकि मां-गंगा तो तब धरती पर थीं ही नहीं. स्वर्ग में बहती थीं. उन्हें धरती पर लाए कौन? फिर भी राजा सगर ने कोशिश की. कामयाब नहीं हुए. उनका एक जो लड़का बच रहा था, अंशुमान. उसने भी कोशिश की. वे भी ना-कामयाब रहे. फिर अंशुमान के बाद उनके लड़के दिलीप ने भी कुछ न कुछ किया होगा. पर बात बनी नहीं. इसके बाद दिलीप के लड़के हुए भागीरथ. उन्हें कामयाबी मिली और उनकी कोशिशों से मां-गंगा धरती पर आईं, जिसके बारे में सबको पता ही है. बीच में, शिवजी की मदद भी लेनी पड़ी भागीरथ को. क्योंकि स्वर्ग से उतरतीं मां-गंगा की रफ़्तार सिर्फ़ वही थाम सकते थे. नहीं तो वे धरती फोड़कर सीधे पाताल में चली जातीं. ख़ैर, इस तरह ‘भागीरथी-गंगा’ से सगर के लड़कों का ही नहीं पूरी दुनिया का उद्धार हुआ. लेकिन पहले घमंड और फिर उसके नेस्तनाबूद होने के सिलसिले से होकर.
अब आते हैं, ‘दूध-गंगा’ के क़िस्से पर, जिसकी गंगोत्री, भागीरथ और गंगाधर-शिव, तीनों ही गुजरात में पाए जाते हैं. बल्कि, राजा सगर, उनके घमंडी लड़के और कपिल मुनि के किरदार भी ‘दूध-गंगा’ के क़िस्से में बख़ूबी नज़र आ सकते हैं, वहीं गुजरात में ही. मां-गंगा की कहानी की तरह ही शुरुआत ‘राजा सगर और उनके घमंडी लड़कों’ के किरदार से करते हैं. इस क़िस्से में ‘राजा सगर’ समझिए, पेस्तोनजी इडुलजी काे. ये पारसी कारोबारी होते थे. तो साल 1888 के आस-पास, जब पेस्तोनजी यही कोई 13 बरस के होंगे, तभी उन्हाेंने एक ‘कारोबारी-औलाद’ पैदा की. ‘पोलसन’ नाम रखा उसका. पेस्तोनजी को घर में लोग ‘पोली’ कहते थे. लिहाज़ा उन्होंने अपनी ‘कारोबारी-औलाद’ को ‘पोलसन’ कह दिया. ‘पोली का सन यानी लड़का, पोलसन’. पहले ये ‘पोलसन’ एक स्टोर होता था. इसमें कॉफ़ी को भूनकर, पीसकर, अच्छे से सजाकर पेश किया जाता था.
लेकिन जनाब, उस जमाने में कॉफ़ी कोई आम-हिन्दुस्तानी तो पीता नहीं था. अंग्रेजों और कुछ अमीर हिन्दुस्तानियों का शौक़ होता था, कॉफ़ी पीना. लिहाज़ा, ‘पोलसन कॉफ़ी’ के जो ग्राहक बने, वे सब बड़े रुतबेदार लोग हुए. इनकी सोहबत में ‘पोली और उनकी कारोबारी-औलाद पोलसन’ के सिर पर घमंड चढ़ जाना कौन सी बड़ी बात थी. सो, चढ़ गया. इसी चढ़े हुए दिमाग़ के साथ ‘पोली-पोलसन’ ने अश्वमेध यज्ञ की तरह अपनी कारोबारी सल्तनत फैलानी शुरू कर दी. तब उन्होंने देखा कि अंग्रेजों और रईस हिन्दुस्तानियों के बीच मक्खन की काफ़ी मांग है. और ये बाज़ार में मिलता नहीं. अंग्रेज या तो इसे लंदन से लाते हैं या फिर हिन्दुस्तानी घरों में निजी तौर पर बनाया जाता है. लिहाज़ा, ‘पोली-पोलसन’ ने मक्खन के कारोबार में पैर जमाए. अब तक वक़्त आ गया था, 1910-15 के आस-पास का. क़िस्मत ने भी ‘पोली-पोलसन’ का भरपूर साथ दिया.
हुआ यूं कि साल 1914 में पहला विश्व युद्ध छिड़ गया. इससे अंग्रेजों की फ़ौज में फ़ौजियों के लिए मक्खन की कमी हो गई. जबकि उनके बीच इसकी मांग बढ़ रही थी. ऐसे में ‘पोली-पोलसन’ ने मौक़े का फ़ायदा उठाया और खेड़ा, गुजरात में डेयरी-फार्म खोल दिया. अब ये ‘पोलसन’ कंपनी इस खेड़ा गांव और इसके नज़दीकी गांवों के किसानों से थोक में दूध ख़रीदती, उससे मलाई निकालती, उसे कुछ दिन खट्टा होने के लिए छोड़ती, फिर उसमें से निकाले मक्खन में थोड़ा नमक मिलाकर, बढ़िया से सजाकर ग्राहकों को बेच देती. बताते हैं, यह बढ़िया मक्खन बनाने का यूरोपीय तरीका होता है. अब चूंकि ग्राहक ज़्यादा वही थे, तो उन्हें उन्हीं के तरीके से बनाया मक्खन बेचने में मुनाफ़ा था. सो, हुआ भी. ख़ूब हुआ. ‘पोलसन का मक्खन’ पूरे हिन्दुस्तान में धीरे-धीरे यूं मशहूर हुआ कि एक वक़्त पर मक्खन-बाज़ी करने को ‘पोलसन लगाना’ कहा जाने लगा.
फिर, ‘पोली-पोलसन’ के इस कारोबारी फ़ैलाव में दूसरे विश्व-युद्ध (1939-1945) के दौरान भी ख़ूब मदद मिली. इसी बीच, बढ़ते कारोबार को देखते हुए 1930 तक खेड़ा से कुछ दूर ही आणंद में ‘पोलसन कंपनी’ ने बड़ी और आधुनिक डेयरी खड़ी कर ली. इस सबका मिला-जुला नतीज़ा ये रहा कि ‘पोलसन’ का घमंड अब सातवें आसमान पर पहुंच गया. ये कंपनी किसानों से औने-पौने दाम पर दूध खरीदकर ज़्यादा मुनाफ़ा अब अपनी जेब में रख रही थी. अपना कारोबार बढ़ा रही थी. ऐसे में, परेशान किसानों ने अब ‘पोलसन’ का घमंड ख़ाक में मिलाने का मंसूबा बांध लिया. कपिल-मुनि की तरह. और उनके मंसूबे को पूरा करने में उन्हें साथ मिला, गांधीवादी नेता त्रिभुवनदास किशीभाई पटेल का, जो ‘दूध-गंगा’ के क़िस्से में भागीरथ कहे जाएं. तो बड़ी बात नहीं. क्योंकि उन्हीं की कोशिशों से ‘पोलसन’ का न सिर्फ़ घमंड ख़ाक हुआ, बल्कि ‘दूध-गंगा’ भी बह निकली.
और जनाब, ये ‘दूध-गंगा’ जहां से निकली न, वह जगह वही थी खेड़ा. उसे ‘दूध-गंगा’ की गंगोत्री कहें तो अचरज न हो किसी को. यही नहीं, ‘दूध-गंगा’ के क़िस्से में ‘गंगाधर-शिव’ का किरदार अदा करने वाली शख़्सियत भी यहीं मिली. ‘दूध-गंगा’ की गंगोत्री खेड़ा में. सरदार वल्लभभाई पटेल नाम हुआ उनका, जो इसी इलाके में पैदा हुए थे. वह सरदार पटेल ही थे, जिन्होंने 1946 में त्रिभुवनदास किशीभाई और उनके साथियों को न सिर्फ़ ‘दूध-गंगा’ के उद्भव के लिए भागीरथी प्रयास करने के लिए कहा, बल्कि सरकारी और समाजी तौर पर इन भागीरथी प्रयासों को जो झटके लगने वाले थे न, उनका ख़ुद सामने होकर सामना भी किया. और फिर आख़िर में वह ‘दूध-गंगा’, जिसने इलाक़ाई किसानों का ही नहीं, पूरे हिन्दुस्तान का उद्धार किया, वह? उस किरदार में ढला ‘अमूल’, जिसे ‘हिन्दुस्तान की अमूल्य धरोहर’ कहें तो बेहतर. उसकी कहानी अब कल…
आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.
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दास्तान-गो : गुजरात के अमूल को हिन्दुस्तान की ‘अमूल्य धरोहर’ कहिए तो बेहतर
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Tags: Amul, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : November 24, 2022, 08:13 IST