दास्तान-गो : वह ‘दुश्मन’ भी रफ़ी-साहब के बेज़ान ज़िस्म से लिपटकर रोया था
दास्तान-गो : वह ‘दुश्मन’ भी रफ़ी-साहब के बेज़ान ज़िस्म से लिपटकर रोया था
Daastaan-Go : Mohammad Rafi Funeral : तय वक़्त पर स्टूडियो पहुंचे. दुर्गा-पूजा के लिए भजन रिकॉर्ड कराए और शाम ढलते तक घर लौटे. आते ही बैठक में सोफे पर निढाल होकर बैठ गए. अब तक तबीयत कुछ ज़्यादा बिगड़ने के आसार दिखने लगे थे. सीने में दर्द बढ़ गया था. ज़िस्म पसीना-पसीना हो रहा था. नाखून नीले पड़ रहे थे. ये हाल देखकर बेगम बिलक़ीस बानो ने तुरंत अपने घरेलू डॉक्टर को फोन लगाया. उन्होंने मशवरा दिया कि तुरंत रफ़ी-साहब को अस्पताल लेकर आइए.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, रमज़ान का महीना चल रहा था उस साल (1980 की बात है) तब. 27वें रोज़े का दिन था. कहते हैं कि नेक-दिल इंसानों के लिए इस पाक-महीने की आख़िरी 10 रातों को जन्नत के दरवाज़े खुला करते हैं. और वह तो जुमे’रात थी. रफ़ी-साहब (मोहम्मद रफ़ी) दीन-ओ-ईमान के पक्के शख़्स. उन्होंने भी रोज़े रखे थे. उसी वक़्त कलकत्ते के कुछ जानने वालों ने उनसे गुज़ारिश की थी कि आने वाली दुर्गा-पूजा के लिए कुछ भजन रिकॉर्ड कर दें. वे मना किसी को करते नहीं थे. मज़हबी, समाजी मक़सद से किए जाने वाले कामों के लिए बिल्कुल नहीं. तो जनाब, मंज़ूरी दे दी उन्होंने और 31 जुलाई की तारीख़ तय हुई रिकॉर्डिंग के लिए. हालांकि उस दिन तबीयत उनकी सुबह से कुछ नासाज़ सी थी. सीने में हल्का दर्द हो रहा था. रोज़े की वज़ह से पानी भी गले के नीचे न उतरा था. इसके बावज़ूद रिकॉर्डिंग के लिए वक़्त दिया था, तो मना कैसे करते.
तय वक़्त पर स्टूडियो पहुंचे. दुर्गा-पूजा के लिए भजन रिकॉर्ड कराए और शाम ढलते तक घर लौटे. आते ही बैठक में सोफे पर निढाल होकर बैठ गए. अब तक तबीयत कुछ ज़्यादा बिगड़ने के आसार दिखने लगे थे. सीने में दर्द बढ़ गया था. ज़िस्म पसीना-पसीना हो रहा था. नाखून नीले पड़ रहे थे. ये हाल देखकर बेगम बिलक़ीस बानो ने तुरंत अपने घरेलू डॉक्टर को फोन लगाया. उन्होंने मशवरा दिया कि तुरंत रफ़ी-साहब को अस्पताल लेकर आइए. रफ़ी-साहब ने भी मशवरा माना और ख़ुद बिना किसी सहारे के ही सीढ़ियां उतरकर कार तक पहुंचे. बेगम उनके साथ थीं. जाते वक़्त उन्होंने बच्चों को दुलार किया. उनका माथा चूमा. फिर कार में बैठने से पहले हाथ हिलाकर उनसे कहते गए, ‘मेरे लिए दुआ करना’. दुआ की जनाब. सबने दुआ की उनके लिए. लेकिन लगी नहीं. बल्कि अल्लाह को उनकी ज़रूरत लगी और उन्होंने रफ़ी-साहब को अपने पास बुला लिया.
दिल के दौरे के शिकार रफ़ी-साहब रात क़रीब 10.30 बजे इस फ़ानी (नश्वर) दुनिया से अलविदा कह गए. अपने जानने, चाहने वालों को रोता-बिलखता छोड़कर. उस वक़्त उनके इंतिक़ाल की ख़बर जिसे भी लगी, उसी की आंख नम हुई. इन्हीं में एक शख़्स ऐसा भी था, जिसने कहने-सुनने वालों ने रफ़ी-साहब का ‘दुश्मन’ क़रार दिया था. वे थे किशोर कुमार, हिन्दी फिल्मों के बड़े गुलू-कार (गायक). वह दौर था, जब किशोर-दा अपने फ़न की बलंदी पर थे. इसीलिए रफ़ी-साहब के साथ उनकी अदावत की ख़बरें चलती थीं. कहा जाता कि दोनों एक-दूसरे को देखना भी पसंद नहीं करते.
मगर इन ख़बरों की सच्चाई को उस वाक़ि’अे के बर-’अक्स देखिए, जब किशोर कुमार को रफ़ी-साहब के इंतिक़ाल की ख़बर लगी. बताते हैं, ख़बर मिलते ही किशोर कुमार अपने साहबज़ादे अमित को साथ लेकर तुरंत रफ़ी-विला पहुंचे. वहां पहुंचकर जैसे ही उन्होंने रफ़ी-साहब का बेजान ज़िस्म देखा वे उसके पैरों से लगकर बिलखने लगे. यूं जैसे कोई बच्चा अपने वालिद के चले जाने पर रोया करता है. अमित कुमार ख़ुद कई मौकों पर बता चुके हैं, ‘मैंने बाबा (पिता) को इस तरह बिलख-बिलख कर रोते हुए पहले कभी नहीं देखा था’. यही हाल जनाब, रफ़ी साहब के और तमाम ‘कहे जाने वाले दुश्मनों’ का हुआ जाता था, उस वक़्त. क्योंकि अस्ल बैरी तो उनका कोई था नहीं. सोचिए जनाब, इस शख़्स के जानने और चाहने वालों का क्या हाल रहा होगा. अगला रोज़ जुमे का था. तारीख़ आज की ही, यानी एक अगस्त. रफ़ी-साहब का ज़िस्म सुपुर्द-ए-ख़ाक किए जाने की तैयारी थी.
ज़िंदगी भर हमेशा मुस्कुराता हुआ दिखने वाला चेहरा उस रोज़ भी मुस्कुरा रहा था. मुमकिन है कि ये मुस्कुराहट जन्नत ‘अता हो जाने की रही हो. मगर जनाब, इधर ज़मीन पर ग़मगीन चेहरों की भीड़ बेशुमार थी. बताते हैं, यही कोई 10-15 हजार लोग जमा हुए थे तब. बांद्रा इलाके की तमाम सड़कें रफ़ी-साहब के चाहने वालों से अटी पड़ीं थीं. हर शख़्स अपने चहीते ‘रफ़ी’ की एक आख़िरी झलक पाने को बेताब हुआ जाता था. जनाज़ा उठा तो आसमान भीगता जाता था और धरती की छाती गीली होती जाती थी. लेकिन मजाल कि रफ़ी-साहब को अलविदा कहने आया कोई शख़्स टस-से-मस तो होता. दोपहर के वक़्त बांद्रा की मस्जिद में जुमे की नमाज़ के बाद नमाज़-ए-जनाज़ा ‘अता की गई. वहां से दो बजे के क़रीब सांताक्रूज़ पश्चिम के क़ब्रिस्तान की तरफ़ रवानगी हुई. यही कोई तीन घंटे लगे, वहां तक पहुंचने में जनाब. आख़िर में शाम 4.45 पर सुपुर्द-ए-ख़ाक की रस्म हो सकी.
लेकिन जनाब सवाल आता है ज़ेहन में कि इस तरह की अज़ीम शख़्सियतें वाक़’ई सुपुर्द-ए-ख़ाक हुआ करती हैं क्या? वे तो सुपुर्द-ए-‘अर्श हुआ करती हैं. इसी के लिए वे ज़मीं पर आया करती हैं. और उस मक़ाम तक उनके पहुंच जाने के बाद ज़मीन पर बने किसी छह फीट के गड्ढे की क्या बिसात जो किसी अज़ीम शख़्सियत को ख़ाक में मिला सके. अलबत्ता, रही बात ज़िस्म की तो उसके लिए ख़ुद रफ़ी-साहब ही कह गए हैं, ‘अजी एक दिन ऐसा आएगा, जब माटी में सब मिल जाएगा’ इसी में आगेा है, ‘माटी ही ओढ़न, माटी बिछावन, माटी का तन बन जाएगा, माटी में सब मिल जाएगा’. सो माटी का ज़िस्म, माटी में मिल भी गया तो उसका क्या ज़िक्र और क्या फ़िक्र. रफ़ी-साहब तो न कहीं गए थे, न गए हैं और न जाने वाले हैं. वे हमारे बीच ही हैं. हमेशा से, हमेशा के लिए.
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(नोट : हिन्दी फिल्मों के जाने-माने प्रोड्यूसर, डायरेक्टर और राइटर हुए हैं नासिर हुसैन साहब. रफ़ी साहब के आख़िरी समय का वाक़ि’आ एक वक़्त उन्होंने साझा किया था. इसके अलावा रफ़ी-साहब के साहबज़ादे शाहिद, बेटी नसरीन अहमद और किशोर कुमार के पुत्र अमित ने भी कुछ इंटरव्यू में उस वक़्त की बातें साझा की हैं. उन्हीं सब की मदद से यह दास्तान लिखी गई है.)
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Tags: Hindi news, Mohammad Rafi, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : August 01, 2022, 12:22 IST