दास्तान-गो : …और संजय गांधी का विमान सूखे पत्ते सा लहराते हुए पेड़ पर जा अटका
दास्तान-गो : …और संजय गांधी का विमान सूखे पत्ते सा लहराते हुए पेड़ पर जा अटका
Daastaan-Go ; Sanjay Gandhi Death Anniversary : धड़कते दिल से आहिस्ता-आहिस्ता पहुंची वहां, जहां स्ट्रेचर पर संजय और कैप्टन सक्सेना के बे-जान जिस्म रखे गए थे. लाल से कंबल में ओढ़ाकर रखा गया था उन लोगों को. कांपते हांथों से बेटे को आख़िरी बार छूकर देखा इंदिरा ने. क़ाबू नहीं रहा अब ख़ुद पर. सब भूल गईं. सिर्फ़ मां होना याद रह गया उन्हें. फूट-फूटकर रो पड़ीं वह.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज…
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वह 23 जून की ही तारीख़ थी. सोमवार का दिन और साल 1980 का. संजय गांधी उस रोज़ मां के घर (प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का आवास) से सुबह-सुबह अपनी हरी मेटाडोर पर सफ़दरगंज हवाई अड्डे के लिए निकल गए थे. जाते वक़्त मां से कोई दुआ-सलाम तक न की. किसी को कोई ख़ास अचरज भी न हुआ इससे क्योंकि यह उनका मानो रोज़ का सिलसिला बन गया था. सफ़दरगंज हवाई अड्डा उनके दूसरे घर की तरह था अब. यहां वे सुबह होते और शाम को भी. देर तक रुका करते. दिल्ली के आसमान पर हवाई जहाज़ उड़ाया करते. दोस्तों और नज़दीकियों को उसमें बिठाकर सैर कराते. हवाई जहाज़ को आसमान में क़लाबाज़ियां खिलाकर उनकी दम फुला दिया करते.
‘दिल्ली फ्लाइंग क्लब’ ने नया विमान ख़रीदा था अभी चंद रोज़ पहले ही, पिट्स-एस2ए. उसे देखकर बच्चों की तरह उछल पड़े थे संजय. लाइकोमिंग इंजन वाला 200 हॉर्स पावर का जहाज़. वज़न में हल्का और पंखे भी छोटे. महज़, 17 फ़ीट के. आराम और लचीलेपन के साथ इसे क़ाबू में किया जा सकता था. हवा में ख़ास क़लाबाज़ियां दिखाने के लिए ही बनाया गया था इसे. और संजय तो दूसरे जहाज़ों से भी इस तरह के क़रतब दिखा लिया करते थे. बड़े आराम से.
उत्तर प्रदेश सरकार के एक पायलट ‘दिल्ली फ्लाइंग क्लब’ में कुछ वक़्त संजय के साथ रहे. बताते थे, ‘हवाई जहाज़ उड़ाना तो उनके खून में था मानो. ज़बर्दस्त पायलट थे वे. एक नशा था उनमें इस शौक़ का. सियायत के झमेलों से जो दबाव उन पर बनता, उसे वे अपने इस शौक़ के ज़रिए आसमान की बुलंदियों पर ले जाकर दफ़न कर दिया करते थे.’ यूं ही उनके नज़दीकी रहे चंडीगढ़ के एक पायलट बताया करते हैं, ‘जहाज़ को आसमान की बुलंदियों पर ले जाकर उसे मनमुताबिक हवा में लहरा देना. क़लाबाज़ी करते हुए ज़मीन से ख़तरनाक ऊंचाई तक उसे नीचे ले आना. इस तरह कि साथ में बैठे शख़्स की सांसें अटक जाएं. डर के मारे पलकें बंद हो जाएं. और अभी वह इस हाल में ऊपर वाले को मदद के लिए याद ही करता रहे कि पलक झपकते जहाज़ को फिर सीधे ऊपर की तरफ़ ले जाना. यह सब बाएं हाथ का खेल था उनके. और जहाज़ की बारीकियां तो उन्हें इतनी पता थीं कि किसी पेशेवर पायलट को भी न होती होंगी.’ उनके एक दोस्त की मानें तो कई मर्तबा वे आसमानी ऊंचाई पर जहाज़ का इंजन ही बंद कर देते थे, कुछ देर, रोमांच के लिए.
ऐसे संजय के सामने जब नया जहाज़ आया तो सब्र न हुआ उनसे. तीन दिन से लगातार सुबह-शाम वह जहाज़ उड़ा रहे थे वे. एक दिन पहले इतवार की शाम पत्नी मेनका और इंदिरा गांधी के ज़ाती-मुआविन (निजी सहायक) आरके धवन को ज़िद कर के अपने साथ ले गए थे. देर शाम जब ये तीनों लौटे तो दो जनों के चेहरों की रंगत उड़ी हुई थी. धवन तो सीधे इंदिरा गांधी के पास पहुंच गए थे शिकायत लेकर. लद्दाख के दौरे से अभी लौटी ही थीं प्रधानमंत्री लेकिन धवन ख़ुद को रोक नहीं सके. उनके पास पहुंचकर शिकवा किया, ‘मैडम, बहुत ख़तरनाक तरीके से हवाई जहाज़ उड़ाते हैं आपके साहबज़ादे. मैं ख़ुद आज इसका चश्मदीद रहा हूं. एविएशन मिनिस्ट्री के अफ़सरान भी शिकायतें कर रहे हैं. उन्हें रोकिए आप. वर्ना किसी रोज़ कोई हादसा न हो जाए.’
चुपचाप सुनती रहीं इंदिरा गांधी. अलबत्ता, उनके चेहरे के उतार-चढ़ाव देख धवन को कुछ तसल्ली हुई कि शायद अब वे संजय को ऐसे ख़तरनाक तरीकों से हवाई जहाज़ उड़ाने से रोकेंगी. अब तक इंदिरा ख़ुद रुकी हुईं थीं. मुमकिन है, वे बेटे की ख़ुशी के रास्ते में न आना चाहती हों. अभी वे कुछ सोच ही रहीं थीं कि एक और ख़ास धीरेंद्र ब्रह्मचारी उनके पास आ गए. वे भी कश्मीर से इतवार को लौटे थे. बताने लगे, ‘आज जब मैं सफ़दरगंज हवाई अड्डे पर उतरा, तो संजय मिल गए. ख़ुशी से चेहरा दमक रहा था उनका. उन्हें इस हाल में देखकर मुझे भी बड़ी प्रसन्नता हुई. लेकिन मेरी यह ख़ुशी पलभर में ही काफूर हो गई, जब उन्होंने मुझे अपने साथ जहाज़ की सैर कराने की पेशकश कर दी. मैंने तो भई, साफ़ कह दिया उनसे- ऊपर क़लाबाज़ियां न दिखाने का वादा करो तो चलूंगा. हंसने लगे वे मेरी बात सुनकर. सुना है, बहुत ख़तरनाक तरीके से जहाज़ उड़ाते हैं साहबज़ादे.’
अभी 34 बरस के ही तो थे संजय कि बस, उनकी उम्र ने इससे ऊपर जाने से इंकार कर दिया मानो. अगली सुबह इंदिरा गांधी इस मसले पर संजय से कुछ बात कर पातीं कि इससे पहले ही वे घर से निकल चुके थे. सफ़दरजंग हवाई अड्डे पहुंचकर उन्होंने उस रोज़ ‘रेड बर्ड’ हवाई जहाज़ से उड़ान भरी थी. यह कलकत्ते की एक निजी कंपनी का जहाज़ था. दिल्ली फ्लाइंग क्लब से कोई लेना-देना नहीं था उसका. सुबह 7.58 का वक़्त था. जहाज़ के पायलट कैप्टन सुभाष सक्सेना को साथ लेकर संजय चंद मिनटों में ही आसमान की ऊंचाई से बातें कर रहे थे. कि तभी अचानक उन्हें क्या सूझी, उन्होंने जहाज़ तेजी से ज़मीन की ओर झुका दिया. दिल्ली में एक सरकारी बंगला हुआ, ‘12-विलिंगडन क्रेसेंट’. संजय का परिवार इस वक़्त यहीं रह रहा था. बताते हैं कि वे इस बंगले के पीछे मौज़ूद बाग़ीचे में चहल-क़दमी करते अपने घर के लोगों को नज़दीक से देखना चाहते थे.
इस बंगले के पड़ोस में ‘15-विलिंगडन क्रेसेंट’ में श्रीमति देवेंद्रनाथ रहा करती थीं. उस वक़्त वे अपनी रसोई में थीं. उन्होंने बंगले के बिल्कुल नज़दीक ख़तरनाक नीचाई पर जहाज़ उड़ते देखा तो घबराकर पति से पूछा, ‘ये जहाज़ इतना नीचे क्यों उड़ रहा है?’ अभी वे कुछ बता पाते कि रसोइए ने बरामदे देखा कि हवाई जहाज़ का इंजन बंद हो गया है. ऐसे कि गोया किसी स्कूटर को किसी ने चाभी घुमाकर बंद कर दिया हो. और अभी ये लोग माज़रा समझ पाते कि उन्होंने देखा कि जहाज़ हवा में लहरा गया है. किसी सूखे पत्ते की तरह और चंद मिनटों पर ये ‘जहाज़ी-पत्ता’ नाक के बल एक पेड़ पर जा ठहरा. तेज धमाके की आवाज़ और माहौल में हर कहीं धुआं-धुआं.
महज़ 15 मिनटों के भीतर ही दमकल की गाड़ियों और एंबुलेंस मौके पर सायरन बजाते हुए नज़र आ रही थीं. दमकल के चार लोगों ने पेड़ की टहनियां काटकर किसी तरह जहाज़ के दोनों ज़ख़्मी जिस्मों को बाहर निकाला. बाहर लाए जाने पर मालूम हुआ कि नहीं ये ज़ख़्मी नहीं, दोनों की मौत हो चुकी है. संजय गांधी का चेहरा बीच से फट गया था. कुचला हुआ सा था. कुर्ता-पायजामा जिस्म से चिपक गया था. जहाज़ के किसी कल-पुर्ज़े ने उनकी कमर को फाड़ दिया था. बगल में मौज़ूद कैप्टन सक्सेना का जिस्म संजय से चिपक गया था. मानो मरने से पहले दोनों ने आख़िरी बार एक-दूसरे को गले से लगा लिया हो. बताते हैं, दोनों जिस्मों को अलग करने में बाद वक़्त, आठ डॉक्टरों को चार घंटे लगे. इसके बाद ही इंदिरा गांधी को वहां मौके पर लाया गया.
मां थी वह. कार से उतरते ही अपनी औलाद का चेहरा देखने क़रीब-क़रीब दौड़ ही पड़ी कि तभी अपना ओहदा याद आया. ख़ुद को संभाला और धड़कते दिल से आहिस्ता-आहिस्ता पहुंची वहां, जहां स्ट्रेचर पर संजय और कैप्टन सक्सेना के बे-जान जिस्म रखे गए थे. लाल से कंबल में ओढ़ाकर रखा गया था उन लोगों को. कांपते हांथों से बेटे को आख़िरी बार छूकर देखा इंदिरा ने. क़ाबू नहीं रह पाया अब ख़ुद पर. सब भूल गईं और सिर्फ़ मां होना याद रह गया उन्हें. फूट-फूटकर रो पड़ीं वह. काफ़ी देर बाद संभल पाईं तो सबसे पहले कैप्टन सक्सेना के घरवालों को दिलासा देती दिखीं. आख़िर उन लोगों ने भी तो उनके अपने को खोया था हादसे में. इसके क़रीब दो घंटे बाद सूचना-प्रसारण मंत्री वसंत साठे ने आकाशवाणी के जरिए देश को संजय गांधी के निधन की सूचना दी. अगली सुबह पिता फिरोज गांधी के स्मारक के नज़दीक उनका अंतिम संस्कार किया गया.
संजय के बारे में कहा जाता है कि वे इंदिरा गांधी के वारिस थे, सही मायनों में. निजी तौर पर भी वे बहुत चाहती थीं उन्हें. तभी तो शायद, जैसा बताया करते हैं, वे दोबारा गईं थीं उस जगह जहां संजय का जहाज़ हादसे का शिकार हुआ. जानते हैं क्यों? उनकी पसंदीदा घड़ी लेने, अपने बेटे की निशानी, आख़िरी याद!
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