दास्तान-गो : सलिल चौधरी ‘डिज़ाइन’ के बजाय ‘डिज़ायर’ पर चलने और संगीत रचने वाले!
दास्तान-गो : सलिल चौधरी ‘डिज़ाइन’ के बजाय ‘डिज़ायर’ पर चलने और संगीत रचने वाले!
Daastaan-Go ; Salil Chowdhary Death Anniversary : मैंने ख़ुद के तज़रबों से समझा कि सालों-साल में फिल्म संगीत ने अपनी एक अलग ज़बान बना ली है. वह पूरे मुल्क में, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप में हर जगह, एक जैसी समझी जाती है. चाहे वह दक्षिण हो, उत्तर या उत्तर-पूर्व. इस मायने में देखा जाए तो फिल्म-जगत की यह उपलब्धि है क्योंकि राष्ट्रीय एकता का जो मक़सद दूसरे माध्यम ठीक तरह से हासिल नहीं कर पाए, वह फिल्म-संगीत ने कर दिखाया.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, साल 1958 की बात है ये. अमेरिका के लॉस एंजिलिस का वाक़ि’आ है. वहां इंडियन म्यूज़िक इंस्ट्रूमेंट्स की एक दुकान होती थी. अमेरिका में अपनी तरह की इक़लौती. बताते हैं, दुकान के मालिक थे डेविड बर्नार्ड. तो जनाब, एक दिन 35-36 साल का हिन्दुस्तानी नौजवान उनकी दुकान पर आया. ग़ौर से वह साज़ों को देखने लगा. साधारण से कपड़े पहने था. इसलिए स्टाफ़ उसकी तरफ़ से बे-परवा. फिर भी, रस्मी तौर पर, एक सेल्स गर्ल उसके पास आई. क्रिस्टीना नाम था उसका. वह नौजवान से बोली, ‘कहिए, मैं क्या मदद करूं आपकी’. नौजवान ने उससे सितार देखने की ख़्वाहिश की. क्रिस्टीना ने पूरा कलेक्शन दिखा दिया. उसमें से नौजवान को एक सितार पसंद आया. उसने कहा, ‘वो ज़रा उतार दीजिए’. उतारना मुश्किल था. सो, क्रिस्टीना ने टालने की कोशिश की.
लेकिन नौजवान ज़िद पर अड़ गया कि उसे तो ‘वही सितार चाहिए’. तब तक दुकान के मालिक डेविड भी आ गए. उन्होंने नौजवान की बात को सुना, समझा और उनके कहने पर वह सितार उतारा गया. तब भी क्रिस्टीना टोकते हुए बोली, ‘इसे बास-सितार कहते हैं. आम सितार-वादक इसे बजा नहीं सकते. ये बड़े-बड़े शो में इस्तेमाल होता है’. वह नौजवान बोला, ‘आप इसे बास-सितार कहिए. मगर हम इसे ‘सुरबहार’ कहते हैं. क्या मैं बजाकर देख सकता हूं’? डेविड ने नौजवान का दिल नहीं तोड़ा. सितार बजाने की उसे इजाज़त दे दी. नौजवान ने सितार के तार कसे. उसे सुर में मिलाया और बैठकर जो बजाना शुरू किया तो ऐसा बजाया कि वहां तमाम लोग जमा हो गए. जब राग पूरा हुआ तो माहौल में सन्नाटा था. लोग समझ नहीं पा रहे थे कि ताली बजाएं या मौन रहें.
इतना जादुई संगीत सुना था उन्होंने अभी. डेविड तो इतने भावुक हो गए कि वे फ़ौरन नौजवान से पूछ बैठे, ‘भाई, आप हो कौन?. मैंने रविशंकर को सुना है. उन जैसा सितार कोई नहीं बजाता. लेकिन आप उनसे कहीं भी कम नहीं रहे. मैं धन्य हो गया जो आप मेरी दुकान पर आए. कहिए, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं’. तब उस नौजवान ने कहा, ‘मैं ये सितार ख़रीदना चाहता हूं’. ज़वाब में डेविड ने कहा, ‘आपको ख़रीदने की ज़रूरत नहीं है. मेरी तरफ़ से ये तोहफ़ा है आपके लिए. क़ुबूल कीजिए’. और क्रिस्टीना तो रो रही थी. कुछ देर बाद जब संभली तो उसने एक डॉलर का नोट देते हुए उस नौजवान से कहा, ‘मैं हमेशा भारतीयों को कम आंकती थी. लेकिन आपने मेरी सोच बदल दी. मैं नहीं जानती आपसे फिर मुलाक़ात होगी या नहीं. इसलिए आप इस नोट पर कुछ लिख दीजिए. मेरे लिए, निशानी के तौर पर’. तब उस नोट पर नौजवान ने नाम लिखा, ‘सलिल चौधरी’.
सलिल चौधरी का जादुई संगीत
जी जनाब, बिना तयशुदा ‘डिज़ाइन’ के सिर्फ़ ‘डिजायर’ यानी इच्छा-मात्र से निकाली अपनी धुनों से लोगों को मुरीद बना लेने वाले का नाम है सलिल चौधरी. लोग प्यार से उन्हें सलिल-दा कहा करते थे. सलिल-दा, जिनके लिए कई हिन्दुस्तानी और पश्चिमी साज़ खिलौने होते थे. बचपन से ही. उन्होंने ख़ुद एक बार इंटरव्यू में ऑल इंडिया रेडियो पर बताया था, ‘पिता जी असम में डॉक्टर थे. लेकिन उन्हें संगीत से बड़ा लगाव था. ख़ासकर पश्चिम के शास्त्रीय संगीत से. उनके पास बड़ा संग्रह था, पश्चिम के शास्त्रीय संगीत का. बड़े भाई भी संगीत के शौक़ीन. उन्होंने तो संगीत को ही करियर बनाया. सो ज़ाहिर है, बचपन से मैंने भी संगीत को अपने खून में पाया. पांच, छह बरस का था, तो बांसुरी बजाता था. भाई से पियानो सीखता था. हारमोनियम, सुरबहार, इसराज (सारंगी जैसा प्राचीन वाद्य-यंत्र), वॉयलिन, ये सब भी सीखे और बजाए भी खूब’.
‘कॉलेज पहुंचते-पहुंचते संगीत बनाना शुरू कर दिया था. उसी समय पहला संगीतबद्ध गीत लोकप्रिय हुआ- ‘बिचारपति तोमार बिचार’. फिर कॉलेज की पढ़ाई के लिए कलकत्ते आ गया. वहां बड़े भाई पहले से ऑर्केस्ट्रा क्लास के डायरेक्टर के रूप में काम कर रहे थे. सो, ज़ाहिर तौर पर वहां भी संगीत और पढ़ाई-लिखाई साथ-साथ चल रही थी. ऐसे में कोई भी संगीत, वह चाहे हिन्दुस्तानी हो, पश्चिम का या लोक-संगीत, अजनबी नहीं लगा मुझे. यहां तक कि पश्चिम के लोक-संगीत से भी मेरी वाबस्तगी हो चुकी थी. अमेरिकी, रसियन, हंगेरियन और ऐसे पश्चिम के कई मुल्कों का लोक-संगीत मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में जगह बना चुका था. हिन्दुस्तान के आस-पड़ोस के मुल्कों का भी. जैसे- नेपाली, अफ़ग़ानी वग़ैरा. आगे चलकर जब मैंने फिल्मों के लिए संगीत तैयार किया, तो ये सभी पहलू बहुत काम आए. इनका मैं भरपूर इस्तेमाल कर सका अपने संगीत में.’
‘मिसाल के तौर पर बताता हूं. ‘छाया’ (1961) का एक गीत है, ‘इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा कि मैं एक बादल आवारा’. इसकी धुन पश्चिम के मशहूर संगीतकार मोज़ार्ट की 40वीं सिंफनी से ली गई है. ऐसे ही ‘अन्नदाता’ (1972) का गीत ‘रातों के साए घने’. इसमें पश्चिम के एक और मशहूर संगीतकार फ्रेडरिक चोपिन की धुन की झलक है. ‘दो बीघा ज़मीन’ (1953) का गीत ‘धरती कहे पुकार के, बीज बिछा ले प्यार के’. इसमें रूस के लोक-संगीत की धुन है. ‘नौकरी’ (1954) का गाना ‘छोटा सा घर हो’. इसके मुखड़े की धुन नेपाली लोक-संगीत से जुड़ी मेरी बचपन की यादों से आई. ‘काबुलीवाला’ (1961) का ‘ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन’. इसमें अरबी साज़ और धुन ली गई. इसी तरह, ‘जागते रहो’ (1956) का नग़्मा ‘ते कि मैं झूठ बोलया’. इसमें पहली बार पंजाब का ‘भंगड़ा’ इस्तेमाल किया. बहुत हैं. उन सब को मैंने अपने अंदाज़ में पेश किया. कॉपी नहीं किया’.
‘मैंने संगीत की ज़बान को समझा था. और यह भी कि ये ज़बान हर जगह, दुनियाभर में, बल्कि पूरी क़ायनात में एक जैसी है. इसीलिए मुझे कभी, किसी ज़बान में धुनें तैयार करने में दिक़्क़त महसूस नहीं हुई. मैंने हिन्दुस्तान की 13 ज़बानों में गीतों के लिए संगीत बनाया. ज़बान कभी रोड़ा नहीं बनी. मैंने उसका तरीका ढूंढ लिया था. फिल्म की कहानी की सिचुएशन समझकर मैं उसके मुताबिक पहले धुन बना देता था. फिर नग़्मे लिखने वाले अपनी ज़बान के मुताबिक, उस धुन पर गीत के बोल रख देते थे. ऐसा करने की वजह से मुझे लोगों की बातें भी सुननी पड़ीं. ख़ासकर, लिखने वालों की. क्योंकि तब लिखे हुए गीतों के हिसाब से धुन बनाने का चलन था. तो मुझसे लोग कहते कि आप तो पहले ताबूत तैयार करते हैं. फिर ज़िस्म को काट-छांटकर उसमें फिट करने को कहते हैं. मगर मैंने ध्यान नहीं दिया क्योंकि मेरा तरीका काम कर रहा था’.
संगीत की एक अलग छाप
‘मैंने ख़ुद के तज़रबों से समझा कि सालों-साल में फिल्म संगीत ने अपनी एक अलग ज़बान बना ली है. वह पूरे मुल्क में, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप में हर जगह, एक जैसी समझी जाती है. चाहे वह दक्षिण हो, उत्तर या उत्तर-पूर्व. मतलब ये कि अगर कोई संगीत बंगाल में पसंद किया गया, बंगाली ज़बान के गीत में, तो तय है कि वह केरल में मलयाली के गीत में भी वैसा ही पसंद किया जाएगा. ओडिया या किसी दूसरी ज़बान में भी. इस मायने में देखा जाए तो फिल्म-जगत की यह उपलब्धि है क्योंकि राष्ट्रीय एकता का जो मक़सद दूसरे माध्यम ठीक तरह से हासिल नहीं कर पाए, वह फिल्म-संगीत ने कर दिखाया’. इसी बीच जनाब, सवाल पूछने वाले ने सलिल-दा से उनका पसंदीदा गीत पूछ लिया, तो कहने लगे, ‘यह तो वैसा ही हुआ जैसे मां-बाप से उनकी पसंदीदा औलाद पूछ ली जाए. ऐसा कोई एक गीत बताना मुमकिन नहीं होगा’.
फिर थोड़ा इसरार किया गया तो सलिल-दा बताने लगे, ‘फिल्म ‘परख’ (1960) का गीत ‘ओ सजना, बरखा बहार आई’ और ‘मधुमति’ (1958) का ‘आ जा रे परदेसी’. कह सकता हूं कि इनमें मुझे कुछ ज़्यादा करने का मौका मिला’. कुछ ज़्यादा करने का मौका मतलब? क्या आप अपने इतने विस्तारित सांगीतिक योगदान से संतुष्ट नहीं? ‘संतुष्ट तो एक फ़नकार कभी नहीं होता. मुझे अब भी लगता है कि मैं और बेहतर कर सकता था. जितना सोचा था, उसका 20-30 फ़ीसद ही हो पाया. इस बारे में मेरा जो ख़्याल है, वह ‘आनंद’ (1971) के एक गीत से झलकता है, ‘ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय, कभी तो हंसाए, कभी ये रुलाए’. फिर तो आपको बंबई में कुछ और वक़्त रुकना था? शायद कसक न रहती? आपने जल्द नहीं छोड़ दी बंबई? ‘हां, क्योंकि मैंने कंटेंट से समझौता नहीं किया. इसीलिए जब मुझे लगा कि हिन्दी सिनेमा में गीत-संगीत का जो नया कंटेंट आ रहा है, वह मेरे मिज़ाज पर फिट नहीं बैठता तो मैं वहां से कलकत्ता चला आया’.
बिल्कुल जनाब, ऐसे ही थे सलिल-दा. अपनी ‘डिज़ायर’ से चलने वाले. क्योंकि ये सिर्फ़ संगीतकार नहीं थे. इंक़िलाबी-तबीयत थी इनकी. महज़ 18-20 बरस की उम्र में ‘आज़ाद हिन्द’ फ़ौज के सिपाहियों पर अंग्रेजों के ज़ुल्म देखे थे इन्होंने. बंगाल में अकाल के दिनों में, साल 1944 में 50 लाख किसानों को कलकत्ता की गलियों में मरते देखा था. इसका असर इनके मन पर ऐसा हुआ कि सीधे कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए. आंदोलनों में उतरे. एमए की पढ़ाई पूरी करने से पहले ही ‘इप्टा (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन) का हिस्सा बन गए. फिर कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्ण-कालिक सदस्य भी बने. इससे क़रीब दो साल तक अंडरग्राउंड रहना पड़ा. क्योंकि सरकार आंदोलन करने वालों को ढूंढकर जेल भेज देती थी. इस दौरान सलिल-दा आंदोलन के लिए नाटक और गीत लिखा करते थे. उन्हें संगीतबद्ध करते थे. उन गीतों, नाटकों में से कई आज भी बंगाल में मशहूर हैं.
कहानियां भी लिखते थे. ऐसी ही एक कहानी लिखी गांव की ज़मीन से बेदख़ल होकर रोजी-रोटी के लिए शहर में रिक्शा चलाने वाले किसान की. साल 1953 की बात है ये. यह कहानी सलिल-दा ने ऋषिकेश मुखर्जी को सुनाई. अब तक सलिल-दा बांग्ला फिल्मों में संगीत देने लगे थे. कुछ फिल्में आ चुकी थीं, हिट. ‘परिबर्तन’ (1949), ‘बरजात्री’ (1951) ‘पाशेर बाड़ी’ (1952) वग़ैरा. तो जनाब, ऋषिकेश मुखर्जी ने सलिल-दा को मशवरा दिया कि वे यह कहानी बिमल रॉय को सुनाएं. बिमल-दा उस वक़्त बंबई से कलकत्ता आए थे. सलिल-दा ने उनसे समय लिया और पहुंच गए उनके पास कहानी सुनाने. बिमल-दा ने कहानी सुनी लेकिन कुछ कहा नहीं. बस, इतना बोले, ‘कल सुबह आकर मिलना’. अगली सुबह जब सलिल-दा पहुंचे, तो बिमल-दा बंबई रवाना हो चुके थे. सुबह की उड़ान से. लेकिन इसके एक हफ़्ते बाद सलिल-दा को टेलीग्राम मिला. बिमल-दा का, ‘तुरंत बंबई आ जाओ. तुम्हारी कहानी पर फिल्म बनाएंगे’. यूं संगीतकार सलिल-दा, कहानीकार बनकर पहुंचे बंबई.
इसके बाद बिमल-दा ने सलिल-दा की कहानी पर फिल्म बनाई ‘दो बीघा ज़मीन’, साल 1953 में ही. सलिल-दा की पहली हिन्दी फिल्म. इसमें कहानी तो थी ही, संगीत भी उन्हीं का था. तो जनाब, ऐसे थे सलिल-दा. किसी ‘डिज़ाइन’ में नहीं ढले, ‘डिज़ायर’ से चले. यही ‘डिज़ायर’ उन्हें मुख़्तलिफ़ क़िस्म के तमाम फ़न ‘अता करती गई. और वे हो गए गीतकार सलिल चौधरी. संगीतकार सलिल चौधरी. नाटककार सलिल चौधरी. कहानीकार सलिल चौधरी. इनमें सबसे अव्वल इंक़िलाब-पसंद सलिल चौधरी. वह गाना हो, संगीत हो, नाटक हो, कहानी हो, सब में तय व्यवस्था को धता बताने, बदलने का उनका इंक़िलाबी-मिज़ाज साफ़ झलकता है. यक़ीन न हो तो उनके कुछ गाने ही सुन लीजिए. एक तो वही भंगड़े वाला ‘ते कि मैं झूठ बोलया’. उसके बोल समाज-व्यवस्था को चुनौती देते हैं. और ‘आ जा रे परदेसी’. इसके बीच में दूसरे गाने की धुन संगीत का तय-पैटर्न तोड़ती है. फिल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ तो व्यवस्था पर चोट की कहानी ही है.
ऐसा बहुत कुछ है, उनकी शख़्सियत में. वह सब आज भी हमारे बीच क़ायम है. जबकि दुनिया से ज़िस्म उठ चुका है, सलिल-दा का. पांच सितंबर 1995 को ही.
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